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भगवई
श.१: उ.३: सू.११८-१३१
५. उदीरणा
अनुदित कर्म को 'अपवर्तना' करण के द्वारा उदय में लाना। ६. वेदन
कर्म का अनुभव करना। ७. निर्जरण
जीव-प्रदेशों से कर्म-प्रदेशों का पृथक्करण ।
८. संग्रहणी गाथा
कृत, चित और उपचित में चार-चार विकल्पों का निर्देश किया गया है। कृत, चित और उपचित कर्म चिरस्थायी होता है; इसलिए तीन काल की क्रिया के अतिरिक्त एक सामान्य क्रिया का प्रयोग किया गया है। उदीरणा, वेदना और निर्जरा-ये चिरस्थायी नहीं होते; इसलिए इनके लिए केवल त्रिकालवर्ती क्रिया का ही प्रयोग किया गया है।'
१२६. जीवा णं भंते ! कंखामोहणिज्जं कम्मं
वेदेति ? हंता वेदेति॥
जीवाः भदन्त ! कांक्षामोहनीयं कर्म वेद- १२६. 'भन्ते ! क्या जीव कांक्षामोहनीय कर्म का यन्ति ?
वेदन करते हैं? हन्त वेदयन्ति।
हां, करते हैं।
१३०. कहणं मंते ! जीवा कंखामोहणिलं
कम्मं वेदेति ? गोयमा ! तेहिं तेहिं कारणेहिं संकिया, कंखिया, वितिगिछिया, भेदसमावना, कलुससमावना-एवं खलु जीवा कंखामोहणिजं कम्मं वेदेति ।।
कथं भदन्त ! जीवाः कांक्षामोहनीयं कर्म १३०. भन्ते ! जीव कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन वेदयन्ति?
कैसे करते हैं ? गौतम ! तैः तैः कारणैः शङ्किताः, काक्षि- गौतम ! उन-उन कारणों से जीव शंकित, कांक्षित, ताः, विचिकित्सिताः, भेदसमापन्नाः, कलुष- विचिकित्सित, भेद-समापन्न, कलुष-समापन्न हो समापनाः–एवं खलु जीवाः कांक्षामोहनीयं जाते हैं। इस प्रकार जीव कांक्षामोहनीय कर्म का कर्म वेदयन्ति।
वेदन करते हैं।
भाष्य
१. सूत्र १२६,१३०
प्रस्तुत आलापक में कांक्षामोहनीय कर्म-वेदन के पांच हेतु बत- लाए गए हैं: १. शंका-तत्त्व के विषय में सन्देह । २. कांक्षा-कुतत्त्व की आकांक्षा । ३. विचिकित्सा-धार्मिक आराधना के फल के विषय में सन्देह। ४. भेद-तत्त्व या सत्य के प्रति मति का द्वैध-अनिर्णायक स्थिति।
का होना। ५. कलुष-तत्त्व के प्रति निर्मल बुद्धि का अभाव ।
प्रस्तुत आगम के दूसरे शतक के प्रथम उद्देशक में 'शंकिता' । आदि पांच पदों के अर्थ वृत्तिकार ने भित्र प्रकार से किए हैं। वहां
सन्दर्भ भिन्न है; इसलिए अर्थ-परिवर्तन होना स्वाभाविक है। वृत्तिकार ने प्रस्तुत प्रकरण में भेद का अर्थ मति का द्वैधभाव और कलुष का अर्थ 'यह ऐसा नहीं है' इस प्रकार का मति-विपर्यास किया है।'
वृत्तिकार ने प्रश्न उपस्थित किया है—जीव कांक्षामोहनीय का वेदन करता है इसका प्रतिपादन पूर्व सूत्र में हो चुका, पुनः इसका प्रतिपादन क्यों ? इसके समाधान में उन्होंने एक गाथा उद्धृत की है। इसका अर्थ है कि पूर्वप्रतिपादित तथ्य का पुनः प्रतिपादन किया जाता है, उसके तीन कारण हैं-प्रतिषेध, अनुज्ञा और हेतु-विशेष की उपलब्धि। इस 'वेदन-सूत्र' में वेदन के हेतुओं का विशेष उल्लेख किया गया है; इसलिए यह सार्थक है।
सद्धा-पदं
श्रद्धा-पदम्
श्रद्धा-पद
१३१. से नणं भंते ! तमेव सचं णीसंकं,
जं जिणेहिं पवेइयं?
अथ नूनं भदन्त ! तदेव सत्यं निःशङ्क, यज् १३१. 'भन्ते ! क्या वही सत्य और निःशंक है, जिनैः प्रवेदितम् ?
जो जिनों (अर्हतों) द्वारा प्रवेदित है ?
१. भ.वृ.१1१२८ नवाचे सूत्रत्रये कृतचितोपचितान्युक्तानि उत्तरेषु कस्मानो- जिनशासनस्वरूपं प्रति मतेद्वैधीभावं गताः, अनध्यवसायरूपं वा मतिभङ्ग
दीरितवेदितनिर्जीर्णानि ? इति, उच्यते-कृतं चितमुपचितं च कर्म चिरमप्य- गताः, अथवा यत एव शङ्कितादिविशेषणा अत एव मतेद्वैधीभावं गताः, वतिष्ठत इति करणादीनां त्रिकालक्रियामात्रातिरिक्तं चिरावस्थानलक्षणकृतत्वा- _ 'कलुषसमापन्नाः' नैतदेवमित्येवं मतिविपर्यासं गताः। द्याश्रित्य कृतादीन्युक्तानि । उदीरणानां तु न चिरावस्थानमस्तीति त्रिकालवर्तिना ४. वही,१।१२६-- क्रियामात्रेणैव तान्यभिहितानीति।
पुव्वभणियं पि पच्छा जं भण्णइ तत्थ कारणं अत्थि। २. वही,२२७।
पडिसेहो य अणुना, हेउविसेसोवलंभो त्ति ।। ३. वही,१।१३०-भेदसमापना इति-किमिदं जिनशासनमाहोस्विदिदम् इत्येवं
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