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________________ भूमिका नाम-भगवान् महावीर की वाणी द्वादशांगी में संकलित है। उस द्वादशांगी के पाँचवे अंग का नाम है-'विआहपण्णत्ती'। इसका संस्कृत रूप है-'व्याख्याप्रज्ञप्ति'। प्रश्नोत्तर की शैली में लिखा जाने वाला ग्रन्थ व्याख्याप्रज्ञप्ति कहलाता है। व्याख्या का अर्थ है विवेचन करना और प्रज्ञप्ति का अर्थ है समझाना। जिसमें विवेचनपूर्वक तत्त्व समझाया जाता है उसे व्याख्याप्रज्ञप्ति कहा जाता है । नंदीसूत्र में चार प्रज्ञप्तियों का उल्लेख है-जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति। इनमें प्रथम तीन कालिकश्रुत हैं और सूर्यप्रज्ञप्ति उत्कालिकश्रुत है।' 'कसायपाहुड' में परिकर्म के पांच अधिकार बतलाए गए हैं—चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति और व्याख्याप्रज्ञप्ति। श्वेताम्बर साहित्य में व्याख्याप्रज्ञप्ति का उल्लेख केवल द्वादशांगी के पांचवे अंग के रूप में ही मिलता है। यदि द्वादशांगी के ग्यारह अंगों को बारहवें अंग (दृष्टिवाद) से उद्धृत माना जाए तो दिगम्बर साहित्य के आधार पर व्याख्याप्रज्ञप्ति को परिकर्म के पांचवें अधिकार (व्याख्याप्रज्ञप्ति) से उद्धृत माना जा सकता है। इन दोनों की विषयवस्तु भी समान है। व्याख्याप्रज्ञप्ति नाम का परिकर्म रूपी-अरूपी, जीव-अजीव, भव्य-अभव्य के प्रमाण और लक्षण, मुक्त जीवों तथा अन्य वस्तुओं का वर्णन करता है।" तत्त्वार्थराजवार्तिक तथा नंदी और समवायांग में भी व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग के विषय-प्रतिपादन का उल्लेख मिलता है, वह भी जीव-अजीव आदि द्रव्यों के वर्णन की सूचना देता है।' समवायांग और नंदी में व्याख्याप्रज्ञप्ति और व्याख्या-ये दोनों नाम मिलते है। व्याख्या व्याख्याप्रज्ञप्ति का ही संक्षिप्त रूप है। अभयदेवसूरि ने प्रस्तुत सूत्र के प्रारम्भ में व्याख्याप्रज्ञप्ति पद की व्याख्या की है। उनके अनुसार प्रस्तुत आगम में गौतम आदि शिष्यों द्वारा पूछे गए प्रश्नों के उत्तर में महावीर ने जो प्रतिपादन किया, उसकी प्रज्ञापना है। इसलिए इसका नाम व्याख्याप्रज्ञप्ति है। उन्होंने इसके चार अर्थ और किए हैं १. व्याख्या + प्रज्ञा + आप्ति = व्याख्याप्रज्ञाप्ति । २. व्याख्या + प्रज्ञा + आत्ति = व्याख्याप्रज्ञात्ति। इसमें व्याख्या की प्रज्ञा से अर्थ की प्राप्ति होती है, इसलिए यह व्याख्याप्रज्ञाप्ति अथवा व्याख्याप्रज्ञात्ति है। ३. व्याख्याप्रज्ञ + आप्ति = व्याख्याप्रज्ञाप्ति। ४. व्याख्याप्रज्ञ + आत्ति = व्याख्याप्रज्ञात्ति । व्याख्याप्रज्ञ भगवान् महावीर के द्वारा गणधरों को अर्थ की प्राप्ति हुई है, इसलिए इस आगम का नाम व्याख्याप्रज्ञाप्ति अथवा व्याख्याप्रज्ञात्ति है। ये चारों अर्थ बौद्धिक हैं। प्राकृत व्याकरण की दृष्टि से किए जा सकते हैं, इसलिए किए गए हैं। ये मूलस्पर्शी नहीं हैं। विआहपण्णत्ती का कुछ आदर्शों में विवाहपण्णत्ती पाठ भी मिलता है। यह संभवतः लिपिकारों के प्रमाद से हुआ है। अभयदेवसूरि ने इस पाठ की भी व्याख्या की है १. वि + वाह + प्रज्ञप्ति = विवाहप्रज्ञप्ति। इसमें विविध या विशिष्ट अर्थप्रवाहों का प्रज्ञापन है, इसलिए यह विवाहप्रज्ञप्ति है। २. वि + बाध + प्रज्ञप्ति = विबाधप्रज्ञप्ति । इसमें बाधारहित अर्थात् प्रमाण से अबाधित अर्थ का निरूपण है, इसलिए यह विबाधप्रज्ञप्ति प्रस्तुत आगम का दूसरा नाम 'भगवती' है। व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र की अपनी विशिष्टता थी, इसलिए भगवती इसका एक विशेषण था। समवायांग में वियाहपण्णत्ती के साथ भगवती विशेषण रूप में प्रयुक्त है। आगे चलकर यह विशेषण नाम बन गया। इस सहस्राब्दी में व्याख्याप्रज्ञप्ति की अपेक्षा 'भगवती' नाम अधिक प्रचलित है। १. नंदी,सू.७॥ २. वही,सू.७७। ३. क.पा.प्रथम अधिकार,पृ.१३२–परियम्मं चंद-सूर-जंबूदीव-दीवसायर-वियाहपण्णत्तिभेएण पंच- ५. त.रा.वा.१।२०नंदी,सू. .५;सम.प.सू.६३। ६. सम.प.सू.८८,६३नंदी,सू.८०,८५/ ७. भ.वृ.प.२। । ८. वही,प.२- इयं च भगवतीत्यपि पूज्यत्वेनाभिधीयते । ६. सम.८४।११-वियाहपण्णत्तीए णं भगवतीए चउरासीई पयसहस्सा पदग्गेणं पण्णत्ता। विहं। ४. वही,प्रथम अधिकार,पृ.१३३ जा पुण वियाहपण्णत्ती सा रूवि-अरूवि-जीवाजीवदव्वाणं भवसिद्धिय-अभवसिद्धियाणं। पमाणस्स तल्लक्खणस्स अणंतर-परंपरसिद्धाणं च अण्णेसिं च वत्थूणं वण्णणं कुणइ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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