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________________ श.२: उ.१: सू.८,६ २०२ भगवई ८. वाउयाए णं भंते ! वाउयाए चेव आणमंति वा ? पाणमंति वा ? ऊससंति वा ? नीससंति वा? हंता गोयमा ! वाउयाए णं वाउयाए चेव आणमंति वा, पाणमंति वा, ऊससंति वा, नीससंति वा॥ वायुकायः भदन्त ! वायुकायान् चैव आनन्ति वा ? अपानन्ति वा ? उच्छ्वसन्ति वा ? निःश्वसन्ति वा? हन्त गौतम ! वायुकायः वायुकायांश्चैव । आनन्ति वा, अपानन्ति वा, उच्छ्वसन्ति वा, निःश्वसन्ति वा। ८. 'भंते ! वायुकायिक जीव क्या वायुकाय का ही आन, अपान तथा उच्छ्वास और निःश्वास करते हैं ? हां, गौतम ! वायुकायिक जीव वायुकाय का ही आन, अपान तथा उच्छ्वास और निःश्वास करते भाष्य १. सूत्र सहज ही प्रश्न उपस्थित होता है-वे जो श्वास लेते हैं, वह १. स्थावरकाय का चौथा काय, वायु के जीवों का निकाय । वायुकाय है। क्या वायुकाय भी वायुकाय का श्वास लेता है ? यदि २. उच्छ्वास और निःश्वास। वह वायुकाय का श्वास लेता है तो अनवस्था नामक तर्क-दोष आ वृत्तिकार के अनुसार वायुकाय सचेतन है और श्वास-वायु जाएगा। एक वायुकाय का जीव दूसरे वायुकाय का श्वास लेगा, दूसरा तीसरे का, इस श्रृंखला में अन्तिम वायुकाय का जीव किस अचेतन है।' पुद्गल की आठ वर्गणाओं में श्वासोच्छ्वास-वर्गणा का स्वतन्त्र अस्तित्व है। उसका वायुकाय के जीवों से कोई संबंध नहीं का श्वास लेगा? इस प्रकार श्वास लेने की व्यवस्था गड़बड़ा जाएगी। है। वायुकाय के जीव श्वास में श्वास-वर्गणा के पुद्गलों का ग्रहण भगवान ने गौतम के प्रश्न के उत्तर में बतलाया-वायुकाय करते हैं, किसी दूसरे वायुकाय-जीव का ग्रहण नहीं करते; इसलिए वायुकाय का श्वास लेता है। यहां 'अनवस्था' दोष का कोई प्रसंग नहीं है। श्वास-वर्गणा के सूत्र की भाषा से जो प्रश्न उपजा है वह भाषा के स्पष्टीकरण । पुद्गलों के सूक्ष्म होने के कारण उन्हें वायु कहा जाता है, किन्तु से अपने आप समाहित हो जाता है। वास्तव में वे वायुकाय के जीव नहीं हैं। 'वायुकाय' शब्द का प्रयोग दो अर्थों में मिलता हैवाउकायस्स कायद्विइ-पदं वायुकायस्स कायस्थिति-पदम् वायुकाय की कायस्थिति-पद ६. वाउयाए णं भंते ! वाउयाए चेव वायुकायः भदन्त ! वायुकाये चैव अनेक- ६. 'भंते ! क्या वायुकायिक जीव वायुकाय में ही अणेगसयसहस्सखुत्तो उद्दाइत्ता-उद्दाइत्ता शतसहस्रकृत्वः अवद्राय-अवद्राय तत्रैव अनेक लाख बार मर-मर कर वहीं पुनः पुनः उत्पन्न तत्येव भुजो-भुजो पचायाति? भूयो-भूयः प्रत्यायाति ? होता है ? हंता गोयमा ! वाउयाए णं वाउयाए चेव हन्त गौतम ! वायुकायः वायुकाये चैव हां, गौतम ! वायुकायिक जीव वायुकाय में ही अणेगसयसहस्सखुत्तो उद्दाइत्ता-उद्दाइत्ता अनेकशतसहस्रकृत्वः अवद्राय-अवद्राय तत्रैव अनेक लाख बार मर-मर कर वहीं पुनः-पुनः उत्पन्न तत्येव भुजो-भुजो पचायाति ॥ भूयो-भूयः प्रत्यायाति। होता है। भाष्य १. सूत्र ६ प्रस्तत प्रकरण में वायकाय की कायस्थिति निरूपित है। (उसी काय में निरन्तर जन्म लेने की कालावधि) जघन्यतः अन्तर्महत शिति की काला न और उत्कर्षतः असंख्येय काल-असंख्य उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीमुहर्त और उत्कर्षतः तीन हजार वर्ष की है। उसकी कायस्थिति परिमाण है। १. भ.वृ.२१७, अथैकेन्द्रियाणामुच्छ्वासादिभावादुच्छ्वासादेश्च वायुरूपत्वात् संभाव्यौदारिकवैक्रियशरीररूपः तदीयपुद्गलानामानप्राणसज्ञितानामौदारिककिं वायुकायिकानामप्युच्छ्वासादिना वायुनैव भवितव्यमुतान्येन केनापि पृथि- वैक्रियशरीरपुद्गलेभ्योऽनन्तगुणप्रदेशत्वेन सूक्ष्मतर्यंतच्छरीरव्यपदेश्यत्वात्, व्यादीनामिव तद्विलक्षणेन ? इत्याशङ्कायां प्रश्नयनाह–'वाउयाए' णमित्यादि, तथा च प्रत्युच्छ्वासादीनामभाव इति नानवस्था। अथोच्छ्वासस्यापि वायुत्वादन्येनोच्छ्वासवायुना भाव्यं तस्याप्यन्येनैवमन- २. पण्ण.४७६ | वस्था। नैवमचेतनत्वात्तस्य, किं च योऽयमुच्छ्वासवायुः स वायुत्वेपि न वायु- ३. वही,१८०२६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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