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________________ भगवई १७२. एवं जाव अत्थि उट्ठाणेइ वा, कम्मेइ वा, बलेइ बा, वीरिएइ वा, पुरिसक्कार- परक्कमेइ वा ॥ १. सूत्र १६६-१७२ प्रस्तुत आलापक में निर्ग्रन्थ शब्द व्यवच्छेदक है। 'श्रमण' शब्द जैन, आजीवक और बौद्ध आदि सभी श्रमणों का वाचक है। श्रमण के साथ निर्ग्रन्थ शब्द का प्रयोग जैन श्रमणों का वाचक हो जाता है। श्रमण-निर्ग्रन्थ अर्थात् महावीर के मुनि । जैन मुनि भी कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन करते हैं। वेदन के पांच कारण बतलाए गए हैं— शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, भेद और कलुष । एक ही विषय में अनेक निरूपण, वितर्क और विकल्प सामने आते हैं, तब कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन शुरू हो जाता है। τε एवं यावद् अस्ति उत्थानम् इति वा, कर्म इति वा, बलम् इति वा वीर्यम् इति वा, पुरुषकार- पराक्रम इति वा । जयाचार्य ने कांक्षामोहनीय कर्म के वेदन का अर्थ मिथ्यात्व - -मोहनीय का वेदन किया है। उनका तर्क है— जिस समय कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन होता है, तब मिथ्यात्व आ जाता है।' यह अर्थ वृत्तिकार द्वारा सम्मत मिथ्यात्व - मोहनीय के आधार पर किया गया है। जयाचार्य ने १४ वें शतक की जोड़ में मिथ्यात्व का अर्थ दस बोलों (संज्ञा') में से किसी एक बोल में विपरीत श्रद्धा करना किया है। प्रस्तुत तेरह 'अंतरों' में तत्त्व श्रद्धा का प्रश्न नहीं है । यह विभिन्न विचारों के प्रति होने वाली आकांक्षा है। आचार्य भिक्षु के अनुसार तीर्थंकर द्वारा प्रतिपादित तत्त्वों मे विपरीत श्रद्धा करने से मिथ्यात्व आ जाता है, किंतु अन्य विषयों में विपरीत श्रद्धा करने से असत्य का दोष लगता है, पर सम्यक्त्व का नाश नहीं होता "साची सरघा भाषी जगनाय, ते ऊंघो सरध्यां आवै मिष्यात । और उंघो सरपणी आवे, तो झूठ लागे पिण सरघा न जावे ॥ " V भाष्य आचार्य भिक्षु ने 'ज्ञान- मोह' शब्द की मीमांसा में लिखा है— ज्ञानमोह से ज्ञान में व्यामोह उत्पन्न होता है, वह ज्ञानावरणीय कर्म का उदय है, वह निश्चित ही मोहनीय कर्म का उदय नहीं है— " नाण मोह चाल्यो सूतर मझे, ते ज्ञान में उपजे व्यामोह । ते ज्ञानावरणी रा उदा बकी, ते मोह निश्चै नहीं होय ॥ १. भ.जो. १ । १३ । १२० का वार्त्तिक । २. ठाणं १०१७४ | ३. , भ.जो. ढाल २६२, गाथा ३ मोहनीं उन्माद ना, वे भेद इक मिथ्यात्व ही । तसुं उदय थी सर ज ऊंघी, दस बोलां मैं एक ही ॥ ४. इन्द्रियवादी चौपाई, ढा. ७, गा. ६ । Jain Education International ५. वही, ढा. १०, गा. ३३ । ६. क. पा. प्रथम अधिकार, गा. १, पृ. १२६ – संसयविवज्जासाणज्झवसायभावगय श. १: उ. ३: सू. १६६-१७२ १७२. इस प्रकार यावत् उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार - पराक्रम का अस्तित्व सिद्ध होता है । इस आधार पर कांक्षामोहनीय का सम्बन्ध भी ज्ञानमोह की भांति ज्ञानावरण से माना जा सकता है। कसायपाहुड में बतलाया गया है कि गणधर के संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय होने पर उनके संशय को दूर करना दिव्यध्वनि का स्वभाव है। आनन्द श्रमणोपासक के अवधिज्ञान के विषय में गौतम गणधर को शंका, कांक्षा और विचिकित्सा उत्पन्न हुई थी। आनन्द ने कहा --- "भंते ! यथार्थ भाव के लिए जिनप्रवचन में आलोचना नहीं की जाती, वह अयथार्थ भाव के लिए की जाती है। मैं जो यह कह रहा हूं, वह यथार्थ है । आपने जो कहा, वह यथार्थ नहीं है; इसलिए आप ही आलोचना करें ।" आनन्द द्वारा ऐसा कहने पर गौतम गणधर शंका, कांक्षा और विचिकित्सा से समापन्न हो गए। तायस्त्रिँश देवों के विषय में भी गौतम शंकित, कांक्षित और विचिकित्सित हुए । ' इन दोनों सन्दर्भों से यह स्पष्ट फलित होता है। कि शंका, कांक्षा और विचिकित्सा का संबन्ध ज्ञानावरण के उदय से भी है । उत्तरज्झयणाणि में ब्रह्मचर्य - गुप्ति के प्रसंग में शंका, कांक्षा, विचिकित्सा और भेद-इन चारों का उल्लेख मिलता है। " १० सम्यक्त्व के पांच अतिचार हैं। उनमें प्रथम तीन हैं - शंका, कांक्षा और विचिकित्सा ।" इनका सम्बन्ध दर्शनमोह से है। निष्कर्ष की भाषा में कहा जा सकता है कि जहां शंका, कांक्षा और विचिकित्सा मूल तत्त्व से सम्बद्ध होते हैं, वहां दर्शनमोह का वेदन होता है और जहां वे अन्य विषयों से सम्बद्ध होते हैं, वहां ज्ञानमोह का वेदन होता है। तेरह अंतरों के प्रसंग में कांक्षामोहनीय कर्म के वेदन का सम्बन्ध ज्ञानमोह से प्रतीत होता है। प्रस्तुत आलापक में ज्ञानमोह - विषयक तेरह अन्तरों का उल्लेख किया गया है। यह एक ऐतिहासिक प्रकरण है। इससे जैन शासन में प्रचलित अनेक मतों, विचारभेदों की जानकारी मिलती है। जैन धर्म ग्रन्थ-प्रधान नहीं, पुरुष-प्रधान रहा है। इसमें अनेक गणहरदेवं पडि वट्टमाणसहावा । ७. उवा. १७६८० ८. भ. १०१४६ । ६. उत्तर. १६ । ३ – बंभयारिस्स बंभचेरे संका वा, कंखा वा, वितिगिच्छा वा समुपाि भेयं वा लभेजा । १०. उवा. १ । ३१ – सम्मत्तस्स पंच अतियारा पेयाला जाणियव्वा, न समायरिब्वा, तं जहा -- १. संका २. कंखा ३. वितिगिच्छा..... । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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