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________________ भगवई श.१: उ.३ः सू.१३१,१३२ हंता गोयमा ! तमेव सचं णीसंकं, जं जिणेहिं पवेइयं॥ हन्त गौतम ! तदेव सत्यं निःशङ्क, यज जिनैः प्रवेदितम् । हां, गौतम ! वही सत्य और निःशंक है, जो जिनों द्वारा प्रवेदित है। १३२. से नृणं भंते ! एवं मणं घारेमाणे, एवं अथ नूनं भदन्त ! एवं मनः धारयन्, एवं प्रकुर्वन्, एवं चेष्टमानः, एवं संवृण्वानः आज्ञायाः आराधको भवति? आणाए आराहए भवति ? १३२. भन्ते ! क्या (जिनों द्वारा प्रवेदित है, वही सत्य और निःशंक है) इस प्रकार के मन को धारण करता हुआ, उत्पन्न करता हुआ, इस प्रकार की चेष्टा करता हुआ, इस प्रकार मन का संवर करता हुआ आज्ञा का आराधक होता है ? हां, गौतम ! इस प्रकार के मन को धारण करता हुआ, उत्पन्न करता हुआ, इस प्रकार की चेष्टा करता हुआ, इस प्रकार मन का संवर करता हुआ आज्ञा का आराधक होता है। हंता गोयमा ! एवं मणं घारेमाणे, एवं पकरेमाणे, एवं चिद्वेमाणे, एवं संवरेमाणे आणाए आराहए भवति ।। हन्त गौतम ! एवं मनः धारयन्, एवं प्रकुर्वन, एवं चेष्टमानः, एवं संवृण्वानः आज्ञायाः आराधको भवति। भाष्य और अहेतुगम्य। इन्द्रिय-ज्ञान की सीमा में विषय बनने वाले पदार्थ हेतुगम्य हैं। इन्द्रिय-ज्ञान की सीमा से परे जो सूक्ष्म और अमर्त हैं, वे अहेतुगम्य हैं। इसीलिए उन्होंने लिखा है कि आगम या अतीन्द्रिय के विषय में अहेतुवाद का और स्थूल पदार्थों के विषय में हेतुवाद का प्रयोग करना चाहिए।' उक्त सूत्र अहेतुवाद का आधारभूत सूत्र १. सूत्र १३१,१३२ तमेव सचं णीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं—यह कांक्षामोहनीय का आलम्बन-सूत्र है। अध्यात्म की अनेक भूमिकाएं हैं। उसकी पहली भूमिका है सम्यग् श्रद्धा। ज्ञेय तीन प्रकार का होता है१. सुखाधिगम---जो सरलता से जाना जा सके। २. दुरधिगम-जो कठिनाई से जाना जा सके। ३. अनधिगम-जो परोक्ष ज्ञान से न जाना जा सके। सुखाधिगम के विषय में शंका का अवकाश विशेष नहीं होता। दुरधिगम के विषय में शंका का कुछ अवकाश रहता है। अनधिगम परोक्ष ज्ञान का विषय नहीं होता, इसलिए वह शंका का मुख्य क्षेत्र बनता है। विभिन्न मान्यताएं हैं और विभिन्न विचार। इस अवस्था में ज्ञाता यह निर्णय नहीं कर पाता कि सम्यक् क्या है और मिथ्या क्या है ? सम्यक् और मिथ्या की कसौटी क्या है ? यह अनिर्णय की अवस्था कांक्षामोहनीय के वेदन का निमित्त बन जाती है। उस स्थिति में उक्त सूत्र आलम्बन बनता है। 'जो जिन द्वारा प्रवेदित है, वही सत्य है' इस वाक्य से यह अर्थ ध्वनित होता है जो जिन द्वारा प्रवेदित है, वही सत्य है, शेष नहीं। इसलिए 'एव' शब्द की व्याख्या सत्य के साथ करना अधिक संगत प्रतीत होता है। 'जो जिन द्वारा प्रवेदित है वह सत्य ही है'-इस वाक्य में दूसरों द्वारा प्रवेदित सत्य भी सुरक्षित है। आचार्य सिद्धसेन ने दो प्रकार के पदार्थ बतलाए हैं–हेतुगम्य ___आचार्य सिद्धसेन का ससमय-पण्णवओ यह वचन आणाए आराहए का अनुवाद जैसा लगता है। उपाध्याय यशोविजयजी ने प्रस्तुत सूत्र को द्रव्य सम्यक्त्व का प्रतिपादक बतलाया है। किन्तु वह विमर्शनीय है। वास्तव में प्रस्तुत सूत्र अतीन्द्रिय ज्ञान या अतीन्द्रिय ज्ञानी द्वारा प्रतिपादित सत्य की स्वीकृति का सूचक है।' शब्द-विमर्श २. मन को धारण करता हुआ....संवर करता हुआ मन को धारण करता हुआ—आस्थायुक्त मन को धारण करता हुआ। मन को उत्पन्न करता हुआ---उस सत्य की ओर मन को गतिशील करता हुआ। चेष्टा करता हुआ उस दिशा में मन की निरन्तरता बनाता हुआ ___ अथवा चेष्टा करता हुआ। संवर करता हुआ—असत्य से अपने आपको निवृत्त करता हुआ।' १. सम्मति.३।४३-४ दुविहो धम्मावाओ अहेउवाओ य हेउवाओ य । तत्थ उ अहेउवाओ भवियाऽभवियादओ भावा ॥ भविओ सम्मइंसण-णाण-चरित्तपडिवत्तिसंपन्नो। णियमा दुक्खंतकडो ति लक्खणं हेउवायस्स ।। जो हेउवायपखंमि हेउओ आगमे य आगमिओ। सो ससमयपण्णवओ सिद्धतविराहओ अन्नो ।। २. तुलना-आयारो, ५/६५ तथा उसका भाष्य । ३. ज्ञान.प्र.४०-अत एव चरणकरणप्रधानानामपि स्वसमयपरसमयमुक्तव्यापाराणां द्रव्यसम्यक्त्वेन चारित्रव्यवस्थितावपि भावसम्यक्त्वाभावः प्रतिपादितः संमती महावादिना । द्रव्यसम्यक्त्वं च तदेव सत्यं निःशंकं यजिनेन्द्रः प्रवेदितम्' इति ज्ञानाहितवासनारूपम्, माषतुषाद्यनुरोधाद् गुरुपारतंत्र्यरूपं वा इत्यन्यदेतत्। ४. भ.वृ.१।१३२ तदेव सत्यं निःशङ्कं यजिनैः प्रवेदित'मित्यनेन प्रकारेण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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