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पढमं सतं : पहला शतक
पढमो उद्देसो : पहला उद्देशक
मूल
संस्कृत छाया मंगल-पदम्
मंगल-पदं
१. नमो अरहंताणं,
नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं, नमो उवज्झायाणं, नमो सम्बसाहूणं॥
नमः अर्हद्भ्यः नमः सिद्धेभ्यः नमः आचार्येभ्यः नमः उपाध्यायेभ्यः नमः सर्वसाधुभ्यः।
हिन्दी अनुवाद मंगल पद १. अर्हतों को नमस्कार सिद्धों को नमस्कार आचार्यों को नमस्कार उपाध्यायों को नमस्कार सब साधुओं को नमस्कार । २
२. नमो बंभीए लिवीए॥
नमो ब्राह्मयै लिप्यै।
२. ब्राह्मी लिपि को नमस्कार ।३
संगहणी गाहा
संग्रहणी गाथा रायगिह १ चलण २ दुक्खे,
राजगृहे चलनः दुःखः, ३ कंखपओसे य ४ पगइ ५ पुढवीओ। कांक्षाप्रदोषश्च प्रकृतिः पृथिव्यः । ६ जावंते ७ नेरइए,
यावान् नैरयिकः, बाले ६गुरुए य१०चलणाओ ॥१॥ बालः गुरुकश्च चलनाः ।।
संग्रहणी गाथा प्रथम शतक में दस उद्देशक हैं—राजगृह में प्रश्नोत्तर-१ चलमान चलित २ दुःख ३ कांक्षाप्रदोष ४ कर्म-प्रकृति ५ पृथ्वियां ६ यावान् ७ नैरयिक ८ बाल ६ गुरुक १० चलमान अचलित।
३. नमो सुयस्स ॥
नमः श्रुताय।
३. श्रुत को नमस्कार।
भाष्य
१.मंगल-पद
प्रस्तुत आगम मंगल-पद के साथ प्रारम्भ होता है। इसमें तीन मंगल-सूत्र हैं। प्रथम मंगल में अर्हत्, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और मुनि को नमस्कार किया गया है और दूसरे मंगल में ब्राह्मी लिपि को। इसके बाद संग्रहणी गाथा है और फिर तीसरे मंगल में श्रुत को नमस्कार किया गया है। मंगल का प्रयोजन है-इष्ट अर्थ की प्राप्ति।' निर्विघ्न रूप से शास्त्र या लौकिक कार्यों की परिसमाप्ति तथा वांछित अभिसिद्धि के लिए जो किया जाता है, वह मंगल है; इसीलिए
शास्त्र के आदि, मध्य तथा अंत में मंगल करने का विधान किया गया है। आदि मंगल से शत्रुओं के द्वारा आने वाले विघ्नों का विघात, मध्य मंगल से बिना किसी विक्षेप के शास्त्र की सम्पन्नता तथा अंत मंगल से आयुष्मान् श्रोता की उपलब्धि होती है।
मुख्य रूप में मंगल दो प्रकार का होता है-द्रव्य मंगल और भाव मंगल। लौकिक कार्यों में अक्षत, कुंकुम, दही, नारियल आदि पदार्थ मंगल माने जाते हैं। लोकोत्तर कार्यों में अपने इष्ट देवता का
१.प्रज्ञा.वृ.प.१
मंगलं चैव शास्त्रादौ, वाच्यमिष्टार्थसिद्धये ॥ २. (क) वि.भा.गा. १३,१४
तं मंगलमाईए मज्झे, पजंतए य सत्थस्स | पढम सत्थत्थाऽविग्धपारगमणाय णिद्दिटुं ॥
तस्सेव य थेज्जत्थं, मज्झिमयं अन्तिमं पि तस्सेव ।
अव्वोच्छित्तिणिमित्तं, सिस्सपसिस्सादिवंसस्स ॥ (ख) प्रमाण-मीमांसा,१1१1१-मंगले च सति परिपन्थिविघ्नविघाताद् अक्षेपेण शास्त्रसिद्धिः आयुष्पच्छोतृकता च भवति ।
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