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भगवई
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श.१: उ.३: सू.११८-१२८
गोयमा !१. नो देसेणं देसं करिंसु २. नो देसेणं सबंकरिंसु ३. नो सवेणं देसंकरिंसु ४. सवेणं सबं करिंसु ॥
गौतम ! १. नो देशेन देशम् अकार्षुः २. नो गौतम ! उन्होंने १. देश के द्वारा देश नहीं किया। देशेन सर्वम् अकार्षुः ३. नो सर्वेण देशम् । २. देश के द्वारा सर्व नहीं किया। ३. सर्व के अकार्षुः ४. सर्वेण सर्वम् अकार्षुः । द्वारा देश नहीं किया। ४. सर्व के द्वारा सर्व
किया था।
१२५. एएणं अभिलावेणं दंडओ भाणियबो
जाव वेमाणियाणं॥
एतेन अभिलापेन दण्डकः भणितव्यः यावद् १२५. इस अभिलाप (पाठ-पद्धति) द्वारा वैमानिकों वैमानिकानाम् ।
तक सभी दण्डक वक्तव्य हैं।
१२६. एवं करेंति। एत्थ वि दंडओ जाव वेमाणियाणं॥
एवं कुर्वन्ति। अत्रापि दण्डकः यावद् १२६. इसी प्रकार (वर्तमान में जीव कांक्षामोहनीय वैमानिकानाम्।
कर्म) करते हैं । यहां भी वैमानिकों तक सभी दण्डक वक्तव्य हैं।
१२७. एवं करिस्संति । एत्य वि दंडओ जाव
वेभाणियाणं॥
एवं करिष्यन्ति । अत्रापि दण्डकः यावद् १२७. इसी प्रकार (भविष्य में जीव कांक्षामोहनीय वैमानिकानाम्।
कर्म) करेंगे। यहां भी वैमानिकों तक सभी दण्डक वक्तव्य हैं।
१२८. एवं चिए, चिणिंसु, चिणंति, चिणि-
स्संति । उवचिए, उवचिणिंसु, उवचिणंति, उवचिणिस्संति। उदीरेंसु, उदीरेंति, उदी- रिस्संति। वेदेंस, वेदेति, वेदिस्संति। निञ्जरेंसु, निजरेंति, निजरिस्संति।
एवं चितः, अचैषुः, चिन्वन्ति, चेष्यन्ति। १२८. इसी प्रकार चित है, चय किया था, चय उपचितः, उपाचैषुः, उपचिन्वन्ति, उप- करते हैं और चय करेंगे। उपचित्र है , उपचय चेष्यन्ति। उदैरिरन्, उदीरयन्ति, उदीर- किया था, उपचय करते हैं और उपचय करेंगे। यिष्यन्ति। अवेदयिषुः, वेदयन्ति, वेद- उदीरणा की थी, उदीरणा करते हैं और उदीरणा यिष्यन्ति । निरजारिषः, निर्जीयन्ति, निर्जरि- करेंगे। वेदन किया था, वेदन करते हैं और ष्यन्ति।
वेदन करेंगे। निर्जरण किया था, निर्जरण करते हैं और निर्जरण करेंगे।
संगहणी गाहा
संग्रहणी गाथा
कड-चिय-उवचियउदीरिया वेदिया य निजिण्णा। आदितिए चउभेदा, तिसभेदा पच्छिमा तिण्णि ॥१॥
कृत-चित-उपचितउदीरिता वेदिताः च निर्जीर्णाः। आदित्रिके चतुर्भेदाः, त्रिकभेदाः पश्चिमाः त्रयः॥
संग्रहणी गाथा
कृत, चित, उपचित, उदीरित, वेदित और निर्जीर्ण-ये छह प्रकार हैं। इनमें प्रथम तीन के चार-चार भेद हैं और शेष तीन के तीन-तीन भेद
भाष्य
१. सूत्र ११८-१२८
_प्रस्तुत आलापक में एक कर्मशास्त्रीय समस्या का समाधान किया गया है। जीव उन्हीं कर्म-पुद्गलों को ग्रहण करता है, जो उसके प्रदेशों (आत्म-प्रदेशों) में अवगाढ होते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि जिन आकाश-प्रदेशों पर आत्मा के प्रदेश व्याप्त होते हैं, उन्हीं आकाश-प्रदेशों पर रहे हुए कर्म-पुद्गल जीव द्वारा ग्रहण किए जाते हैं, किन्तु उन आकाश-प्रदेशों के अनन्तर और परम्पर प्रदेशों में अवगाढ कर्म-पुद्गलों का वह ग्रहण नहीं करता।
कर्म-ग्रहण की प्रक्रिया इस प्रकार है-कभी जीव एक-दो से लेकर अनेक आस-प्रदेशों पर अवगाढ कर्म-पुद्गलों को ग्रहण करता है और कभी सभी आत्म-प्रदेशों पर अवगाढ कर्म-पुद्गलों को ग्रहण करता है। ये दोनों प्रकार के पुद्गल जीव के सभी प्रदेशों द्वारा ग्रहण किए जाते हैं। कर्म-प्रकृति में इसी सव्वेणं (सर्वात्मना) के नियम का निरूपण मिलता है। प्रस्तुत आगम तथा पण्णवणा में आहार के विषय में यही नियम मिलता है। 'वृत्तिकार ने भी इस नियम को
१. कर्म प्रकृति,२१
एगमवि गहणदव्वं, सव्वप्पणयाए जीवदेसम्म । सव्वप्पणया सव्वत्थ वावि सब्वे गहणखन्थे ।
२. (क) भ.६।१८६। (ख) पण्ण.२८/२० आयसरीरखेत्तोगाढे पोग्गले सब्बप्पणयाए आहारमाहरेंति।
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