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भगवई अत्यि-नस्थि-पदं
श.१: उ.३: सू.१३३-१३५ अस्ति-नास्ति-पद
अस्ति-नास्ति-पदम्
१३३. से नणं मंते ! अत्थितं अत्थित्ते परि- णमइ ? नत्थित्तं नत्यित्ते परिणमइ?
अथ नूनं भदन्त ! अस्तित्वम् अस्तित्वे परि- १३३. 'भन्ते ! क्या अस्तित्व अस्तित्व में (उत्पादणमति ? नास्तित्वं नास्तित्वे परिणमति ? पर्याय उत्पाद-पर्याय में) परिणत होता है ?
नास्तित्व नास्तित्व में (व्यय-पर्याय व्यय-पर्याय में)
परिणत होता है ? हन्त गौतम ! अस्तित्वम् अस्तित्वे परिणमति।। हां, गौतम ! अस्तित्व अस्तित्व में परिणत होता नास्तित्वं नास्तित्वे परिणमति ।
है और नास्तित्व नास्तित्व में परिणत होता है।
हंता गोयमा अत्थित्तं अत्थित्ते परिणमइ। नत्थित्तं नत्थित्ते परिणमइ॥
१३४. जणं भंते ! अत्यित्तं अत्यित्ते परि-
णमइ, नत्थित्तं नत्थित्ते परिणमइ, तं किं पयोगसा? वीससा? गोयमा ! पयोगसा वि तं (अत्यित्तं अत्थित्ते परिणमइ, नत्थितं नत्थित्ते परिणमइ)।
यद् भदन्त ! अस्तित्वम् अस्तित्वे परिणमति, १३४. भन्ते !जो अस्तित्व अस्तित्व में परिणत होता नास्तित्वं नास्तित्वे परिणमति, तत् किं है और नास्तित्व नास्तित्व में परिणत होता है, प्रयोगेण ? विस्रसा?
वह किसी प्रयोग से होता है अथवा स्वभाव गौतम ! प्रयोगेण अपि तद् (अस्तित्वम् अस्ति- से?गौतम ! वह प्रयोग से भी होता है (अस्तित्व त्वे परिणमति, नास्तित्वं नास्तित्वे परि- अस्तित्व में परिणत होता है और नास्तित्व णमति)।
नास्तित्व में परिणत होता है)। विनसा अपि तद् (अस्तित्वम् अस्तित्वे परि- वह स्वभाव से भी होता है (अस्तित्व अस्तित्व में णमति, नास्तित्वं नास्तित्वे परिणमति। परिणत होता है और नास्तित्व नास्तित्व में परिणत
होता है)।
वीससा वि तं (अत्थित्तं अत्थित्ते परिणमइ, नत्थित्तं नत्थित्ते परिणमइ)॥
१३५. जहा ते भंते ! अत्यित्तं अत्थित्ते परिण- मइ, तहा ते नत्यित्तं नत्थित्ते परिणमइ?
जहा ते नत्थित्तं नत्थित्ते परिणमइ, तहा ते अत्थितं अत्थित्ते परिणमइ ?
यथा तव भदन्त ! अस्तित्वम् अस्तित्वे परि- १३५. भन्ते ! जैसे तुम्हारा अस्तित्व अस्तित्व में णमति, तथा तव नास्तित्वं नास्तित्वे परिण- परिणत होता है, वैसे ही क्या तुम्हारा नास्तित्व मति ?
नास्तित्व में परिणत होता है ? यथा तव नास्तित्वं नास्तित्वे परिणमति, तथा जैसे तुम्हारा नास्तित्व नास्तित्व में परिणत होता है, तव अस्तित्वम् अस्तित्वे परिणमति ? वैसे ही क्या तुम्हारा अस्तित्व अस्तित्व में परिणत
होता है ? हन्त गौतम ! यथा मम अस्तित्वम् अस्तित्वे हां, गौतम ! जैसे मेरा अस्तित्व अस्तित्व में परिणत परिणमति, तथा मम नास्तित्वं नास्तित्वे परि- होता है, वैसे ही मेरा नास्तित्व नास्तित्व में परिणत णमति।
होता है। यथा मम नास्तित्वं नास्तित्वे परिणमति, तथा । जैसे मेरा नास्तित्व नास्तित्व में परिणत होता है, वैसे 'मम अस्तित्वम् अस्तित्वे परिणमति । ही मेराअस्तित्व अस्तित्व में परिणत होता है।
हंता गोयमा ! जहा मे अत्थित्तं अत्थित्ते परिणमइ, तहा मे नत्थितं नत्थित्ते परिणमइ। जहा मे नत्यित्तं नत्थित्ते परिणमइ, तहा मे अत्थित्तं अत्थित्ते परिणमइ॥
भाष्य
१. सूत्र १३३-१३५
भारतीय दर्शन में ईश्वरवाद और अनीश्वरवाद—ये दो धारणाएं रही हैं। ईश्वरवादी दार्शनिक पदार्थ के उत्पाद और विनाश को ईश्वर-प्रयल-जन्य मानते थे। भगवान् महावीर ने उत्पाद और विनाश के साथ ईश्वर का सम्बन्ध स्वीकार नहीं किया। उनका दर्शन था कि उत्पाद और विनाश दोनों प्राणी के प्रयल से भी होते हैं
और उसके प्रयल के बिना (अप्रयलजनित) भी होते हैं। मिट्टी का पिण्ड घड़ा बन रहा है। उसके पीछे प्राणी का प्रयल है। आकाश
में बादल मंडरा रहे हैं। उसके पीछे प्राणी का प्रयल नहीं है, वह स्वाभाविक परिणमन है। परमाणुओं के मिलने से स्कन्ध बन रहा है, वह अप्रयत्नजन्य है। इस प्रकार जिस उत्पाद-पर्याय के पीछे प्राणी का प्रयल हो, उसे प्रायोगिक और जिसके पीछे किसी का प्रयल न हो, उसे स्वाभाविक मानना न्यायसंगत है। जैसे वैशेषिक दर्शन प्रत्येक उत्पद्यमान पदार्थ को प्रायोगिक मानता है, वैसे जैन दर्शन प्रत्येक पदार्थ को प्रायोगिक नहीं मानता, वह प्रायोगिक और
मनो—मानसम् उत्पनं सत् धारयन्-स्थिरीकुर्वन् ‘एवं पकरेमाणे'त्ति उक्तरूपेणा- नुत्पन्नं सत् प्रकुर्वन्-विक्धानः। ‘एवं चिट्ठमाणे ति उक्तन्यायेन मनश्चेष्टयन् नान्यमतानि सत्यानीत्यादिचिन्तायां व्यापारयन्, चेष्टमानो वा विधेयेषु तपो
ध्यानादिषु, ‘एवं संवरेमाणे'त्ति उक्तवदेव मनः संवृण्वन् मतान्तरेभ्यो निवर्तयन् प्राणातिपातादीन् वा प्रत्याचक्षाणो जीव इति गम्यते ।
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