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भगवई
स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं माना है। इस प्रकार नयों के अनेक वर्गीकरण कांक्षामोहनीय कर्म के वेदन में निमित्त बने हैं। नियमान्तर
वृत्तिकार ने नियम का अर्थ 'अभिग्रह' किया है। इससे पौरुषी आदि तप-विधियों का बोध होता है। सामायिक के द्वारा सर्व पापकारी प्रवृत्तियों का प्रत्याख्यान होता है। फिर नियम क्यों? इस प्रश्न के द्वारा वृत्तिकार ने नियमान्तर की व्याख्या की है। प्रकरण से प्रतीत होता है कि पार्श्व और महावीर की परम्परा में महाव्रतों की भांति नियमों का भी भेद था और वह कांक्षा-उत्पत्ति का हेतु बनता था।
श.१ : उ.३: सू.१६६-१७३ वहां ज्ञान के दो प्रकार बतलाए गए हैं—प्रत्यक्ष और परोक्ष तथा हेतु के चार प्रकार प्रतिपादित हैं--प्रत्यक्ष, अनुमान, औपम्य और आगम।। अणुओगदाराई में ज्ञानगुणप्रमाण के प्रत्यक्ष, अनुमान, औपम्य और आगम-ये चार भेद उपलब्ध हैं। नंदी में ज्ञान के प्रत्यक्ष और परोक्ष-ये दो प्रकार मिलते हैं। इस प्रकार विभिन्न नामों के माध्यम से प्रमाण के अनेक वर्गीकरण बन गए। जैन परम्परा में प्रमाण का आधुनिक वर्गीकरण अकलंक और हरिभद्र के समय से हुआ है। सिद्धसेन दिवाकर ने न्यायावतार में प्रत्यक्ष, अनुमान
और आगम इन तीन प्रमाणों की स्वीकृति दी थी। आगम-संकलन-काल से पूर्ववर्ती प्रमाण के ये अनेक वर्गीकरण शंका और कांक्षा के हेतु बने थे।
शंकित आदि पांचों पदों की व्याख्या के लिए भगवती १।१२६,१३० का भाष्य द्रष्टव्य है।
प्रमाणान्तर
प्रमाण का अर्थ है निर्णायक ज्ञान । ठाणं में व्यवसाय के तीन प्रकार प्रतिपादित हैं-प्रत्यक्ष, प्रात्ययिक (इन्द्रिय और मन से होने वाला अथवा आप्तवचन से होने वाला) और आनुगामिक (अनुमान)।
१७३. सेवं भंते ! सेवं भंते !
तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त !
१७३. भन्ते ! वह ऐसा ही है । भन्ते ! वह ऐसा ही है।
१. सम्मति. ११४,५
दव्ववियनयपयडी सुद्धा संगहपरूवणाविसओ। पडिलवे पुण वयणथनिच्छओ तस्स ववहारो॥ मूलणिमेणं पज्जवणयस्स उजुसुयवयणविच्छेदो ।
तस्स उ सद्दाईआ साहपसाहा सुहुमभेया ।। २. भ.वृ.१।१७ नियमः-अभिग्रहः। तत्र यदि नाम सर्वविरतिः सामायिक तदा किमन्येन पौरुष्यादिनियमेन ? सामायिकेनैव सर्वगुणावाप्तेः, उक्तश्चासौ इति शङ्का, इयं चायुक्ता। यतः सत्यपि सामायिके युक्तः पौरुष्यादिनियमः, अप्रमादवृद्धिहेतुत्वादिति आह च
"सामाइए वि हु सावजचागरूवे उ गुणकर एयं । अपमायवुहिजणगत्तणेण आणाओ वित्रेयं ।।" ति |
३. ठाणं,३।३६-तिविधे ववसाये पण्णते, तं जहा–पञ्चक्खे, पञ्चइए, आणु
गामिए। ४. वही,२।६६ दुविहे णाणे पण्णत्ते, तं जहा—पच्चक्खे चेव, परोक्खे चेव । ५. वही,४ । ५०४-हेऊ चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा—पचखे, अणुमाणे, ओवम्मे,
आगमे। ६.अणु.सू.५१५–नाणगुणप्पमाणे चउबिहे पण्णत्ते, तं जहा—पच्चस्खे, अणु
माणे, ओवम्मे, आगमे। ७. नंदी,सू.३–तं समासओ दुविहं पण्णतं, तं जहा—पच्चस्खं च परोक्खं च । ८. न्यायावतार, कारिका ४,५,८।
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