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श.१: उ.३: सू.१६४-१७१
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भगवई
कांक्षामोहनीय का वेदन कैसे संभव हो सकता है ? यह प्रश्न स्वा- भाविक है। सूत्रकार ने स्वयं इस प्रश्न को उपस्थित किया है। इसके समाधान में उन्होंने लिखा है-पृथ्वीकाय के जीवों में बौद्धिक, मानसिक और वाचिक विकास नहीं होता। वे नहीं जानते कि हम कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन कर रहे हैं, फिर भी उसका वेदन करते हैं। इस समाधान से यह फलित होता है कि वेदन के दो प्रकार हैं व्यक्त और अव्यक्त। अविकसित जीवों में कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन अव्यक्त होता है। वह इन्द्रिय-गम्य नहीं है। इसलिए इस सन्दर्भ में तमेव सचं णीसंकं यह साक्ष्य उद्धृत किया गया है। २. तर्क
वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'विमर्श किया है। स्थानांग वृत्ति में अभयदेवसरि ने विस्तार से इसका अर्थ किया है। इन्द्रिय-प्रत्यक्ष ज्ञान के क्रम में चार मुख्य तत्त्व हैं-अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा। इस क्रम में ईहा के पश्चात् और अवाय के पूर्व एक प्रकार का विशेष विमर्श होता है, जैसे—'जो दिखाई दे रहा है वह सिर खुजला रहा है। इसलिए वह खम्भा नहीं है, वह पुरुष की चेष्टा है।' इस प्रकार का विमर्श तर्क कहलाता है।'
३. संज्ञा
इसके अनेक अर्थ होते हैं-ज्ञान, प्रत्यभिज्ञा, विवेक, संवेदन आदि आदि। यहां 'संज्ञा' का अर्थ प्रत्यभिज्ञा किया जा सकता है। नन्दी में आमिनिबोधिक ज्ञान के अनेक प्रकार बतलाए गए हैं। उनमें एक प्रकार संज्ञा है।' मलयगिरि ने संज्ञा का अर्थ व्यञ्जनावग्रह के उत्तर काल में होने वाला एक प्रकार का मतिज्ञान किया है।' अभयदेवसूरि ने इसका यही अर्थ किया है।' उमास्वाति ने मति, स्मृति, संज्ञा, चिंता और अभिनिबोध-इनको एकार्थक माना है।' प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार में परोक्ष के पांच प्रकार बतलाए गए हैं। उनमें स्मृति के बाद प्रत्यभिज्ञा का उल्लेख है। सिद्धसेन गणी ने संज्ञा का अर्थ प्रत्यभिज्ञा (यह वही है, जिसे मैंने पूर्वाह्न में देखा था) किया है। इस आधार पर संज्ञा की प्रत्यभिज्ञा से तुलना की जा सकती है। ४. प्रज्ञा
वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'संपूर्ण विषयों का ज्ञान' किया है। यह एक विशिष्ट ज्ञान है। इसे प्रातिभ ज्ञान अथवा औत्पत्तिकी बुद्धि भी कहा जा सकता है।
१६६. अत्थि णं भंते ! समणा वि निग्गंथा कंखामोहणिजं कम्मं वेएंति ? हंता अत्थि॥
अस्ति भदन्त ! श्रमणाः अपि निर्ग्रन्थाः १६६. भन्ते ! क्या श्रमण निर्ग्रन्थ भी कांक्षामोहनीय काङ्क्षामोहनीयं कर्म वेदयन्ति ?
कर्म का वेदन करते हैं ? हन्त अस्ति।
हां, करते हैं।
१७०. कहण्णं भंते ! समणा निग्गंथा कंखामोहणिजं कम्मं वेदेति ?
कथं भदन्त ! श्रमणाः निर्ग्रन्थाः काङ्क्षा- १७०. भन्ते ! श्रमण निर्ग्रन्थ कांक्षामोहनीय कर्म का मोहनीयं कर्म वेदयन्ति ?
वेदन कैसे करते हैं ?
गोयमा! तेहिं तेहिं नाणंतरेहि, सणंतरेहि, गौतम ! तैः तैः ज्ञानान्तरैः, दर्शनान्तरः, चरि- गौतम ! उन-उन ज्ञानान्तर, दर्शनान्तर, चरित्राचरितंतरेहि, लिंगंतरेहि, पवयणंतरेहि, त्रान्तरैः, लिङ्गान्तरैः, प्रवचनान्तरैः, प्रवच- तर, लिंगांतर, प्रवचनान्तर, प्रवचनी-अन्तर, पावयणंतरेहि, कप्पंतरेहि, मम्गंतरेहि, मतं- न्यन्तरैः, कल्पान्तरः, मार्गान्तरैः, मतान्तरैः, कल्पान्तर, मार्गान्तर, मतान्तर, भंगान्तर, नयातरेहि, मंगतरेहि, णयंतरेहि, नियमंतरेहि, भङ्गान्तरैः, नयान्तरः, नियमान्तरैः, प्रमाणा- न्तर, नियमान्तर और प्रमाणान्तर से वे शंकित, पमाणंतरेहिं संकिता कंखिता विति- तरैः शङ्किताः काक्षिताः विचिकित्सिताः । कांक्षित, विचिकित्सित, भेद-समापन्न और कलुषकिच्छिता भेदसमावन्ना कलुससमावना- भेदसमापत्राः कलुषसमापत्राःएवं खलु -समापन्न हो जाते हैं। इस प्रकार श्रमण निर्ग्रन्थ एवं खलु समणा निग्गंथा कंखामोहणिजं श्रमणाः निर्ग्रन्थाः काडूक्षामोहनीय कर्म वेद- कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन करते हैं। कम्मं वेदेति ॥
यन्ति।
१७१. से नणं भंते ! तमेव सचं नीसंकं, जं अथ नूनं भदन्त ! तदेव सत्यं निशङ्ख, यज् १७१. भन्ते ! क्या वही सत्य और निःशंक है, जो जिणेहिं पवेदितं? जिनैः प्रवेदितम् ?
जिनों द्वारा प्रवेदित है ? हंता गोयमा ! तमेव सचं नीसंकं, जं हन्त गौतम ! तदेव सत्यं निशङ्ख, यज् जिनैः हां, गौतम ! वही सत्य और निःशंक है, जो जिनों जिणेहिं पवेदितं ॥ प्रवेदितम् ।
द्वारा प्रवेदित है। १. (क) स्था.वृ.प.१६-तर्कणं तर्को-विमर्शः अवायात् पूर्वा ईहाया उत्तरा ६.प्र.न.त.३।२-स्मरणप्रत्यभिज्ञानतर्कानुमानागमभेदात् तत्तु पञ्चप्रकारम् । प्रायः शिरः कण्डूयनादयः पुरुषधर्मा इह घटन्त इति सम्प्रत्ययरूपा।
७. त.सू.भा.वृ.१1१३ संज्ञा ज्ञानं नाम यत्तैरेवेन्द्रियैरनुभूतमर्थं प्राक् पुन(ख) म.वृ.१।१६५ तर्को विमर्शः।
विलोक्य स एवाऽयं यमहमद्राक्षम् पूर्वाह्न इति संज्ञा ज्ञानमेतत् । २. नंदी,सू.५४,गा.६।
८. भ.वृ.१1१६५ प्रज्ञा-अशेषविशेषविषयं ज्ञानमेवम् । ३. नंदी,वृ.प.१८७।
६. नंदी,सू.३८,गा.२४. भ.बृ.१।१६५-संज्ञा अर्थावग्रहरूपं ज्ञानम् ।
पुवमदिट्ठमसुयमवेइय-तक्खण विसुद्धगहियत्था । ५. त.सू.१।१३ मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनन्तरम् ।
अव्वाहय-फलजोगा, बुद्धि उप्पत्तिया नाम ।।
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