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भगवई
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श. १: उ. ३: सू. १४७ - १६८
अर्थ संगत नही है । वेदना कर्म की होती है, निर्जरा नोकर्म की होती है।' इसका तात्पर्य है कि जब तक कर्म कर्म रहता है, तब तक वह आत्म-प्रदेशों से पृथक् नहीं होता। वह नोकर्म बनकर ही उनसे पृथक होता है।
दो पदों का प्रयोग किया गया है। गर्हा अतीत कालीन कर्म की होती है। संवर वर्तमानकालीन कर्म का होता है। जयाचार्य के अनुसार उदीरणा और उपशमन के साथ इनकी अनिवार्यता नहीं हैं। ये बहुलता होते हैं, इसलिए इनका निर्देश किया गया है। ' वेदन और निर्जरा के साथ केवल गर्हा का प्रयोग किया गया है। वहां संवर संभव नहीं है।
'उदीरणा' और 'उपशमन' के साथ 'गर्हा' और 'संवर' इन
१६३. नेरइया णं भंते! कंखामोहणिज्जं कम्मं वेदेंति ?
जहा ओहिया जीवा तहा नेरइया जाव धणियकुमारा ॥
१६४. पुढविक्काइया णं भंते ! कंखामोहणिज्जं कम्मं वेदेति ?
हंता वेदेति ॥
१६५. कहण्णं भंते ! पुढविक्काइया कंखामोहणिज्जं कम्मं वेदेंति ?
गोयमा ! तेसि णं जीवाणं णो एवं तक्का इवा, सण्णा इवा, पण्णा इवा, मणे इ बा, वई ति वा — अम्हे णं कंखामोहणिज्जं कम्मं वेदेमो, वेदेति पुण ते ॥
१६६. से नूणं भंते ! तमेव सचं नीसंकं, जं जिणेहिं पवेइयं ?
हंता गोयमा ! तमेव सच्चं नीसंकं, जं जिहिं पवेइयं ।
सं तं चैव जाव अस्थि उट्ठाणेइ वा, कम्मेइ वा, बलेइ वा, वीरिएइ वा पुरिसक्कार- परक्कमेइ वा ॥
१६७. एवं जाव चउरिदिया ॥
१६८. पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जाव वेमाणिया जहा ओहिया जीवा ॥
१. भ.७।७५।
२. भ.जो. १।१२ । ४४ ।
नैरयिकाः भदन्त ! काङ्क्षामोहनीयं कर्म १६३. भन्ते ! क्या नैरयिक जीव कांक्षामोहनीय कर्म वेदयन्ति ? का वेदन करते हैं।
यथा औधिकाः जीवाः तथा नैरयिकाः यावत् स्तनितकुमाराः ।
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पृथ्वीकायिकाः भदन्त काङ्क्षामोहनीयं कर्म १६४ . ' भन्ते ! क्या पृथ्वीकायिक जीव कांक्षावेदयन्ति ? मोहनीय कर्म का वेदन करते हैं ? हां, वेदन करते हैं।
हन्त वेदयन्ति ।
कथं भदन्त ! पृथ्वीकायिकाः काङ्क्षामोहनीयं १६५. भन्ते ! पृथ्वीकायिक जीव कांक्षामोहनीय कर्म कर्म वेदयन्ति ? का वेदन कैसे करते हैं ?
गौतम ! तेषां जीवानां नो एवं तर्क इति वा, संज्ञा इति वा, प्रज्ञा इति वा, मन इति वा, वाग् इति वा वयं काङ्क्षामोहनीयं कर्म वेदयामः वेदयन्ति पुनः ते ।
जैसे समुच्चय में जीव की वक्तव्यता है, वैसे ही नैरयिक जीवों से स्तनितकुमार तक वक्तव्य हैं।
अथ नूनं भदन्त ! तदेव सत्यं निःशङ्कं यज् १६६. भन्ते ! क्या वही सत्य और निःशंक है, जो जिनैः प्रवेदितम् ? जिनों (अर्हतों) द्वारा प्रवेदित है ?
हन्त गौतम ! तदेव सत्यं निःशङ्कं यज् जिनैः प्रवेदितम् ।
हां, गौतम ! वही सत्य और निःशंक है, जो जिनों द्वारा प्रवेदित है।
शेषं तचैव यावद् अस्ति उत्थानम् इति वा, कर्म इति वा, बलम् इति वा वीर्यम् इति वा, पुरुषकार - पराक्रम इति वा ।
शेष आलापक – इससे उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार - पराक्रम का अस्तित्व सिद्ध होता है वहां तक वक्तव्य है ।
एवं यावच् चतुरिन्द्रियाः ।
भाष्य
गौतम ! उन जीवों के तर्क, संज्ञा, प्रज्ञा, मन और वचन नहीं होते। हम कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन करते हैं—– ऐसा उन्हें बोध नहीं होता, फिर भी वे वेदन करते हैं ।
पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः यावद् वैमानिकाः १६८. तिर्यक् पञ्चेन्द्रिय जीवों से वैमानिक देवों तक यथा औधिकाः जीवाः । का आलापक समुच्चय जीव की भांति वक्तव्य है ।
१. सूत्र १६४-१६८
पृथ्वी के जीवों की चेतना अविकसित होती है। उनमें बौद्धिक, मानसिक और वाचिक विकास नहीं होता। इस अवस्था में उनमें
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१६७. अप्काय आदि एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय का आलापक पृथ्वीकायिक जीवों की भांति वक्तव्य है।
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