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________________ श.१: उ.३. सू.११८-१२८ ७४ भगवई जीव का स्वभाव मानकर उसकी व्याख्या की है।' मलयगिरि ने चित का अर्थ 'उत्तरोत्तर स्थितियों में प्रदेश-हानि और इस नियम का दूसरा खण्ड है सवं। इसका तात्पर्य है कि रस-वृद्धि के द्वारा अवस्थापित करना' किया है। एक काल में जितने कर्म-पुद्गलों का ग्रहण करना है उनका एक भगवती, प्रथम शतक के नौवें उद्देशक की वृत्ति में अभयदेवसूरि साथ ग्रहण किया जाएगा, उनका आंशिक ग्रहण नहीं होगा। इस ने चिणाइ का सम्बन्ध अनुभाग-बन्ध अथवा 'निधत्तावस्था' से बतलाया प्रकार सम्वेणं सव्वे का नियम ग्राहक और ग्रहणीय द्रव्य दोनों से है। पण्णवणा में भी बन्ध की छह अवस्थाएं प्रतिपादित हैं-१.बद्ध सम्बन्धित है। प्रस्तुत सूत्र के चार विकल्पों में यह चौथा विकल्प २. स्पृष्ट ३. बद्धस्पर्शस्पृष्ट ४. संचित ५. चित ६. उपचित। इसी सम्मत है, शेष तीनों विकल्प कर्म-बन्ध के सम्बन्ध में मान्य नहीं हैं। प्रकार उपचित पद के भी भिन्न-भिन्न अर्थ मिलते हैं-अभयदेवसरि २. कांक्षामोहनीय के अनुसार 'प्रदेश और अनुभाग आदि की बार-बार वृद्धि करना' उपचय है। मतान्तर के अनुसार चित के अबाधाकाल को छोड़कर कांक्षा का अर्थ है अभिलाषा। विभिन्न दृष्टिकोणों या मतवादों वेदन के योग्य निषेक की रचना करना उपचय है।" के सामने आने पर कांक्षामोह की स्थिति बनती है। यह सही है' या 'वह सही है' इस प्रकार का विकल्प 'शंका' है। इसके पश्चात् प्रथम शतक के नौवें उद्देशक की वृत्ति में अभयदेवसूरि ने 'इसे स्वीकार करूं' या 'उसे स्वीकार करूं' इस प्रकार की अभि उवचिणाइ का संबन्ध प्रदेश-बन्ध अथवा 'निकाचना' से बतलाया लाषात्मक मनोदशा ‘कांक्षा' है। कांक्षा के साथ 'मोहनीय' शब्द का योग है। कांक्षा के द्वारा आचार्य मलयगिरि ने उपचित का अर्थ 'संक्रमण के द्वारा चेतना में एक प्रकार का मोह पैदा हो जाता है। इसलिए इसे मोहनीय उपचय करना' किया है।" कर्म कहा गया है। "चित' और 'उपचित' इन दोनों पदों की व्याख्याओं का वृत्तिकार ने कांक्षामोहनीय का अर्थ मिथ्यात्व मोहनीय किया तुलनात्मक अध्ययन करने पर पता चलता है कि सब व्याख्याकार है। किन्तु इसी शतक के १७० - सूत्र के सन्दर्भ में विमर्श करने इस विषय में एकमत नहीं हैं। 'चित' का 'अनुभाग-वृद्धि' अर्थ संगत पर प्रतीत होता है कि कांक्षामोहनीय का सम्बन्ध ज्ञानावरणीय कर्म लगता है। इस विषय में आचार्य मलयगिरि और अभयदेवसूरि दोनों से है, मोहनीय कर्म के अवान्तर भेद दर्शन-मोहनीय से नहीं है। सहमत हैं। 'उपचित' का अर्थ 'कर्म-पुद्गलों की निषेक-रचना' संगत प्रतीत होता है। अभयदेवसूरि ने मतान्तर के सन्दर्भ में जो गाथा द्रष्टव्य १११६६-१७२ का भाष्य। उद्धृत की है, वह कर्म-प्रकृति की है३. कृत मोतूण सगमबाहे, पढमाए ठिइए बहुतरं दव्वं । इसका अर्थ है कर्म रूप में बद्ध । एत्तो विसेसहीणं, जावुकोसं ति सब्वेसि ।।" ४. चित, उपचित निषेक-रचना का अर्थ 'बध्यमान कर्म-प्रकृतियों के अपने-अपने चित और उपचित का सामान्य अर्थ है-संचित होना और अबाधाकाल को छोड़कर कर्म-दलिकों और उनके स्थिति-काल में पुष्ट होना। कर्म-शास्त्र के प्रसंग में इनकी विशेष व्याख्या सामञ्जस्य स्थापित करना है। इससे फलित होता है कि 'उपचय' है-कर्म-पुद्गलों का जीव-प्रदेशों के साथ सम्बन्ध होते रहना, यह का सम्बन्ध 'स्थिति-बन्ध' के साथ है। चय-अवस्था है। अभयदेवसूरि के अनुसार प्रदेश और अनुभाग आदि यह आश्चर्य है कि प्रस्तुत आगम में उवचिणाइ धातु का प्रयोग की वृद्धि का नाम चय है। उन्होंने मतान्तर का उल्लेख किया है। सात-वेदनीय और असात-वेदनीय के साथ मिलता है। उसके अनुसार कर्म-पुद्गलों के ग्रहण-मात्र का नाम चय है। आचार्य १. भ.वृ.१1११६-जीवस्वाभाव्यात् सर्वस्वप्रदेशावगाढतदेकसमयबन्धनीय- ६. भ.वृ.१।१२८ उपचयस्तदेव पौनःपुन्येन | ___ कर्मपुद्गलबन्धने सर्वजीवप्रदेशानां व्यापार इत्यत उच्यते सर्वात्मना। १०. वही,१।१२८-उपचयनं तु चितस्यावाधाकालं मुक्त्वा वेदनार्थं निषेकः, स २. वही,१1११६-'सर्व' तदेककालकरणीयं कांक्षामोहनीयं कर्म। चैवम्-प्रथमस्थितौ बहुतरं कर्मदलिकं निषिञ्चति ततो द्वितीयायां विशेषहीनं ३. बही,१११५-मोहयतीति मोहनीयं कर्म तच्च चारित्रमोहनीयमपि भवतीति एवं यावदुत्कृष्टायां विशेषहीनं निषिञ्चति, उक्तं चविशिष्यते--कांक्षा-अन्यान्यदर्शनग्रहः, उपलक्षणत्वाचास्य शंकादिपरि- "मोत्तूण सगमवाह, पढमाइ ठिईए बहुतरं दव्वं । ग्रहः । ततः कांक्षाया मोहनीयं कांक्षामोहनीयं मिथ्यात्वमोहनीयमित्यर्थः । सेसं विशेषहीणं, जावुक्कोसंति सव्वासिं ॥" ४. वही,१११२५चयः-प्रदेशानुभागादेर्वर्धनम् । ११. वही, १/४३६-'किं उवचिणाइत्ति प्रदेशबन्धाऽपेक्षया निकाचनाऽपेक्षया ५. वही,१११२५-अन्ये त्याहुः-चयनं-कर्मपुद्रलोपादानमात्रम् । वेति। ६. प्रज्ञा.वृ.प.४५६-चितस्य उत्तरोत्तरस्थितिषु प्रदेशहान्या रसवृद्धया अवस्था- १२. प्रज्ञा.व.प.४५६-उपचितस्य समानजातीय-प्रकृत्यन्तरदलिक-संक्रमेणोपचयं पितस्य। नीतस्य। ७. भ.वृ.११४३६ किं चिणाइ'त्ति अनुभागबन्धाऽपेक्षया निधत्तावस्थाऽपेक्षया । १३. कर्मप्रकृति,८३। १४. भ.११४३६ - ४३६ ..पण्ण.२३/१३। वा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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