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________________ भगवई ६१ श.१: उ.३: सू.१६६-१७२ चारित्रान्तर का उल्लेख किया है, वह भी मननीय है। भगवान् पार्श्व के शासन काल में चारित्र के तीन प्रकार कल्पान्तर थे-सामायिक, सूक्ष्मसम्पराय और यथाख्यात । भगवान महावीर के शासन-काल में चारित्र के पांच प्रकारों की निरूपणा की कल्पस्थिति या कल्प की व्यवस्था छह प्रकार की बतलाई गई गई-सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसंपराय और है सामायिक कल्पस्थिति, छेदोपस्थापनीय कल्पस्थिति, निविश्यमान यथाख्यात ।' यह अन्तर भी कांक्षामोहनीय कर्म के वेदन का हेतु कल्पस्थिति, निर्विष्ट कल्पस्थिति, जिनकल्पस्थिति, स्थविरकल्पस्थिति। बना है। वृत्तिकार ने सामायिक और छेदोपस्थापनीय चारित्र के अन्तर इसका सम्बन्ध मुख्यतः पार्श्वनाथ और महावीर के भेद से रहा है। की चर्चा की है। भगवान् पार्श्व के शासनकाल में आचार की व्यवस्था सामायिक के आधार पर निर्धारित थी और भगवान् महावीर के शासनकाल में लिङ्गान्तर छेदोपस्थापनीय आदि कल्पों का विकास हुआ था। यह शासनभेद भगवान पार्श्व के शिष्यों का लिंग–वेश वस्त्र-प्रधान था। कांक्षामोहनीय कर्म के वेदन का हेतु बना था। जयाचार्य ने इस भगवान् महावीर के शिष्यों का लिंग अवस्त्र अथवा साधारण वस्त्र । प्रसंग में कांक्षा-विषयक एक दूसरा दृष्टिकोण भी प्रस्तुत कियावाला था। चातुर्याम और पञ्चयाम तथा लिंगभेद के आधार पर । जिनकल्प की अवस्था में भी केवलज्ञान उत्पन्न नहीं होता। फिर केशी और गौतम के शिष्यों में एक चिंता उत्पन्न हुई थी। इस इतना कष्ट क्यों सहा जाए ? क्या इससे स्थविरकल्प अच्छा नहीं विप्रत्यय के बारे में केशी और गौतम में एक संवाद भी हुआ। वृत्तिकार ने भी यही चर्चा की है।'' मार्गान्तर प्रवचनान्तर और प्रवचनी-अंतर आगम-साहित्य में 'मार्ग' शब्द का अनेक सन्दर्भो में प्रयोग प्रवचन का अर्थ है आगम अथवा द्वादशांगी और प्रवचनी हुआ है। उदाहरणस्वरूप-ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप-इस का अर्थ है प्रवचनकार।' ऐसा प्रतीत होता है कि श्वेताम्बर और चतुष्टयी का नाम मार्ग है।" उमास्वाति ने सम्यग दर्शन, ज्ञान और दिगम्बर दोनों परम्पराओं के भेद-काल में प्रवचन और प्रवचनियों के चारित्र को मोक्षमार्ग बतलाया है।" सूपगडो का ग्यारहवां अध्ययन विषय में भिन्न-भिन्न अवधारणाएं रही हैं। वे अवधारणाएं ही ___'मार्ग' का प्रतिपादन करता है। उसमें ज्ञान का फलित अर्थ है कांक्षामोहनीय कर्म के वेदन का हेत बनी हैं। वृत्तिकार ने प्रवचनान्तर अहिंसा । ठाणं में 'मार्ग में उन्मार्ग की संज्ञा और उन्मार्ग में मार्ग की के विषय में चतुर्याम और पंचयाम के प्रतिपादक आगमों की चर्चा संज्ञा करने को' मिथ्यात्व कहा गया है। प्रस्तुत प्रकरण में सूत्रकार की है। किन्तु यह विषय चारित्रान्तर की व्याख्या में आ सकता है; मार्ग शब्द के द्वारा क्या बोध कराना चाहते हैं, यह ऐतिहासिक इसलिए यह विमर्शनीय है। वृत्तिकार ने पावयणी शब्द के दो संस्कृत सन्दर्भ में ही खोजा जा सकता है। रूप दिए हैं—प्रावचन और प्रावचनिक। उनके अनुसार दीर्घकाल में वृत्तिकार ने 'मार्ग' का अर्थ 'परम्परागत सामाचारी' किया प्रावचनिकों की पृथक्-पृथक् सामाचारी रही। इससे शंका और कांक्षा है। यह अर्थ प्रासंगिक हो सकता है, किन्तु इतिहास इससे भी आगे का जन्म हुआ। जयाचार्य ने प्रवचनी द्वारा किए गए निरूपण-भेद जाने को बाध्य करता है। भगवान् पार्श्व के शासनकाल में प्रतिक्रमण १. भ.२५/४५८ संग्रहणी गाथा १-५। २. भ.वृ.१।१७०–चारित्रम्-चरणं तत्र च यदि सामायिक सर्वसावधविरति- लक्षणं छेदोपस्थापनीयमपि तल्लक्षणमेव, महाव्रतानामवद्यविरतिरूपत्वात्, तत् कोऽनयोर्भेदः ? उक्तश्चासाविति, अत्र समाधिः-ऋजुजडवक्रजडानां प्रथमचरमजिनसाधूनामाश्वासनाय छेदोपस्थापनीयमुक्तं। व्रतारोपणे हि मनाक् सामायिकाशुद्धावपि व्रताखण्डनाचारित्रिणो वयं चारित्रस्य व्रतरूपत्वादिति बुद्धिः स्यात्, सामायिकमात्रे तु तदशुद्धौ भग्नं नश्चारित्रं, चारित्रस्य सामायिक- मात्रत्वादित्येवमनाश्वासस्तेषां स्यादिति, आह च "रिउवक्कजडा पुरिमेयराण सामाइए वयारुहणं। मणयमसुद्धेवि जओ सामाइए हुंति हु बयाई ।।' इति । ३. उत्तर.२३।१०-३३। ४. भ.वृ.१।१७० ---लिंगम् साधुवेशः। तत्र च यदि मध्यमजिनैर्यथालब्धवस्त्र- रूपं लिंगं साधूनामुपदिष्टं, तदा किमिति प्रथमचरमजिनाभ्याम् सप्रमाणधवल- वसनरूपं तदेवोक्तं ? सर्वज्ञानामविरोधिवचनत्वादिति । अत्रापि ऋजुजडवक्रजड ऋजुप्रज्ञशिष्यानाश्रित्य भगवतां तस्योपदेशः, तथैव तेषामुपकारसम्भवादिति समाधिः। ५. भ.२०१७॥ ६. भ.वृ.१1१0 तथा प्रवचनमधीते वेत्ति वा प्रावचनः-कालापेक्षया बह्वा गमः पुरुषः । तत्रैकः प्रावचनिक एवं कुरुते अन्यस्त्वेवमिति किमत्र तत्त्वमिति? समाधिश्चेह-चारित्रमोहनीयक्षयोपशमविशेषेण उत्सर्गापवादादि भावितत्वेन च प्राववनिकानां विचित्रा प्रवृत्तिरिति नासौ सर्वथाऽपि प्रमाणम्, आगमाविरुद्धप्रवृत्तेरेव प्रमाणत्वादिति । ७. भ.जो.१।१३।४८ - ५०। ८. ठाणं,६१०३। ६. भ.जो.१।१३।५६-५८ १०. उत्तर.२८।२। ११. त.सू.१।१-सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः। १२. ठाणं,१०।७४ । १३.भ.पू.१।१७०-मार्गः-पूर्वपुरुषक्रमागता सामाचारी । तत्र केषांचिद् द्विश् चैत्यवंदनानेकविधकायोत्सर्गकरणादिकाऽऽवश्यकसामाचारी तदन्येषां तु न तथेति किमत्र तत्त्वमिति ? समाधिश्च-गीतार्थाशठप्रवर्तिताऽसौ सर्वाऽपि न विरुद्धा, आचरितलक्षणोपेतत्वात्। आचरितलक्षणं चेदम् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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