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भगवई
२०१
श.२: उ.१: सू.२-७
भाष्य
१. सूत्र २-७
जैन दर्शन में इन्द्रिय के आधार पर जीवों का वर्गीकरण किया गया है। उनमें एकेन्द्रिय जीव अव्यक्त हैं। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय जीव उनकी अपेक्षा व्यक्त हैं; एकेन्द्रिय जीव के पांच प्रकार हैं-पृथ्वीकायिक अपकायिक, तेजस्कायिक वायुकायिक और वनस्पतिकायिक।
जीवन का मुख्य लक्षण है श्वास। जो श्वास लेता है, उसमें जीवन है और जो श्वास नहीं लेता है, उसमें जीवन नहीं है यह एक पहचान बनी हुई है। तब यह प्रश्न उठा-यदि एकेन्द्रिय जीव हैं तो उनमें श्वास होना चाहिए। एकेन्द्रिय जीव श्वास लेते हैं-वह विषय ज्ञात नहीं है। क्या वे सचमुच श्वास लेते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान ने कहा-एकेन्द्रिय जीव भी श्वास लेते हैं। बनस्पति का जीवत्व प्राचीन साहित्य में भी यत्र-तत्र चर्चित है, किन्तु पृथ्वी, पानी, अग्नि और वायु का जीवत्व कहीं भी सम्मत नहीं है। विज्ञान की दृष्टि से भी वनस्पति का जीवत्व प्रमाणित है। पृथ्वी आदि के जीवत्व के विषय में वह मौन है। वनस्पति के जीव श्वास लेते हैं-इसकी स्वीकृति वैज्ञानिक जगत् में भी है। शेष पृथ्वी आदि का जीवत्व भी सम्मत नहीं है, फिर श्वास लेने का प्रश्न ही नहीं उठता।
भगवान महावीर ने एकेन्द्रिय जीवों द्वारा श्वास लेने के सिद्धान्त की स्थापना ही नहीं की है, किन्तु उसका पूरा विवरण दिया है। श्वास के पुद्गलों की एक स्वतन्त्र वर्गणा है। उसके पुद्गल ही श्वास के काम में आते हैं। उनका स्वरूप सत्रकार ने निरूपित किया है।
शब्द-विमर्श
आन, अपान तथा उच्छवास और निःश्वास-द्रष्टव्य भ.१११४ का भाष्य।
द्रव्यतः क्षेत्रतः, कालतः भावतः-वस्तु को जानने के लिए अनेक अपेक्षाएं हो सकती हैं। अपेक्षा-चतुष्टयी (द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव) उनका न्यूनतम वर्गीकरण है। इनको जाने बिना वस्तु-स्वरूप का सम्यग बोध नहीं होता। क्षेत्र (space) और काल (time)-इन दो आयामों के बिना वस्तु की व्याख्या नहीं हो सकती-यह वैज्ञानिक दृष्टिकोण है। भगवान् महावीर के अनुसार क्षेत्र और काल की भांति द्रव्य (substance) और भाव (mode)भी वस्तु की व्याख्या के लिए अत्यन्त आवश्यक हैं। प्रस्तुत आगम में इस अपेक्षा-चतुष्टयी का बार-बार उपयोग किया गया है।
स्थान-मार्गणा-स्थान का अर्थ है-जाति और मार्गणा का अर्थ है-गवेषणा या जिज्ञासा।
विधान-मार्गणा-विधान का अर्थ है प्रकार।'
व्याघात और निफ्धात त्रस जीव त्रसनाड़ी के अन्तर्गत होते है; इसलिए वे छहों दिशाओ में श्वासोच्छ्वास लेते हैं। एकेन्द्रिय जीव लोकान्त के कोणों में भी होते है। इसलिए वे तीन, चार अथवा पांच दिशाओं में भी श्वास लेते हैं। यह शेष दिशाओं का व्याघात कोण के कारण होता है। व्याघात और निर्व्याघात-दिशा की स्थापना इस प्रकार है:
(3)
(1)
५ दिशाओं से
३ दिशाओं से
(2)
४ दिशाओं से
६ दिशाओं से
१. घन के एक कोण पर होने से नीची, पूर्व और उत्तर दिशाओं में।
२. घनकी ऊपर की भुजा के बीच में होने पर नीची, पूर्व पश्चिम और उत्तर दिशाओं में।
३. घन के ऊपर के तल के मध्य में होने पर नीची, पूर्व पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशाओं में।
४. घन के बीच में कहीं भी होने पर छहों दिशाओं में।
३. भ.वृ.२१७।
१. त.रा.वा.१७-विधानं प्रकारः। २. भ.वृ.२।७–शेषा नारकादित्रसाः षड्दिशमानमन्ति, तेषां हि त्रसनाड्यन्त
भूतत्वात् षड्दिशमुच्छ्वासादिपुद्गलग्रहोऽस्त्येवेति ।
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