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भूमिका
भगवई
यह है कि बीस शतक प्राचीन हैं और अगले शतक परिवर्धित हैं। यह विषय भाषा, वाक्यरचना आदि की दृष्टि से सूक्ष्मता के साथ अन्वेषणीय है। अन्वेषण के पश्चात् ही उत्तरवर्ती शतकों में परिवर्धित भाग अधिक है,यह स्वीकार किया जा सकता है। चौबीसवां शतक भाषा और वाक्य-रचना की दृष्टि से पूर्ववर्ती शतकों से भिन्न प्रतीत होता है। इसमें प्रस्तुत आगम की सहज सरलता नहीं है, किन्तु प्रज्ञापना जैसी जटिलता है। पच्चीसवें शतक के बारे में यह नहीं कहा जा सकता। फिर भी उसमें कुछ परिवर्धित नहीं है, यह भी नहीं कहा जा सकता। प्रतिसेवना, आलोचना', सामाचारी', प्रायश्चित्त विषयकसूत्र छेदसूत्रों और उत्तराध्ययन से संकलित हैं।
डा. डेल्यू. ने इस विषय का स्पर्श इन शब्दों में किया है--"विआहपण्णति में चर्चित विषयों की विविधता और अनेक स्थलों पर इस चर्चा में आने वाले विभिन्न व्यक्तियों तथा परिस्थितियों का विषय में दी गयी जानकारी—यह सारा व्यवस्थित पद्धति से दिए जाने वाले विवरण जैसा नहीं है। इसी कारण से हमारे पास यहां एक ऐसा विवरण उपलब्ध है, जो कि महावीर के सिद्धान्त : उस विषय में निरूपण करता है, न कि उन सिद्धान्तों का जिन्हें उत्तरकाल में व्यवस्थित रूप दिया गया। वस्तुतः तो ऐसा यही एक मात्र यथार्थतः महत्त्वपूर्ण आगमिक विवरण उपलब्ध है। हां, यह अवश्य है कि परम्परा ने बहुत प्रकार से महावीर की यात्रा तथा वे जिन नगरों एवं उद्यानों में गए उनके सम्बन्ध में और वे जिन लोगों से मिले व उनकी उपदेश देने की पद्धति के विषय में एकरूप विवेचन प्रस्तुत कर उक्त विवरण को रूढ-सा बना दिया है। फिर भी यहां जो महत्त्वपूर्ण बिन्दु है वह यह है कि महावीर जिन स्थानों में वस्तुतः रहे थे, जिन लोगों से वस्तुतः मिले थे, अमुक प्रश्नों के बारे में जिन विचारों को उन्होंने निरूपित किया था, जिन अन्य लोगों के अभिप्राय को उन्होंने समर्थन दिया था या असमर्थन दिया था, अपने समय के जिन व्यक्तियों, पदार्थों और घटनाओं के विषय में उन्होंने टिप्पणी की थी, उनके विषय में यहां बताया गया है; तथा संक्षेप में यह कि यहां महावीर अपने काल की स्थितियों और परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में एक सक्रिय व्यक्ति के रूप में अधिक प्रतीत हो रहे हैं। दूसरे शब्दों मे-विआहपण्णत्ती के केन्द्रीय शतकों में एक मात्र वे असली संवादात्मक आगम-पाठ उपलब्ध हैं (जिन्हें पण्णत्ती कहा जाता है) जिनका अनुसरण आगे चलकर प्रज्ञापना जैसे संवादात्मक आगमों में (जिन्हें गौण पण्णत्ती कहा जा सकता है) तथा विआहपण्णत्ती में प्रक्षिप्त पाठों में किया गया है।"
पाठ-विमर्श
प्रस्तुत आगम के पचीसवें शतक में तप का विस्तृत प्रकरण है। यह औपपातिक में भी उपलब्ध होता है। इसमें चार ध्यानों का निरूपण है। ध्यानचतुष्टयी का निरूपण स्थानांग में भी मिलता है। इनमें कहीं-कहीं क्रम-भेद और कहीं कहीं मौलिक अन्तर है। शुक्लध्यान के लक्षण और आलम्बन के विषय में व्याख्याप्रज्ञप्ति तथा स्थानांग और औपपातिक में पाठ का विपर्यय मिलता है
१.२५१५५१
२.२५/५५२-५५४ ३. २५/५५५ ४. २५१५५६ ५. विआहपण्णत्ती की भूमिका,पृष्ठ३४-३५-"On the whole the texts
and fragments embodied in the Viy. by way of references and quotations, derive from the systematic enunciation of the doctrine. If they are eliminated from the nucleus sayas, what is left proves to be a rather bewildering amalgam of detached teaching. The diversity of the topics discussed and in many cases that of the persons and the circumstances attending these discussions all but defy methodical description that is because here we have a record, of what Mv.'s teaching actually was like, not of what later systematization has made of it. Of course, tradition has, in many ways, formalized this record by
stereotyping the description of Mv.'s peregrination, of the towns and sanctuaries be visited, of the people he met and of bis method of teaching. The important point, however, is that here Mv. is actually said to have stayed at places, to have approved or disapproved of other people's opinions, to bave commented upon persons, things and events of his time, that, in fine, Mv. here appears more as an active personality set against the background of its environmental conditions and circumstances. In other words: the nucleus sayas of the Viy. are, or rather contain, the only genuine dialogue text (pannatti) to be found in the canon, the example imitated by would-be dialogue texts (secondary pannattis) such as
pannav." ...
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