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श.१: उ.३ः सू.१४७-१६२
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भगवई
उदीरणा
उदीरणा कर्म के आठ करणों में पांचवां करण है।' इसका अर्थ है अपक्व कर्म को समय से पूर्व पकाना। कर्म का उदय दो प्रकार का होता है-१.उदय २.उदीरणा-उदय। काल-परिपाक होने पर कर्म का जो सहज उदय होता है वह उदय है। प्रयल के द्वारा कर्म का जो अकाल-प्राप्त उदय होता है वह उदीरणा-उदय है। पञ्चसंग्रह में सहज उदय को 'संप्राप्ति उदय' और उदीरणा-उदय को 'असंप्राप्ति उदय' कहा गया है। तत्त्वार्थराजवार्तिक में अयथाकाल-विपाक को उदीरणा-उदय बताया गया है।
उदीर्ण
फल देने में परिणत कर्म-पुद्ग्ल का स्कन्ध उदीर्ण कहलाता है।' उदीर्ण की उदीरणा नहीं होती, यह स्पष्ट है। वृत्तिकार ने तर्क की भाषा में लिखा है यदि उदीर्ण की उदीरणा की जाए, तो उदीरणा का कहीं अंत ही नहीं होगा।' अनुदीर्ण
कर्म-पुद्गल का जो स्कन्ध अभी फल देने में परिणत नहीं है, वह अनुदीर्ण कहलाता है ।
वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किये हैं-१. चिर भविष्य में जिसकी उदीरणा होने वाली है। २. भविष्य में जिसकी उदीरणा नहीं होने वाली है।
चिर भविष्य में की जाने वाली उदीरणा वर्तमान काल में नहीं हो सकती। जो कर्म उदीरणा के योग्य नहीं होता, उसकी उदीरणा भविष्य में भी नहीं हो सकती। उदीरणा के अयोग्य तीन अवस्थाएं होती हैं-उपशम, निधत्ति और निकाचना।' अनुदीर्ण उदीरणाभव्य कर्म
प्रस्तुत प्रकरण में 'उदीरणा-भव्य' (उदीरणायोग्य) कर्म का प्रसंग है। प्रत्येक कर्म की उदीरणा नहीं होती, किन्तु उसी कर्म की उदीरणा होती है, जो उदीरणा-योग्य बन जाता है। योग्यता की
कसौटी उसके भेद द्वारा निर्धारित है। उसके चार भेद होते हैं
१. प्रकृति-उदीरणा, २. स्थिति-उदीरणा, ३. अनुभाग-उदीरणा, ४.प्रदेश-उदीरणा।" प्रकृति-उदीरणा की योग्यता
पण्णवणा के अनुसार कर्म की १४८ प्रकृतियां हैं।' कर्म-ग्रन्य में १५८ कर्म प्रकृतियों का भी उल्लेख मिलता है। दिगम्बर साहित्य में भी १४८ प्रकृतियां विवक्षित हैं। पञ्चसंग्रह के अनुसार ११० प्रकृतियां उदीरणा के योग्य होती हैं। दिगम्बर परम्परा के अनुसार १२२ प्रकृतियां उदीरणा के योग्य होती हैं।" स्थिति-उदीरणा की योग्यता
स्थिति-उदीरणा के दो भेद निर्दिष्ट हैं-उदीरणा-प्रायोग्य और उदीरणा-अप्रायोग्य। बन्धावलिका, संक्रमावलिका और उदयावलिका
-ये तीनों स्थितियां उदीरणा के अप्रायोग्य होती हैं। शेष सारी प्रायोग्य होती हैं।
अनुभाग और प्रदेश-उदीरणा के जघन्य, उत्कृष्ट आदि भेदों की जानकारी के लिए पञ्चसंग्रह द्रष्टव्य है। उदयानन्तर-पश्चात्कृत (भुक्त)कर्म
उदय के अनन्तर समय में कर्म का वेदन होता है। वेदन के पश्चात् वह अकर्म बन जाता है। इसलिए उसे उदय के अनन्तर पश्चात्कृत---अतीत अवस्था को प्राप्त कर्म कहा गया है।"
उक्त चार विकल्पों में उदीरणा के लिए तीसरा विकल्प सम्मत है। उपशमन में दूसरा विकल्प सम्मत है। उपशम-अवस्था में उदीर्ण कर्म का क्षय और अनुदीर्ण कर्म के विपाकोदय और प्रदेशोदय का सर्वथा स्थगन हो जाता है। इसलिए उपशमन अनुदीर्ण कर्म का ही होता है।" वेदना में प्रथम विकल्प सम्मत है। निर्जरा में चतुर्थ विकल्प सम्मत है। गौतम ने पूछा-भंते ! जो वेदना है वह निर्जरा है? जो निर्जरा है वह वेदना है ? भगवान ने कहा-गौतम ! यह
१. कर्म प्रकृति,गा.२
बंधणसंकमणुव्वट्टणा य अववट्टणा उदीरणया।
उवसामणा निहत्ती निकायणा चत्ति करणाई॥ २. पं.सं.(श्वे.)गा.२५३
संपत्तिए य उदये पओगओ दिस्सए उईरणा सा ।
सेचिका ठिईहिं जाही दुविहा मूलोत्तराए य॥ ३. त.रा.वा.६।३६,पृ.६३१-अयथाकाल-विपाक उदीरणोदयः। ४. प.खं.धवला,पु.१३,खं.४,मा.२,सू.२.१.३०३-फलदातृत्वेन परिणतः कर्म
पुद्गलस्कन्धः उदीर्णः। ५. भ.वृ.१।१४-उदीर्णस्याप्युदीरणे उदीरणाऽविरामप्रसंगात्। ६. कर्म प्रकृति,गा.२ की टीका, पृ.४८,४६/ ७.(क)पं.सं.(श्वे.)गा.२२५
जं करणे णो कट्टिय, उदए दिज्जइ उदीरणा एसा ।
पगइटिइअणुमागप्पएसमूलुत्तरविभागा॥ (ख) ष.खं.धवला,पु.१५,पृ.४३–उदीरणा चउबिहा पयडीहिदीअणुभागपदेसउदीरणा चेदि।
८. पण्ण.२३।२४-५६। ६. पं.सं.(श्वे.)गा.२२६
मूलप्पगईसु पंचण्हं, तिहा दोण्हं चउबिहा होइ ।
आउस्ससाइ अधुवा, दसुत्तरसय उत्तरासिपि ॥ उत्तरासामपि-उत्तरप्रकृतीनामपि। दशोत्तरशतसंख्यानां पञ्चविधज्ञानावरण-दर्शनावरण-चतुष्टय-मिथ्यात्व-तैजस-सप्तक-वर्णादिविंशति-स्थिरास्थिर-शुभाशुभ-गुरुलघु-निर्माणान्तरायपञ्चकरूपाष्टचत्वारिंशद्-वर्जानां सर्वशेषप्रकृतीनामित्यर्थः। १०.पं.सं.(दि.)३।४४-४८/ ११. भ.वृ.१।१४८-उदयेनान्तरसमये पश्चात्कृतम् –अतीततां नीतं यत्तत्तथा
तदपि नोदीरयति, तस्यातीतत्वाद् अतीतस्य चासत्त्वाद् असतश्चानुदीरणीयत्वादिति। १२. वही,
११५१-उपशमश्चोदीर्णस्य क्षयः अनुदीर्णस्य च विपाकतः प्रदेशतश्चानुभवन, सर्वथैव विष्कम्भितोदयत्वमित्यर्थः। अयं चानादिमिथ्याद्रष्टेरोपशमिकसम्यक्त्वलाभे उपशमश्रेणिगतस्य चेति।
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