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________________ भगवई १५८. एवं सति अत्थि उड्डाणे वा, कम्मेइ वा, बलेइ बा, वीरिएइ वा, पुरिसक्कारपरक्कमेइ वा ॥ १५६. से नूणं भंते ! अप्पणा चैव निजरेति ? अप्पणा चैव गरहति ? हंता गोयमा ! अप्पणा चैव निज्जरेति । अप्पणा चैव गरहति ॥ १६०. जं णं भंते ! अप्पणा चेव निज्जरेति, अप्पणा चैव गरहति, तं किं १. उदिण्णं निज्जरेति ? २. अणुदिण्णं निज्जरेति ? ३. अणुदिण्णं उदीरणाभवियं कम्पं निजरेत ? ४. उदयानंतरपच्छाकडं कम्मं निजरेति ? गोयमा ! १. नो उदिण्णं निजरेति । २. नो अणुदिण्णं निजरेति । ३. नो अणुदिण्णं उदीरणाभवियं कम्मं निजरेति । ४. उदयातरपच्छाकडं कम्मं निज्जरेति ॥ १६१. जं णं भंते ! उदयानंतरपच्छाकडं कम्मं निज्जरेति, तं किं उट्ठाणेणं, कम्मेणं, बलेणं, वीरिएणं, पुरिसक्कार-परक्कमेणं उदयाणंतरपच्छाकडं कम्मं निजरेति ? उदाहु अणुट्ठाणेणं, अकम्मेणं, अबलेणं, अवीरिएणं अपुरिसक्कारपरक्कमेणं उदयानंतरपच्छाकडं कम्मं निजरेति ? गोयमा ! तं उट्ठाणेण वि, कम्मेण वि, बलेण वि, वीरिएण वि, पुरिसक्कार-परकमेण वि उदयाणंतरपच्छाकडं कम्मं निज्जति । णो तं अणुट्ठाणेणं, अकम्मेणं, अबलेणं, अवीरिएणं, अपुरिसक्कारपरक्कमेणं उदयाणंतरपच्छाकडं कम्मं निखरेति ॥ १६२. एवं सति अत्थि उट्ठाणेइ वा कम्मे वा, बलेइ वा, वीरिएड वा, पुरिसक्कार- परक्कमेइ वा ॥ ८५ एवं सति अस्ति उत्थानम् इति वा, कर्म वा, बलम् इति वा, वीर्यम् इति वा, पुरुषकार- पराक्रम इति वा । Jain Education International अथ नूनं भदन्त ! आत्मना चैव निर्जरयति ? आत्मना चैव गर्हते ? हन्त गौतम ! आत्मना चैव निर्जरयति । आत्मना चैव गर्हते । यद् भदन्त ! आत्मना चैव निर्जरयति, आत्मना चैव गर्हते, तत् किं १. उदीर्णं निर्जरयति ? २. अनुदीर्णं निर्जरयति ? ३. अनुदीर्णम् उदीरणाभविकं कर्म निर्जरयति ? ४. उदयानन्तरपश्चात्कृतं कर्म निर्जरयति ? गौतम ! १. नो उदीर्णं निर्जरयति । २. नो अनुदीर्णं निर्जरयति । ३. नो अनुदीर्णम् उदीरणाभविकं कर्म निर्जरयति ? ४. उदयानन्तरपश्चात्कृतं कर्म निर्जरयति । यद् भदन्त ! उदयानन्तरपश्चात्कृतं कर्म निर्जरयति, तत् किं उत्थानेन, कर्मणा, बलेन, वीर्येण, पुरुषकार-पराक्रमेण उदयानन्तरपश्चात्कृतं कर्म निर्जरयति ? अथवा तद् अनुत्थानेन, अकर्मणा, अबलेन, अवीर्येण, अपुरुषकारपराक्रमेण उदयानन्तरपश्चात्कृतं कर्म निर्जरयति ? गौतम ! तद् उत्थानेन अपि कर्मणा अपि, बलेन अपि वीर्येण अपि पुरुषकार- पराक्रमेण अपि उदयानन्तरपश्चात्कृतं कर्म निर्जरयति । नो तद् अनुत्थानेन, अकर्मणा, अबलेन, अवीर्येण, अपुरुषकारपराक्रमेण उदयानन्तरपश्चात्कृतं कर्म निर्जरयति । एवं सति अस्ति उत्थानम् इति वा, कर्म इति वा, बलम् इति वा वीर्यम् इति वा, पुरुषकार- पराक्रम इति वा । भाष्य श. १: उ.३: सू. १४७-१६२ ऐसा होने पर उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार - पराक्रम का अस्तित्व सिद्ध होता है। For Private & Personal Use Only १५६. भन्ते ! क्या जीव अपने आप ही निर्जरा करता है ? अपने आप ही गर्हा करता है ? हां, गौतम ! जीव अपने आप ही निर्जरा करता है, अपने आप ही गर्हा करता है। १६०. भन्ते ! जीव अपने आप ही जो निर्जरा करता है, अपने आप ही जो गर्हा करता है, वह क्या १. उदीर्ण की निर्जरा करता है ? २. अनुदीर्ण की निर्जरा करता है ? ३. अनुदीर्ण किन्तु उदीरणायोग्य कर्म की निर्जरा करता है ? ४. अथवा उदय के अनन्तर पश्चात्कृत (भुक्त) कर्म की निर्जरा करता है ? गौतम ! १. जीव उदीर्ण की निर्जरा नहीं करता । २. अनुदीर्ण की निर्जरा नहीं करता। ३. अनुदीर्ण किन्तु उदीरणायोग्य कर्म की निर्जरा नहीं करता । ४. उदय के अनन्तर पश्चात्कृत कर्म की निर्जरा करता है। १६१. भन्ते ! जीव उदय के अनन्तर पश्चात्कृत कर्म की जो निर्जरा करता है, वह क्या उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, और पुरुषकार- पराक्रम से करता है अथवा अनुत्थान, अकर्म, अवल, अवीर्य और अपुरुपकारपराक्रम से करता है ? गौतम ! जीव उदय के अनन्तर पश्चात्कृत कर्म की जो निर्जरा करता है, वह उत्थान से भी, कर्म सेभी, बल से भी, वीर्य से भी और पुरुषकार- पराक्रम से भी करता है, किन्तु अनुत्थान, अकर्म, अबल, अवीर्य और अपुरुषकारपराक्रम से नहीं करता । १. सूत्र १४७ १६२ इन सभी सूत्रों में आत्मकर्तृत्व या पुरुषार्थवाद के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है। उदीरणा, गर्हा, संवर, उपशामना, वेदना और निर्जरा—ये सब जीव के द्वारा अपने उत्थान आदि से कृत होते हैं। १६२. ऐसा होने पर उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार - पराक्रम का अस्तित्व सिद्ध होता है। www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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