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भगवई का उल्लेख किया है। उन्होंने सिद्धसेन को ज्ञान-दर्शन के युगपद्वाद का समर्थक और जिनभद्रगणी को ज्ञान-दर्शन के क्रमोपयोगवाद का समर्थक बतलाया है।
आचार्य कुन्दकुन्द युगपद् उपयोगवाद के प्रवक्ता थे। श्वेताम्बर परम्पराओं में मल्लवादी युगपद् उपयोगवाद के प्रवक्ता, सिद्धसेन अभेदोपयोग या एकोपयोगवाद के प्रवक्ता तथा जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण क्रमोपयोगवाद के प्रवक्ता थे। उपाध्याय यशोविजय जी ने इन तीनों का नयदृष्टि से समन्वय भी किया है। जयाचार्य ने प्रवचनान्तर की व्याख्या में कुछ मतभेदों का उल्लेख किया है।" प्रस्तुत प्रकरण में उन्होंने आगम के वाचना-भेद और पाठ-भेद की
श.१: उ.३ः सू.१६६-१७२ एक अनिवार्य आवश्यक कर्म नहीं था। भगवान् महावीर के शासनकाल में प्रतिक्रमण एक अनिवार्य आवश्यक कर्म था। मार्ग का एक अर्थ 'सामायिक आदि षड् आवश्यक कर्म' भी होता है।' जयाचार्य ने साधु-साध्वी-विषयक सामाचारी भेद की चर्चा की है। यह मार्गान्तर मुनियों में कांक्षा और शंका का हेतु बनता है। जयाचार्य ने कल्पान्तर के प्रकरण में आवश्यक की चर्चा की है। उनके अनुसार स्थितकल्पी मुनि के लिए आवश्यक नियत होता है और अस्थितकल्पी मुनि के लिए वह अनियत होता है।' मतान्तर
यहां मत का अर्थ दृष्टिभेद है। केवली और श्रुतकेवली की परम्परा का विच्छेद होने के पश्चात् मतान्तर का सूत्रपात होता है। आगम-साहित्य में अनेक मतान्तर उपलब्ध हैं। उपाध्याय समयसुन्दर । ने आगम-साहित्य में सौ दृष्टि-भेदों का संकलन किया है। दिगम्बर साहित्य में भी दृष्टिभेदों की एक लंबी तालिका है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश में ऐसे ८६ दृष्टिभेदों की तालिका दी गई हैं।'
जिनेन्द्र वर्णी ने दृष्टिभेद की पृष्ठभूमि समझाते हुए लिखा है-"यद्यपि अनुभवगम्य आध्यात्मिक विषय में आगम में कहीं भी पूर्वापर-विरोध या दृष्टिभेद होना संभव नहीं है, परन्तु सूक्ष्म, दूरस्थ
और अंतरित पदार्थों के सम्बन्ध में कहीं-कहीं आचार्यों का मतभेद पाया जाता है। प्रत्यक्षज्ञानियों के अभाव में उनका निर्णय दुरन्त । होने के कारण धवलाकार श्री वीरसेन स्वामी का सर्वत्र यही आदेश है कि दोनों दृष्टियों का यथायोग्य रूप में ग्रहण कर लेना योग्य
भङ्गान्तर
भंग का अर्थ है-एक वस्तु में प्रकृति-भेद अथवा संख्या-भेद से होने वाला विकल्प। वृत्तिकार ने हिंसा की चतुर्भंगी का उल्लेख कर भङ्गान्तर को समझाने का प्रयल किया है।" नयान्तर
ग्य का अर्थ है अनंतधर्मात्मक वस्तु के एक विषय में होने वाला ज्ञाता का सापेक्ष दृष्टिकोण अथवा अभिप्राय । नय के अनेक वर्गीकरण हैं। मूल नय दो हैं---द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक । टाणं में मूलनय सात बतलाए गए हैं-गम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत ।" तत्त्वार्यसूत्र के स्वोपज्ञ भाष्य के अनुसार उमास्वाति ने पांच नय स्वीकार किए हैं।" तत्त्वार्थराजवार्तिक के अनुसार नय सात हैं।" सिद्धसेन दिवाकर ने नैगम नय का
वत्तिकार ने इस प्रसंग में सिद्धसेन और जिनभद्रगणी के मतों
असढेण समाइनं जं कत्थइ केणइ असावजं ।
न निवारियमन्नेहिं बहुमणुमयमेयमायरियं ॥ १. अणु.२८
आवस्सयं अवस्सकरणिज्ज, धुवनिग्गहो विसोही य ।
अज्झयणछक्कवग्गो, नाओ आराहणा मग्गो । २. भ.जो.१।१३।६०-६५ ३. वही,१।१३।५२५५ ४. विसंवादशतक। ५. जै.सि.को.भा.२,पृ.४३६,दृष्टिभेद । ६. वही,पृ.४३६,दृष्टिभेद। ७. भ.वृ.१११७०-मतम् –समान एवागमे आचार्याणामभिप्रायः तत्र च सिद्धसेनदिवाकरो मन्यते-केवलिनो युगपद् ज्ञानं दर्शनं च, अन्यथा तदावरणक्षयस्य निरर्थकता स्यात् । जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणस्तु भिन्नसमये ज्ञानदर्शने, जीवस्वरूपत्वात्। तथा तदावरणक्षयोपशमे समानेऽपि क्रमेणैव मतिश्रुतो. पयोगौ, न चैकतरोपयोगे इतरक्षयोपशमाभावः । तक्षयोपशमस्योत्कृष्टतः षट्षष्टिसागरोपमप्रमाणत्वादतः किं तत्त्वमिति ? इह च समाधिः-यदेव मतमागमानुपाति तदेव सत्यमिति मन्तव्यमितरत्पुनरुपेक्षणीयम् । अथ चाबहुश्रुतेन नैतदवसातुं शक्यते तदैवं भावनीयम्-आचार्याणां संप्रदायादिदोषादयं मत- भेदः। जिनानां तु मतमेकमेवाविरुद्धं च, रागादिविरहितत्वात् । आह च
अणुवकयपराणुग्गहपरायणा जं जिणा जुगप्पवरा । जियरागदोसमोहा य णण्णहावाइणो तेण ॥ति ।
८.प्र.सार-११५१--
तिक्कालणिचं विसमं सयलं सब्वत्थ संभवं चित्तं ।
जुगवं जाणदि जोण्हं अहो हि णाणस्स माहप्पं ।। ६. ज्ञान.प्र.१०२-१७३ तथा उपसंहार के श्लोक १-७-उपाध्याय यशोविजयजी ने यह स्पष्ट किया है कि नन्दी वृत्ति में आचार्य सिद्धसेन को जो युगपद् उपयोगवादी बतलाया गया है, वह 'अभ्युपगमवाद' के अभिप्राय से है, स्वतन्त्र सिद्धान्त के अभिप्राय से नहीं। १०. भ.जो.१।१३।३६४६। ११. वही,१।१३।६७७२। १२. भ.वृ.१।१७०–भङ्गाः द्व्यादिसंयोगभङ्गकाः। तत्र च द्रव्यतो नाम एका हिंसा, न भावत इत्यादि चतुभंगयुक्ता। न च तत्र प्रथमोऽपि भङ्गो युज्यते, यतः किल द्रव्यतो हिंसा-ईसिमित्या गच्छतः पिपीलिकादिव्यापादनं, न चेयं हिंसा, तल्लक्षणायोगात्, तथाहि
"जो उ पमत्तो पुरिसो तस्स उ जोगं पडुच्च जे सत्ता ।
बावजंती नियमा तेसि सो हिंसओ होइ ॥" त्ति | उक्ता चेयमतः शंका, न चेयं युक्ता, एतद् गाथोक्तहिंसालक्षणस्य द्रव्यभावहिंसाश्रयत्वात्, द्रव्यहिंसायास्तु मरणमात्रतया रूढत्वादिति । १३. ठाणं,७।३। १४. त.सू.(स्वोपज्ञभाष्य सहित),१।३४–नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दा नयाः। १५. त.रा.वा.१।३३-नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दसमभिरुद्वैः।
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