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________________ श.१: उ.३: सू.१६६-१७२ ६० भगवई पुरुषों का प्रामाण्य स्वीकार किया गया है। प्रामाण्य की पांच श्रेणियां बतलाई गई हैं केवलज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चतुर्दश इन्द्रिय-प्रत्यक्ष नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष पूर्वधर और दशपूर्वधर।' इन श्रेणियों से भिन्न विशिष्ट आचार्य भी श्रोत्रेन्द्रिय-प्रत्यक्ष अवधि सापेक्ष दृष्टि से अनेक तत्त्वों का प्रतिपादन करते हैं। ये सापेक्ष चक्षुरिन्द्रिय-प्रत्यक्ष मनःपर्यव प्रतिपादन एक सामान्य मुनि के लिए कांक्षामोहनीय-वेदन के हेतु बन जाते हैं। भगवान् महावीर के निर्वाण की दसवीं शताब्दी तक जैन घ्राणेन्द्रिय-प्रत्यक्ष केवल शासन में जो मत-मतान्तर स्थापित हुए, उन सबका लेखा-जोखा रसनेन्द्रिय-प्रत्यक्ष प्रस्तुत आलापक में विद्यमान है। एक हजार वर्ष तक की पूरी स्पर्शनेन्द्रिय-प्रत्यक्ष परम्परा का विशद अध्ययन करने पर पूरा एक ग्रन्थ बन जाता है। यहां हम इस विषय पर संक्षेप में विचार करेंगे: भगवती में प्रत्यक्ष और परोक्ष का विभाग नहीं है। ठाणं में ज्ञानान्तर प्रत्यक्ष के अन्तर्गत इन्द्रिय-प्रत्यक्ष का विभाग नहीं हैं। वह केवल ज्ञान के विषय में अनेक भूमिकाएं उपलब्ध थीं। प्रथम भमिका नंदी में ही प्राप्त है। इस प्रकार आगम-साहित्य में ज्ञान के तीन वर्गी करण उपलब्ध हैं। सिद्धसेन दिवाकर ज्ञान के तीन प्रकारों को ही पांच ज्ञान की है। रायपसेणइयं में वह उपलब्ध है। प्रस्तुत आगम मान्य करते हैं। उनके अनुसार श्रुतज्ञान मतिज्ञान से भिन्न नहीं है में ज्ञान के पांच प्रकार प्रज्ञप्त हैं-१. आभिनिबोधिकज्ञान २. श्रुतज्ञान ३. अवधिज्ञान ४. मनःपर्यवज्ञान ५. केवलज्ञान। और मनःपर्यवज्ञान अवधिज्ञान से भिन्न नहीं है। इस प्रकार देवर्धिगणी के समय तक ज्ञान की पृथक्-पृथक भूमिकाएं बन गई थीं। इसीविवरण के लिए रायपसेणइयं देखने का निर्देश है।' ज्ञान। लिए ज्ञानान्तर को कांक्षामोहनीय के वेदन का एक हेतु माना गया। की दूसरी भूमिका दो ज्ञान की है। वह ठाणं में उपलब्ध है। उसमें ज्ञान के दो भेद किए गए हैं—प्रत्यक्ष और परोक्ष। अवधि, मनःपर्यव वृत्तिकार ने अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान के उदाहरण के और केवलज्ञान को प्रत्यक्ष के अवान्तर भेद के रूप में प्रतिपादन द्वारा इस विषय की चर्चा की है।' है। आभिनिबोधिक और श्रुतज्ञान परोक्ष के अवान्तर भेद बतलाए। दर्शनान्तर गरा है। भगवती में आभिनिबोधिकज्ञान के चार भेद प्रज्ञप्त हैं। ठाणं दर्शन के चार प्रकार हैं-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन में आभिनिबोधिकज्ञान के दो भेद प्रज्ञप्त हैं-श्रुतनिश्रित और अश्रुत- और केवलदर्शन। इस विषय में एक मत यह रहा है कि दर्शन के निश्रित | इनके दो अवान्तर भेद प्रतिपादित हैं—व्यञ्जनावग्र ह और तीन प्रकार ही पर्याप्त हैं। चक्षदर्शन और अचक्षुदर्शन-इन दोनों में अर्थावग्रह ।' यहां ईहा, अवाय और धारणा का उल्लेख नहीं है। भेदरेखा खींचने का कोई स्पष्ट आधार नहीं मिलता । यह चिन्तन-भेद तीसरी भूमिका नंदी में उपलब्ध है। उसमें ज्ञान के पांच प्रकारों का कांक्षामोहनीय के वेदन का हेतु बना है। वृत्तिकार ने चक्षुदर्शन और निर्देश कर फिर उनका प्रत्यक्ष और परोक्ष इन दो भागों में समाहार अचक्षुदर्शन की चर्चा के साथ क्षायोपशमिक और औपशमिक दर्शन किया गया है। प्रत्यक्ष के दो प्रकार निर्दिष्ट है.' की चर्चा भी की है। १. प्रश्नोत्तर तत्त्वबोध,१६।१२। इस विषय में कुछ आचार्यों का मतभेद है। इसकी विस्तृत चर्चा के लिए देखें, दशवैकालिकः एक समीक्षात्मक अध्ययन, पृ.४,५॥ २. राय.सू.७४०-७४५/ ३.भ.८७६ ४. ठाणं,२।१०१-१०३। ५. नंदी,सू.२-६। ६. द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका,१६/१२– वैयर्थ्यातिप्रसङ्गाभ्यां, न मत्यभ्यधिकं श्रुतम् । ७. ज्ञान. प्र.५५। ८. भ.वृ.१।१७-यदि नाम परमाण्वादिसकलरूपिद्रव्यावसानविषयग्राहकत्वेन संख्यातीतरूपाण्यवधिज्ञानानि सन्ति तत्किमपरेण मनःपर्यायज्ञानेन ? तद्विषय- भूतानां मनोद्रव्याणामवधिनैव दृष्टत्वात्, उच्यते चागमे मनःपर्यायज्ञानमिति। ६. वही,१।१०-दर्शनम् - सामान्यबोधः, तत्र यदि नामेन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तः सामान्यार्थविषयो बोधो दर्शनं तदा किमेकश्चक्षुर्दर्शनमन्यस्त्वचक्षुर्दर्शनम् ? अथेन्द्रियानिन्द्रियभेदाद् भेदस्तदा चक्षुष इव श्रोत्रादीनामपि दर्शनभावात् । षडिन्द्रियनोइन्द्रियजानि दर्शनानि स्यु न द्वे एवेति । अत्र समाधिः-- सामान्यविशेषात्मकत्वाद्वस्तुनः क्वचिद्विशेषतस्तन्निर्देशः क्वचिञ्च सामान्यतः । तत्र चक्षुदर्शनमिति विशेषतः अचक्षुर्दर्शनमिति च सामान्यतः । यच्च प्रकारान्तरेणापि निर्देशस्य सम्भवे चक्षुर्दर्शनमचक्षुर्दर्शनं चेत्युक्तं तदिन्द्रियाणामप्राप्तकारित्वप्राप्तकारित्वविभागात् । मनसस्त्वप्राप्तकारित्वेऽपि प्राप्तकारीन्द्रियवर्गस्य तदनुसरणीयस्य बहुत्वात्तद्दर्शनस्याचक्षुर्दर्शनशब्देन ग्रहणमिति । अथवा दर्शनम् सम्यक्त्वं, तत्र च शंका "मिच्छत्तं जमुदिन्नं तं खीणं अणुदियं च उवसंतं।" इत्येवं लक्षणं क्षायोपशमिकम् । औपशमिकमप्येवं लक्षणमेव यदाह--- "खीणम्मि उदिन्नम्मी अणुदिजंते य सेसमिच्छत्ते। अंतोमुहुत्तमेतं उवसमसम्म लहइ जीवो।" ततोऽनयो न विशेषः उक्तश्चासाविति, समाधिश्च-क्षयोपशमो हि उदीर्णस्य क्षयोऽनुदीर्णस्य च विपाकानुभवापेक्षयोपशमः, प्रदेशानुभवस्तूदयोऽस्त्येव, उपशमे तु प्रदेशानुभवोऽपि नास्तीति, उक्तं च___ "वेएइ संतकम् खओवसमिएसु नाणुभावं सो । उवसंतकसाओ पुण वेदेइ ण संतकम्मं ति॥" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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