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________________ भूमिका भगवई विषयवस्तु समवायांग और नंदी के अनुसार प्रस्तुत आगम में ३६ हजार प्रश्नों का व्याकरण है।' तत्त्वार्थराजवार्त्तिक, षट्खण्डागम और कसायपाहुड के अनुसार प्रस्तुत आगम में ६० हजार प्रश्नों का व्याकरण है। प्रस्तुत आगम के विषय के सम्बन्ध में अनेक सूचनाएँ मिलती हैं। समवायांग में बताया गया है कि अनेक देवों, राजाओं और राजर्षियों ने भगवान् से विविध प्रकार के प्रश्न पूछे और भगवान् ने विस्तार से उनका उत्तर दिया। इसमें स्वसमय, परसमय, जीव, अजीव, लोक और अलोक व्याख्यात हैं। नंदी में भी यही विषयवस्तु निर्दिष्ट है, किन्तु उसमें समवायांग की भांति प्रश्नकर्ताओं का उल्लेख नहीं है। आश्चर्य है कि समवायांग में सबसे बड़े प्रश्नकार गौतम का उल्लेख नहीं है। आचार्य अकलंक के अनुसार प्रस्तुत आगम में जीव है या नहीं है-इस प्रकार के अनेक प्रश्न निरूपित हैं।' आचार्य वीरसेन के अनुसार प्रस्तुत आगम में प्रश्नोत्तरों के साथ-साथ ६६ हजार छिन्नच्छेद नयों, ज्ञापनीय शुभ और अशुभ का वर्णन है।" उक्त सूचनाओं से प्रस्तुत आगम का महत्त्व जाना जा सकता है। वर्तमान ज्ञान की अनेक शाखाओं ने अनेक नए रहस्यों का उद्घाटन किया है। हम प्रस्तुत आगम की गहराइयों में जाते हैं तो हमें प्रतीत होता है कि इन रहस्यों का उद्घाटन अतीत में भी हो चुका था। प्रस्तुत आगम तत्त्वविद्या का आकरग्रन्थ है। इसमें चेतन और अचेतन-इन दोनों तत्त्वों की विशद जानकारी उपलब्ध है। संभवतः विश्व विद्या की कोई भी ऐसी शाखा नहीं होगी जिसकी इसमें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में चर्चा न हो। तत्त्वविद्या का इतना विशाल ग्रंथ अभी तक ज्ञात नहीं है। इसके प्रतिपाद्य विषय का आकलन करना एक जटिल कार्य है। अंगसुत्ताणि भाग दो में इसकी विस्तृत विषयसूचि उपलब्ध है। फिर भी कुछ विषयों की चर्चा करना अपेक्षित है। प्रस्तुत आगम में तत्त्वविद्या का प्रारम्भ 'चलमाणे चलिए' इस प्रश्न से होता है। जैन दर्शन में प्रत्येक तत्त्व का प्रतिपादन अनेकान्त की दृष्टि से होता है। एकान्त दृष्टि के अनुसार चलमान और चलित-दोनों एक क्षण में नहीं हो सकते। अनेकान्त की दृष्टि के अनुसार चलमान और चलित-दोनों एक क्षण में होते हैं। समूचे आगम में अनेकान्त दृष्टि का पूरा उपयोग किया गया है। अनेकान्त का स्वरूप है नयवाद या दृष्टिवाद । मध्ययुग में तर्कप्रधान आचार्यों ने अनेकान्त का प्रमाण के साथ सम्बन्ध स्थापित किया है, वह मौलिक नहीं है। अनेकान्तवाद के अनुसार प्रमाण औपचारिक है, वास्तविक है नय। इस प्रश्न की व्याख्या ऋजुसूत्र नय से होती है। जयधवला में पच्यमान-पक्क की व्याख्या ऋजुसूत्र नय के आधार पर की गई है। इसी प्रकार क्रियमाण कृत, भुज्यमान भुक्त, बद्ध्यमान बद्ध और सिद्ध्यमान सिद्ध आदि की व्याख्या एकसमयवर्ती पर्याय को सूचित करने वाले ऋजुसूत्र नय के द्वारा होती है। अभयदेवसूरि ने इसकी व्याख्या निश्चय नय के अनुसार की है। उनका कहना है कि व्यवहारनय के अनुसार चलित को ही चलित कहा जा सकता है और निश्चय नय के अनुसार चलमान को भी चलित कहा जा सकता।” इसका तात्पर्य यह है कि उत्पत्ति और निष्पत्ति का क्षण एक ही है। जिस क्षण में उत्पत्ति है उसी क्षण में निष्पत्ति हो जाती है। उत्पत्ति और निष्पत्ति की शृंखला चालू रहती है। भगवान् महावीर के अस्तित्व-काल में धर्मदर्शनों का बहुत बड़ा समवाय था। श्रमण और वैदिक दोनों परम्पराओं के सैकड़ो सम्प्रदाय प्रचलित थे। महावीर ने अपनी दीर्घ तपस्या से सूक्ष्म सत्यों का साक्षात्कार और उनका प्रतिपादन किया। षड्जीवनिकाय लोक-अलोकवाद, पञ्चास्तिकाय, परमाणुवाद, तमस्काय, कृष्णराजि—ये जैन दर्शन के सर्वथा स्वतन्त्र अस्तित्व के प्रज्ञापक हैं। कुछ पश्चिमी विचारकों ने लिखा है-जैन दर्शन अन्यान्य दर्शनों के विचारों का संग्रह-मात्र है, उसका स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। उनकी इस स्थापना को हम सर्वथा निराधार नहीं मानते, इसका एक आधार भी है। मध्य युग के आचार्यों ने न्याय या तर्कशास्त्र के जिन ग्रंथों की रचना की उनमें बौद्ध और नैयायिक आदि दर्शनों के विचारों का संग्रह किया गया है। उन ग्रंथों को पढकर जैन दर्शन के बारे में उक्त धारणा होना अस्वाभाविक नहीं है। जैन दर्शन का वास्तविक स्वरूप आगम सूत्रों में निहित है। मध्यकालीन ग्रन्थ खंडन-मंडन के ग्रन्थ हैं। हमारी दृष्टि में वे दर्शन के प्रतिनिधि ग्रन्थ नहीं हैं। पहली भ्रान्ति यह है कि तार्किक ग्रन्थों को दार्शनिक ग्रन्थ माना जा रहा है। दूसरी भ्रान्ति इसी मान्यता के आधार पर पल रही है कि जैन दर्शन दूसरे दर्शनों के विचारों का संग्रह मात्र है। पहली भ्रान्ति टूटे बिना दूसरी भ्रान्ति नहीं टूट सकती। जैन दर्शन के आधारभूत और मौलिक ग्रन्थ आगम-ग्रन्थ हैं। ये दर्शन का प्रतिनिधित्व करते हैं। इनका गम्भीर अध्येता नहीं कह सकता कि जैन दर्शन दूसरे विचारों का संग्रह मात्र है। आचार्य सिद्धसेन ने लिखा है-भगवान् ! आपकी सर्वज्ञता को सिद्ध करने के लिए मुझे बहुत प्रमाण प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं है। आपके द्वारा प्रतिपादित षड्जीवनिकायवाद आपके सर्वज्ञत्व का प्रबलतम साक्ष्य है।" १. सम.प.सू.६३:नंदी,सू.८५। ७. क.पा.प्रथम अधिकार,पृ.१२५। २. त.रा.वा.१।२०ष.खं.१,पृ.१०१;क.पा.प्रथम अधिकार,पृ.१२५/ ८.११११। ३. सम.प.सू.६३। ६. क.पा.प्रथम अधिकार,पृ.२२३,२२४। ४. नंदी,सू.८५। १०. भ.वृ.प.१६॥ ५.त.रा.वा.१॥२०॥ ११. द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका,११३६. जिस व्याख्यापद्धति में प्रत्येक श्लोक और सूत्र की स्वतन्त्र, दूसरे श्लोकों और य एव षड्जीवनिकायविस्तरः, परैरनालीढपथस्त्वयोदितः। सूत्रों से निरपेक्ष व्याख्या की जाती है उस व्याख्या पद्धति का नाम छिनच्छेद अनेन सर्वज्ञपरीक्षणक्षमास्त्वयि प्रसादोदयसोत्सवाः स्थिताः॥ नरा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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