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भूमिका
भगवई
छत्तीसवां शतक
प्रमाण
निर्दिष्ट स्थल
समर्पण सूत्र १. जहा वकंतीए
पण्ण.पद६/६६
इकतालीसवां शतक
१. जहा वक्तीए
पण्ण.पद ६/७०-७२
२. जहा वक्तीए
पण्ण.पद ६ १७०-६८
व्याख्याप्रज्ञप्ति अंगप्रविष्ट श्रुत के अन्तर्गत एक महत्त्वपूर्ण अंग है। उसमें अंग बाह्य आगमों के निर्देश क्यों ? यह प्रश्न सहज ही उत्पन्न होता है। इस प्रश्न को पंडित मालवणिया ने बहुत व्यवस्थित ढंग से उभारा है। उन्होंने लिखा है
"माथुरीवाचनान्तर्गत अंग आगमों में जैसे कि भगवती-व्याख्याप्रज्ञप्ति जैसे बहुमान्य आगम में भी जहाँ भी विवरण की बात हैवहाँ अंगबाह्य उपांगों का औपपातिक, प्रज्ञापना, जीवाजीवाभिगम आदि का आश्रय लिया गया है। यदि ये विषय मौलिक रूप से अंग के होते तो उन अंगबाह्यों में ही अंगनिर्देश आवश्यक था। ऐसा न करके अंग में उपांग का निर्देश यह सूचित करता है कि तविषयकी मौलिक विचारणा उपांगों में हुई है और उपांगों से ही अंग में जोड़ी गई है।
"यह भी कह देना आवश्यक है कि ऐसा क्यों किया गया। जैन-परम्परा में यह एक धारणा पक्की हो गयी है कि भगवान महावीर ने जो कुछ उपदेश दिया वह गणधरों ने अंग में ग्रथित किया। अर्थात् अंगग्रन्थ गणधरकृत हैं और तदितर स्थविरकृत हैं। अत एव प्रामाण्य की दृष्टि से प्रथम स्थान अंग को ही मिला है। अत एव नयी बात को भी यदि प्रामाण्य अर्पित करना हो तो उसे भी गणधरकृत बताना आवश्यक था। इसी कारण से उपांग की चर्चा को भी अंगांतर्गत कर लिया गया है। यह तो प्रथम भूमिका की बात हुई, किन्तु इतने से संतोष नहीं हुआ तो बाद में दूसरी भूमिका में यह परम्परा भी चलाई गई कि अंगबाह्य भी गणधरकृत हैं और उसे पुराण तक बढाया गया। अर्थात् जो कुछ जैन नाम से चर्चा हो उस सबको भगवान् महावीर और उनके गणधर के साथ जोड़ने की यह प्रवृत्ति इसलिए आवश्यक थी कि यदि उसका संबंध भगवान् और उनके गणधरों के साथ जोड़ा जाता है तो फिर उसके प्रामाण्य के विषय में किसी को संदेह करने का अवकाश मिलता नहीं है। इस प्रकार चारों अनुयोगों का मूल भगवान महावीर के उपदेश में ही है, यह एक मान्यता दृढ हुई।''
इस प्रश्न के कुछ पहलुओं पर विमर्श अपेक्षित है। महावीरकालीन साधुओं का अध्ययन ग्यारह अंगों या द्वादशांगी तक सीमित है। उसमें अंगबाह्य श्रुत का कोई उल्लेख नहीं है। महावीर के निर्वाण के पश्चात् उत्तरवर्ती काल में अनेक आगम रचे गए। उन्हें अंगबाह्य श्रुत माना गया। यदि वे आगम स्थविरों द्वारा रचित होते तो उन्हें आगम की कोटि में स्थान नहीं मिलता। आगम के प्रामाण्य की एक निश्चित मर्यादा थी। केवलज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चतुर्दशपूर्वी और दशपूर्वी द्वारा रचित ग्रन्थ ही आगम की कोटि में मान्य हो सकता था। नंदी सूत्र के अनुसार चतुर्दशपूर्वी और अभिन्नदशपूर्वी नियमतः सम्यग् श्रुत होते हैं। उससे नीचे नवपूर्वी आदि के लिए वह नियम नहीं है। इसका तात्पर्य यह है कि चतुर्दशपूर्वी और दशपूर्वी नियमतः सम्यग्दृष्टि सम्पन्न होते हैं। नवपूर्वी आदि सम्यगदृष्टि और मिथ्यादृष्टि-दोनों हो सकते हैं।'
अंगबाह्य आगम स्थविरों द्वारा रचित हैं। सभी स्थविर चतुर्दशपूर्वी और दशपूर्वी नहीं थे। प्रामाण्य की कसौटी के आधार पर उन्हें आगम की कोटि में स्वीकार नहीं किया जा सकता। यह एक समस्या थी। इसका समाधान किया गया जो आगमपुरुष नहीं है उसके वचन का प्रामाण्य नहीं हो सकता, किन्तु यदि वह अंग-सूत्रों के आधार पर रचना करता है तो उसका वचन प्रमाण हो सकता है। देवर्धिगणी ने आगम वाचना के समय इसी आधार पर स्थविरकृत ग्रन्थों को आगम की कोटि में परिगणित किया। अंगबाह्य श्रुत उत्तरकालीन रचना है, इसलिए वह व्यवस्थित रूप में उपलब्ध है। उसका कोई भी हिस्सा विच्छिन्न नहीं है, विच्छिन्नता की बात अंगों के साथ जुड़ी हुई है, इसलिए वे अंगबाह्य श्रुत की भांति व्यवस्थित नहीं हैं। प्रस्तुत आगम में 'चलमाणे चलिए' यह पहला प्रश्न है।" इसके बाद ही नैरयिकों की कितनी स्थिति है और वे कितने काल से श्वासोच्छ्वास लेते हैं-ये प्रश्न आते हैं और यहीं से प्रज्ञापना को देखने का
१. जैन दर्शन का आदिकाल, पृ.१३ । २. व्यवहारभाष्य और भगवतीवृत्ति में नवपूर्वी को भी आगम माना गया है। विशेष जानकारी के लिए देखें-दशबैकालिकः एक समीक्षात्मक अध्य-
यन,पृ.५। ३. नन्दी चू.सू.६६,पृ.४८,४६। ४.११११।
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