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अट्ठमो उद्देसो : आठवां उद्देशक
संस्कृत छाया
हिन्दी अनुवाद
चमरसभा-पदं
चमरसभा-पदम्
चमरसभा-पद
११८. कहि णं भंते ! चमरस्स असुरिंदस्स कुत्र भदन्त ! चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुर- ११८. 'भन्ते ! असुरेन्द्र असुरराज चमर की सुधर्मा
असुरकुमाररण्णो सभा सुहम्मा पण्णत्ता? कुमारराजस्य सभा सुधर्मा प्रज्ञप्ता ? सभा कहां प्रज्ञप्त है ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्बयस्स गौतम ! जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य गौतम ! जम्बूद्वीप द्वीप में मेरूपर्वत से दक्षिणभाग दाहिणे णं तिरियमसंखेजे दीवसमुद्दे वीई- दक्षिणे तिर्यग् असंख्येयान् द्वीपसमुद्रान् व्यति- में तिरछे असंख्य द्वीपसमुद्रों के पार चले जाने पर वइत्ता अरुणवरस्स दीवस्स बाहिरिल्लाओ व्रज्य अरुणवरस्य द्वीपस्य बाह्याद् वेदिका- अरुणवर द्वीप है। उसकी बाहरी वेदिका के आगे वेइयंताओ अरुणोदयं समुदं बायालीसं न्ताद् अरुणोदयं समुद्रं द्विचत्वारिंशद् अरुणोदय समुद्र है। उसका बयालीस हजार जोयणसहस्साइं ओगाहित्ता, एत्थ णं योजनसहस्राणि अवगाह्य, अत्र चमरस्य योजन अवगाहन करने पर असुरेन्द्र असुरराज चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो असुरेन्द्रस्य असुरकुमारराजस्य तिगिच्छिकूटः चमर का तिगिच्छिकूट नामक उत्पात-पर्वत प्रज्ञप्त तिगिछिकूड़े नाम उप्यायपव्वए पण्णत्ते नाम उत्पातपर्वतः प्रज्ञप्तः सप्तदशएकविंश- है-उसकी ऊंचाई सतरह सौ इक्कीस योजन है।
-सत्तरसएकवीसे जोयणसए उड्ढे उच्च- तिः योजनशतानि ऊर्ध्वम् उच्चत्वेन, उसका उद्वेध (गहराई) चार सौ तीस योजन तेणं चत्तारितीसे जोयणसए कोसं च उब्वे- चतुस्त्रिंशद् योजनशतानि क्रोशं च उद्वेधेन, और एक कोश है। उसका मूल में विष्कम्भ हेणं मूले दसबावीसे जोयणसए विक्खं- मूले दशद्वाविंशतिः योजनशतानि विष्कम्भेण, (चौड़ाई) एक हजार बाईस योजन है, मध्य में भेणं, मज्झे चत्तारि चउवीसे जोयणसए मध्ये चतुश्चतुर्विंशतिः योजनशतानि । उसका विष्कम्भ चार सौ चौबीस योजन है और विक्खंभेणं, उवरिं सत्ततेवीसे जोयणसए विष्कम्भेण, उपरि सप्तत्रयोविंशतिः योजन- ऊपर का विष्कम्भ सात सौ तेईस योजन है। विक्खंभेणं, मूले तिण्णि जोयणसहस्साई, शतानि विष्कम्भेण, मूले त्रीणि योजन- उसकी मूल में परिधि तीन हजार दो सौ बत्तीस दोण्णि य बत्तीसुत्तरे जोयणसए किंचि विसे- सहस्राणि, द्वे च द्वात्रिंशदुत्तरे योजनशते कुछ कम योजन है, मध्य में परिधि एक हजार सूणे परिक्खेवेणं, मज्झे एगं जोयणसहस्सं किंचिद्विशेषोनं परिक्षेपेण, मध्ये एकं तीन सौ इकतालीस कुछ कम योजन है, ऊपर तिण्णि य इगयाले जोयणसए किंचि योजनसहस्रं त्रीणि च एकचत्वारिंशत् योजन- की परिधि दो हजार दो सौ छयांसी योजन से विसेसूणे परिक्खेवेणं, उवर दोण्णि य शतानि किंचिद्विशेषोनं परिक्षेपेण, उपरि द्वे कुछ अधिक है। वह मूल में विस्तृत, मध्य में जोयणसहस्साई, दोण्णि य छलसीए जोय- ___च योजनसहने, द्वे च षडशीतिः योजनशते संकड़ा और ऊपर विशाल है। उसकी आकृति णसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं, मूले किंचिदविशेषाधिकः परिक्षेपेण, मूले विस्तृतः, श्रेष्ठ वज्र जैसी है, वह महामुकुन्द नामक वाद्य के वित्थडे, मज्झे संखित्ते, उप्पिं विसाले, मध्ये संक्षिप्तः, उपरि विशालः, वरवन- संस्थान से संस्थित है, सर्वरलमय है। वह स्वच्छ, वरवइरविग्गहिए महामउंदसंठाणसंठिए विग्रहिकः, महामुकुन्दसंस्थानसंस्थितः सर्व- सूक्ष्म, चिकना, स्निग्ध, घुटा हुआ, प्रमार्जित, सबरयणामए अच्छे सण्हे लण्हे घटे मढे । रत्नमयः अच्छः श्लक्ष्णः श्लक्ष्णः घृष्टः मृष्टः रजरहित, निर्मल, निष्पङ्क, निरावरण दीप्ति वाला निरए निम्मले निष्पके निकंकडच्छाए सप्पभे । नीरजः निर्मलः निष्पङ्कः निष्कङ्कटच्छायः तथा प्रभा, मरीचि और उद्योतयुक्त है। द्रष्टा के समिरिईए सउज्जोए पासादीए दरिसणिज्जे संप्रभः समरीचिकः सोद्योतः प्रासादीयः चित्त को प्रसन्न करने वाला, दर्शनीय, कमनीय, अभिरूवे पडिरूवे। से णं एगाए पउम- दर्शनीयः अभिरूपः प्रतिरूपः। स एकया और रमणीय है। वह एक पद्मवर वेदिका और वरवेइयाए, वणसंडेण य सब्बओ समंता पद्मवरवेदिकया, वनषण्डेन च सर्वतः । वृक्षनिकुंज से चारों ओर से घिरा हुआ है। संपरिक्खित्ते। पउमवरवेइयाए वणसंडस्स समन्तात् संपरिक्षिप्तः। पद्मवरवेदिकायाः पद्मवरवेदिका और वृक्षनिकुञ्जों का वर्णन । य वण्णओ।
वनषण्डस्य च वर्णकः।
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