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श. १: उ.१: सू. १-३
स्मरण ही मंगल है।
प्राचीन आगम - साहित्य में ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगल - विन्यास करने की पद्धति नहीं थी । उत्तरकाल में इस पद्धति का विकास हुआ । वृत्तिकार आचार्य अभयदेवसूरि का अभिमत है कि आगम स्वयं एक मंगल है। उसमें दूसरे दूसरे मंगलों का समावेश करने का कोई औचित्य नहीं बनता। इससे अनवस्था दोष की प्राप्ति होती है। फिर भी शिष्य की मति को मंगलमय बनाने तथा शिष्ट परम्परा के निर्वाह के लिए प्रस्तुत सूत्र में ऐसा प्रयत्न किया गया। उन्होंने ऐतिहासिक दृष्टि प्रस्तुत नहीं की, केवल प्राचीन परम्परा की ओर ध्यान अवश्य आकर्षित किया है। उन्होंने लिखा है " पूर्व वृत्तिकार ने पूर्वव्याख्यात नमस्कार आदि ग्रन्थ की व्याख्या नहीं की। उनके सामने इसका कोई कारण रहा है। यह कारण क्या रहा होगा, इस पर उन्होंने कोई प्रकाश नहीं डाला। हमारे अभिमत से इसका कारण यह है कि मंगल सूत्र रचनाकालिक नहीं हैं, वे उत्तरकाल में जुड़े हैं। इसीलिए चूर्णि और मूलवृत्ति में वे व्याख्यात नहीं हैं ।
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प्रस्तुत सूत्र के पन्द्रहवें शतक के प्रारम्भ में भी मंगल-वाक्य उपलब्ध होता है— नमो सुयदेवयाए भगवईए। अभयदेवसूरि ने इसकी व्याख्या नहीं की है, इससे लगता है कि प्रारम्भ के मंगल-वाक्य, लिपिकारों या अन्य किसी आचार्य ने, वृत्ति की रचना से पूर्व जोड़ दिये थे और मध्यवर्ती-मंगल वृत्ति की रचना के बाद जुड़ा । पन्द्रहवें शतक का पाठ विनकारक माना जाता था, इसलिए इस अध्ययन के साथ मंगलवाक्य जोड़ा गया, यह बहुत संभव है। मंगलवाक्य के प्रक्षिप्त होने की बात अन्य आगमों से भी पुष्ट होती है ।
दशाश्रुतस्कंध की वृत्ति में मंगल-वाक्य के रूप में नमस्कार मंत्र व्याख्यात है, किन्तु चूर्णि में वह व्याख्यात नहीं है। इससे स्पष्ट है कि चूर्णि के रचनाकाल में वह प्रतियों में उपलब्ध नहीं था और वृत्ति की रचना से पूर्व वह उनमें जुड़ गया था । पजोसणाकप्पो ( कल्पसूत्र ) दसाओ का आठवां अध्ययन है। उसके प्रारम्भ में भी नमस्कार - मन्त्र लिखा हुआ मिलता है । आगम - अनुसंधाता मुनि पुण्यविजयजी ने इसे प्रक्षिप्त माना है । उनके अनुसार प्राचीनतम ताइपत्रीय प्रतियों में यह उपलब्ध नहीं है और वृत्ति में भी व्याख्यात नहीं है । यह अष्टम अध्ययन होने के कारण इसमें मध्य मंगल भी नहीं हो सकता । इसलिए यह प्रक्षिप्त है। पण्णवणा के प्रारंभ में भी नमस्कार मंत्र लिखा हुआ है, किन्तु हरिभद्रसूरि और मलयगिरि – इन दोनों व्याख्याकारों के द्वारा यह व्याख्यात नहीं है।
पण्णवणा के रचनाकार श्री श्यामार्य ने मंगल- वाक्य पूर्वक रचना १. भ. वृ. १/२ - ननु अधिकृतशास्त्रस्यैव मङ्गलत्वात् किं मङ्गलेन ? अनवस्थादिदोषप्राप्तेः । सत्यं, किन्तु शिष्यमतिमंगलपरिग्रहार्थं मंगलोपादानं शिष्टसमयपरिपालनाय चेत्युक्तमेवेति ।
२. वही, १ | ४ – अयं च प्राग् व्याख्यातो नमस्कारादिको ग्रन्थो वृत्तिकृतान व्याख्यातः कुतोऽपि कारणादिति ।
३. कल्पसूत्र (मुनि पुण्यविजयजी द्वारा संपादित ) पृ. ३- कल्पसूत्रारम्भे नैतद् नमस्कारसूत्ररूपं सूत्रं भूम्ना प्राचीनतमेषु ताडपत्रीयादर्शेषु दृश्यते, नापि टीकाकृदादिभिरेतदादृतं व्याख्यातं वा, तथा चास्य कल्पसूत्रस्य दशाश्रुतस्कंधस्याष्टमाध्ययनत्वान्न मध्ये मंगलरूपत्वेनापि एतत्सूत्रं संगतमिति
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भगवई
का प्रारम्भ किया है। इससे ज्ञात होता है कि ई. पू. पहली शताब्दी के आसपास आगम-रचना से पूर्व मंगल वाक्य लिखने की पद्धति प्रचलित हो गयी । प्रज्ञापनाकार का मंगल-वाक्य उनके द्वारा रचित है। इसे 'निबद्ध-मंगल' कहा जाता है। दूसरों के द्वारा रचे हुए मंगल-वाक्य उद्धृत करने को 'अनिबद्ध-मंगल' कहा जाता है। प्रति-लेखकों ने अपने प्रति लेखन में कहीं कहीं 'अनिबद्ध - मंगल' का प्रयोग किया है। इसीलिए मंगल-वाक्य लिखने की परम्परा का सही समय खोज निकालना कुछ जटिल हो गया ।
प्रस्तुत आगम पांचवां अंग है। उपलब्ध आयारो आदि ग्यारह अंगों में प्रस्तुत आगम को छोड़कर किसी भी अंग-सूत्र के प्रारम्भ में नमस्कार - मंगल उपलब्ध नहीं है:
सुयं मे आउ ! तेणं भगवया एवमक्खायं - (आयारो, 919) बुझेज तिउटेजा, बंधणं परिजाणिया । (सूयगडो, 91919) सुयं मे आउ ! तेणं भगवया एवमक्खायं ( ठाणं, १19)
आउ ! ते भगवया एवमक्खायं - (समबाओ, १1१) ते काले तेणं समएणं चंपा नामं नयरी होत्या (नायाधम्मकहाओ, 91919)
तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं नयरी - ( उवासगदसाओ, १19) तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं नयरी (अंतगडदसाओ, 919)
काणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे (अणुत्तरोववाइयदसाओ, 919) जंबू ! इणमो अण्हय-संवर-विणिच्छयं पवयणस्स निस्संदं (पण्हावागरणाई, 919)
(विवागसुयं, 919)
तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं नयरी होत्या यारो आदि अंगों के प्रारम्भिक सूत्रों
का अध्ययन करने पर यह प्रश्न उपस्थित होता है कि केवल प्रस्तुत अंग के प्रारम्भ में ही नमस्कार -मंगल का विन्यास क्यों ? इसका उत्तर पाना कठिन नहीं है । लगता है, रचनाकाल में प्रस्तुत आगम का प्रारम्भ भी 'तेणं काणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे होत्था' इस वाक्य से ही था, किन्तु लिपिकारों द्वारा लिखित नमस्कार - मंगल-सूत्र मूल के साथ जुड़ गये और उन्हें मौलिक अंग मान लिया गया।
२. अर्हतों को नमस्कार.... सब साधुओं को नमस्कार नमस्कार महामंत्र के पाट-भेद
नमस्कार महामंत्र का बहुत प्रचलित पाठ यह है—णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए
प्रक्षिप्तमेवैतत् सूत्रमिति ।
४. पण्ण पद १, गा. १
ववगयजरमरणभए, सिद्धे अभिवंदिऊण तिविहेणं । वंदामि जिणवरिंद, तेलोक्कगुरुं महावीरं ॥
५. ष. खं. धवला, पु. १, खं. १, भा. १, सू. १, पृ. ४१ - तच्च मंगलं दुविहं णिवद्धमणिबद्धमिदि । तत्थ णिबद्धं णाम, जो सुत्तस्सादीए सुत्तकत्तारेण णिबद्धदेवदाणमोक्कारो तं णिवद्धमंगलं । जो सुत्तस्सादीए सत्तारेण कयदेवदाणमोक्कारो तमणिबद्धमंगलं ।
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