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________________ भगवई श.१:आमुख "मनुष्य जैसे पुराने वस्त्रों को छोड़ नए वस्त्रों को धारण करता है, वैसे ही देही (जीव) पुराने शरीर को छोड़ नए शरीर को धारण करता है।" प्रस्तुत शतक में एक जीवन से दूसरे जीवन के मध्य होनेवाली गति (अंतराल गति) का विवेचन मिलता है।' पुनर्जन्म की आयु का संवेदन कब होता है ? अंतराल गति में जीव इन्द्रिय-ज्ञान और शरीर से युक्त होता है या वियुक्त ? --इन प्रश्नों पर विचार किया गया है। पुनर्जन्म से संबंध रखने वाले अनेक सूत्र हैं।' गर्भ-विद्या के सूत्रों की तुलना आयुर्वेद के मौलिक ग्रन्थ चरक और सुश्रुत से होती है। गर्भस्थ शिशु वैक्रिय लब्धि के द्वारा सेना का निर्माण कर युद्ध करता है और वह मरकर नरक में उत्पन्न हो जाता है। कोई गर्भस्थ शिशु धार्मिक प्रवचन सुन उसमें लीन हो जाता है, गर्भ-अवस्था में उसकी मृत्यु होती है और वह स्वर्ग में उत्पन्न हो जाता है।" जैन दर्शन के विकास में जीवविज्ञान (Biology) का मुख्य आधार रहा है। पुद्गल का विवेचन जीव के सहायक द्रव्य के रूप में हुआ है। जीव-विकास का चरम बिंदु है मोक्ष । जैनों का आचारशास्त्र जीव और मोक्ष के अन्तराल में विकसित हुआ है। प्रस्तुत शतक में आचार के अनेक पक्ष चर्चित हैं। क्रिया से अन्तक्रिया तक उनकी यात्रा करना बहुत महत्त्वपूर्ण है। प्रस्तुत शतक के १० उद्देशक हैं। उनमें विषय की क्रमबद्धता नहीं है। एक विषय से संबंध रखने वाले सूत्र अनेक उद्देशकों में उपलब्ध हैं। इसका हेतु यह है कि भगवती में प्रश्नों और उत्तरों का संग्रह है। कर्म के विषय में एक प्रश्न पहले पूछा गया और दूसरा प्रश्न कुछ समय के अन्तराल से पूछा गया। उनको उसी रूप में रखा गया है। सूत्रकार ने संकलन-काल में विषय के वर्गीकरण को प्रधानता नहीं दी। प्रस्तुत शतक को पढते समय इस तथ्य की स्मृति रखना आवश्यक है। १. सूत्र ३३५३३८। २. सूत्र ३३६ ३. सूत्र ३४०-३४३। ४. सूत्र ३६४३,४८-५०,११३-११६,३१८३३४। ५. द्रष्टव्य सूत्र ३४०-३४६ का भाष्य । ६. सूत्र ३५३,३५४। ७. सूत्र ३३५३५६। ६. द्रष्टव्य सूत्र क्रिया—२७६-२८६,३६४-३७२,४३४, ४३५,४४४, ४४५ आरम्भ अनारम्भ-३३-३८ श्रद्धा-१३१,१३२ लाघक-४१७,४१८ सामायिक-४२३-४३३ साधु और मोक्ष-४४-४७,२००-२०६ अंतकर-४१६ अंतक्रिया–११२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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