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भूमिका
भगवान् महावीर ने जीवों के छह निकाय बतलाए । उनमें त्रस निकाय के जीव प्रत्यक्ष सिद्ध हैं। वनस्पति निकाय के जीव अब विज्ञान द्वारा भी सम्मत हैं। पृथ्वी, पानी, अग्नि और वायु—– इन चार निकायों के जीव विज्ञान द्वारा स्वीकृत नहीं हुए। भगवान् महावीर पृथ्वी आदि जीवों का केवल अस्तित्व ही नहीं बतलाया, उनका जीवनमान, आहार, श्वास, चैतन्यविकास, संज्ञाएं आदि पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला है। पृथ्वीकायिक जीवों का न्यूनतम जीवनकाल अन्तर्मुहूर्त्त का और उत्कृष्ट जीवनकाल बाईस हजार वर्ष का होता है। वे श्वास निश्चित क्रम से नहीं लेते- कभी कम समय से और कभी अधिक समय से लेते हैं। उनमें आहार की इच्छा होती है। वे प्रतिक्षण आहार लेते हैं। उनमें स्पर्शनेन्द्रिय का चैतन्य स्पष्ट होता है। चैतन्य की अन्य धारायें अस्पष्ट होती हैं।' मनुष्य जैसे श्वासकाल में प्राणवायु का ग्रहण करता है वैसे पृथ्वीकाय के जीव श्वासकाल में केवल वायु को ही ग्रहण नहीं करते, किन्तु पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति — इन सभी को ग्रहण करते हैं। '
भगवई
वर्त्तमान विज्ञान ने वनस्पति जीवों के विविध पक्षों पर्याप्त शोध नहीं की । वनस्पति क्रोध और प्रेम
पृथ्वी की भांति पानी आदि के जीव भी श्वास लेते हैं, आहार आदि करते हैं। का अध्ययन कर उनके रहस्यों को अनावृत किया है, किन्तु पृथ्वी आदि के जीवों पर प्रदर्शित करती है। प्रेमपूर्ण व्यवहार से वह प्रफुल्लित होती है और घृणापूर्ण व्यवहार से वह मुरझा जाती है। विज्ञान के ये परीक्षण हमे महावीर के इस सिद्धान्त की ओर ले जाते हैं कि वनस्पति में दस संज्ञाएं होती हैं। वे संज्ञाएं इस प्रकार हैं- आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा, परिग्रहसंज्ञा, क्रोधसंज्ञा, मानसंज्ञा, मायासंज्ञा, लोभसंज्ञा, ओघसंज्ञा और लोकसंज्ञा। इन संज्ञाओं का अस्तित्व होने पर वनस्पति अस्पष्ट रूप में वही व्यवहार करती है जो स्पष्ट रूप में मनुष्य करता है।
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प्रस्तुत विषय की चर्चा एक उदाहरण के रूप में की गई है। इसका प्रयोजन इस तथ्य की ओर इंगित करना है कि इस आगम में ऐसे सैकड़ों विषय प्रतिपादित हैं, जो सामान्य बुद्धि द्वारा ग्राह्य नहीं है। उनमें से कुछ विषय विज्ञान की नई शोधों द्वारा अब ग्राह्य हो चुके हैं और अनेक विषयों को परीक्षण के लिए पूर्वमान्यता के रूप में स्वीकार किया जा सकता है।
पंचास्तिकाय
१,४
पं. दलसुख मालवणिया ने लिखा है ' - पंचास्तिकाय और षड्द्रव्य की कल्पना नव तत्त्व या सात तत्त्व के बाद ही हुई है। उसका प्रमाण हमें भगवती सूत्र से मिल जाता है। वहां प्रश्न किया गया है कि लोकान्त में खड़ा रहकर देव अलोक में अपना हाथ हिला सकता है या नहीं ? उत्तर दिया गया कि नहीं हिला सकता और उसका कारण बताया है कि "जीवाणं आहारोवचिया पोग्गला, बोंदिचिया पोग्गला, कलेवरचिया पोग्गला, पोग्गलमेव पप्प जीवाण य अजीवाण य गतिपरियाए आहिज्जइ । अलोए णं नेवत्थि जीवा नेवत्थि पोग्गला ।' स्पष्ट है कि जीव और अजीव की गति का कारण पुद्गल को माना गया है। यदि भगवती के इस स्तर की रचना के समय में धर्मास्तिकाय द्रव्य की कल्पना स्थिर हो गई होती तो ऐसा उत्तर नहीं मिलता। धर्मास्तिकाय आदि की प्ररूपणा क्या भगवान् महावीर ने की है ? ऐसे प्रश्न भी अन्य तीर्थिकों के हुए है, यह भी सूचित करता है कि यह कोई नई बात दार्शनिक क्षेत्र में चल पड़ी थी। भगवती में ही धर्मास्तिकाय आदि के जो पर्याय दिए गए हैं वह भी उन्हें द्रव्य मानने के पक्ष में नहीं हैं ।
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पं मालवणियाजी की उक्त स्थापना समीक्षणीय है, मालवणियाजी ने लिखा है -सूत्रकृतांग के काल तक पंचास्तिकाय और षद्रव्य की चर्चा ने तत्त्व - विचारणा में स्थान पाया नहीं है ।
आचारांग और सूत्रकृतांग में दर्शन के आधारभूत तत्त्वों की खोज एक सुसंगत उपक्रम नहीं है। महावीर ने किसी आगम की रचना नहीं की। उन्होंने जो कहा उसको आधार मानकर गणधरों और स्थविरों ने आगम की रचना की । आचार आदि अंग सूत्रों की रचना एक योजनाबद्ध ढंग से की गई थी। समवायांग और नंदी में उपलब्ध द्वादशांगी के विवरण से इस तथ्य की पुष्टि होती है।
आचारांग में निर्ग्रथों के आचार- गोचर, विनय वैनयिक, शिक्षा-भाषा आदि आख्यात हैं। ' सूत्रकृतांग में लोक- अलोक, जीव- अजीव, स्वसमय-परसमय की सूत्र रूप सूचना है। ' स्थानांग में स्वसमय-परसमय, जीव-अजीव, लोक- अलोक की स्थापना या प्रज्ञापना है।
में
१०
१. भ. १ । ३२ ।
२. वही, ६ । २५३,२५४ ।
३. जैन दर्शन का आदिकाल, पृ. ३४,३५ ।
४. १६।११६।
५. ७।२१३,२१६ |
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६. २०।१४-१८
७. जैन दर्शन का आदिकाल, पृ. ३५ ।
८. नंदी, सू. ८१, सम. प. सू. ८६ ।
६. नंदी, सू. ८२, सम. प. सू. ६० ।
१०. नंदी, सू. ८३, सम. प. सू. ६१ ।
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