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भगवई
भूमिका
निर्देश शुरू हो जाता है। पहले प्रश्न के साथ इन प्रश्नों का कोई संबन्ध स्थापित नहीं होता। सम्बन्ध स्थापना या व्यवस्था की दृष्टि से ग्यारहवें और बारहवें सूत्र के पश्चात् सोलहवां सूत्र होना चाहिए। इसमें किसी दूसरे आगम को देखने की जरूरत नहीं है और पूर्व प्रश्न के साथ इनका सबंध भी जुड़ता है। इसी प्रकार इकतीसवें सूत्र के पश्चात् तेतीसवां सूत्र होना चाहिए। बत्तीसवें सूत्र में फिर प्रज्ञापना को देखने का निर्देश है। ऐसी कल्पना की जा सकती है कि नैरयिक के प्रसंग में नैरयिक सम्बंधी पूरी जानकारी देने के लिए प्रज्ञापना का कुछ भाग प्रस्तुत सूत्र में साक्षात् लिखा गया और शेष भाग को देखने की सूचना की गई। इसी प्रकार प्रथम शतक के एक सौ एकवें सूत्र में सलेश्य का निरूपण है। प्रसंगवश लेश्या का नाम निरूपण कर उसके विस्तार के लिए प्रज्ञापना के लेश्यापद का निर्देश है। प्रथम शतक के एक सौ पचहत्तरवें सूत्र में मोहनीय कर्म के विषय में चर्चा है। इस प्रसंग मे सभी कर्मों का बोध कराने के लिए प्रज्ञापना के कर्मप्रकृति पद का निर्देश है। जहाँ-जहाँ प्रज्ञापना, जीवाजीवाभिगम आदि का निर्देश है वे सब प्रस्तुत आगम में परिवर्धित विषय हैं। यह कल्पना उन प्रकरणों के अध्ययन से स्पष्ट हो जाती है। इसकी संभावना नहीं की जा सकती कि प्रस्तुत आगम में निर्देशित विषय पहले विस्तृत रूप में थे और संकलन काल में उन्हें संक्षिप्त किया गया और उनका विस्तार जानने के लिए अंगबाह्य सूत्रों का निर्देश किया गया। अंगबाह्य सूत्रों में अंगों का निर्देश किया जा सकता था, किन्तु अंग-सूत्रों में अंगबाह्य सूत्रों का निर्देश कैसे किया जा सकता था? वह किया गया है। इससे स्पष्ट है कि उन निर्देशों से संबंधित विषय प्रस्तुत आगम में जोड़कर उसे व्यवस्थित करने का प्रयल किया गया है।
__ अंग सूत्रों में अंगबाह्य सूत्रों का निर्देश उनका (अंगबाह्य सूत्रों का) प्रामाण्य स्थापित करने के लिए किया गया है, इस कल्पना में कोई विशेष अर्थ प्रतीत नहीं होता। दशवैकालिक, उत्तराध्ययन तथा छेदसूत्रों का प्रामाण्य स्थापित करने के लिए भी उनका निर्देश किया जाता। दूसरी बात, अंग-सूत्रों में अंगबाह्य सूत्रों का सर्वाधिक निर्देश व्याख्याप्रज्ञप्ति में ही मिलता है। यदि प्रामाण्य स्थापना की बात होती तो उनका निर्देश प्रत्येक अंग में भी किया जा सकता था। ऐसा नहीं है। इससे वही कल्पना पुष्ट होती है कि संकलन-काल मे प्रस्तुत आगम के रिक्त स्थानों की पूर्ति तथा प्रासंगिक विषय का परिवर्धन किया गया।
उक्त स्थापना की पुष्टि के लिए एक तर्क और प्रस्तुत किया जा सकता है। आठवें शतक के एक सौ चार सूत्र से 'क्या जीव ज्ञानी अथवा अज्ञानी'—यह प्रकरण शुरू होता है। इस प्रसंग में इसकी पृष्ठभूमि के रूप में सूत्र ६७ से १०३ तक ज्ञान की चर्चा है। चर्चा का प्रारम्भ कर पूरा विवरण देखने के लिए 'रायपसेणइय' सूत्र का निर्देश किया गया है,' श्रुत अज्ञान की विशेष जानकारी के लिए नंदी का निर्देश किया गया है। इस ऐतिहासिक कालक्रम से भ्रम उत्पन्न हुए हैं। कौटिलीय अर्थशास्त्र, माठर और पुराण आदि ग्रन्थों की रचना व्याख्याप्रज्ञप्ति की रचना के बाद और नंदी की रचना से पूर्व हुई थी। इसलिए व्याख्याप्रज्ञप्ति में उनका निर्देश एक भ्रम उत्पन्न करता है। इससे स्पष्ट होता है कि इस प्रकार के सूत्र प्रसंग की स्पष्टता के लिए जोड़े गए थे।
___ पांचवे शतक में प्रमाण के चार प्रकार बतलाए गए हैं—प्रत्यक्ष, अनुमान, औपम्य और आगम। इनकी विशेष जानकारी के लिए अनुयोगद्वार का निर्देश किया गया है। व्याख्याप्रज्ञप्ति की रचना के समय जैन-ज्ञान-मीमांसा में प्रमाण का विकास नहीं हुआ था। इन चार प्रमाणों का समावेश आर्यरक्षित ने अनुयोगद्वार में किया था। व्याख्याप्रज्ञप्ति में इनका संदर्भ बहुत भ्रम पैदा करता है। नंदी की श्रुतअज्ञान की व्याख्या तथा अनुयोगद्वार का प्रमाण-चतुष्टय-ये सब उत्तरकालीन विकास हैं।
दोनों आगमों के पाठों का तुलनात्मक अध्ययन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है
नंदी
व्याख्याप्रज्ञप्ति से किं तं मिच्छसुयं ? मिच्छसुयं-जं इमं अण्णाणिएहिं मिच्छदिहिहिं सच्छंद-बुद्धिमइ- से किं तं सुयअण्णाणे ? सुयअण्णाणे-जं विगप्पियं, तं जहा–१. भारह २. रामायणं ३,४ हंभीमासुरुत्तं ५. कोडिल्लयं ६. इमं अण्णाणिएहि मिच्छादिट्टिएहि सच्छंदबुद्धिसगभद्दियाओ ७. घोडमुहं .. कप्पासियं ६. नागसुहमं १०. कणगसत्तरी ११.वइसेसियं मइ-विग्गपियं, तं जहा–भारहं, रामायणं जहा १२. बुद्धवयणं १३. वेसिय १४. काविलं १५. लोगाययं १६. सद्वितंतं १७. माढरं नंदीए जाव चत्तारि वेदा संगोवंगा । १८. पुराणं १६. वागरणं २०. नाडगादि। अहवा-बावत्तरिकलाओ चत्तारि य वेया संगोवंगा।
आगमसंकलन के समय कुछ मानदण्ड निश्चित किए गए। उनके अनुसार नगर, राजा, चैत्य, तपस्वी, परिव्राजक आदि का एक जैसा वर्णन किया जाता है। इससे ऐतिहासिक समस्याएं उत्पन्न होती हैं।
भगवती के मूल पाठ और संकलनकाल में परिवर्धित पाठ का निर्णय करना यद्यपि सरल कार्य नहीं है, फिर भी सूक्ष्म अध्यवसाय के साथ यह कार्य किया जाए तो असंभव भी नहीं।
डा. शुब्रिग आदि विदेशी विद्वानों ने रचना के आधार पर मूल पाठ और परिवर्धित पाठ का निर्धारण किया है। उनका एक अभिमत
१.राय.सू.७४१-७५४।
२. नंदी,सू.६७।
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