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________________ आमुख प्रस्तुत है भगवती का पहला शतक । इसमें दर्शनशास्त्र, आचारशास्त्र, जीवविद्या, लोकविद्या, सृष्टिविद्या, परामनोविज्ञान आदि अनेक विषयों का गंभीर परामर्श हुआ है। जैन दर्शन के अनुसार सृष्टि का विकास जीव और पुद्गल के योग से हुआ है। मूल तत्त्व दो हैं— जीव और अजीव । उनका अस्तित्व त्रैकालिक है, अनादि है। प्रत्येक अस्तित्व में उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य की त्रिपदी का समन्वय है। ध्रौव्यांश अनादि है। उत्पाद और व्यय परिणमन के अंग हैं। यह परिणमन ही सृष्टि का मूल बीज है। रोहक के प्रश्न के उत्तर में भगवान् महावीर ने कहा-रोहक ! जीव और अजीव-ये हैं । उनमें पहले पीछे का क्रम नहीं है। पहले जीव और पश्चाद अजीव-यह नहीं है। पहले अजीव और पश्चाद जीव-यह भी नहीं है। दोनों में पौर्वापर्य नहीं है। यह सिद्धान्त वेदान्त के चैतन्याद्वैत से भिन्न है। उसके अनुसार ब्रह्म या चेतन से जड़ पदार्थ की उत्पत्ति होती है। इस सिद्धान्त में जड़ाद्वैतवाद का भी अस्वीकार है। उसके अनुसार जड़ पदार्थ से चैतन्य की उत्पत्ति होती है। चेतन और अचेतन दोनों का स्वतन्त्र अस्तित्व है, फिर उनमें संबंध स्थापित कैसे हो सकता है ?—यह प्रश्न दर्शन के क्षेत्र में बहुचर्चित रहा है और आज भी है। इस प्रश्न का एक नया समाधान उपलब्ध है। जीव और पुद्गल दोनों में एक स्नेह नाम का तत्त्व होता है। इस तत्त्व के कारण उन दोनों में संबंध स्थापित हो जाता है। रेने देकार्ते ने शरीर और मन की निरपेक्ष सत्ता का प्रतिपादन किया। स्पिनोजा ने शरीर और मन में अद्वैत की स्थापना की। आधुनिक वैज्ञानिक शरीर और मन में अन्तःक्रिया (Interaction) मानते हैं। मनोविज्ञान के क्षेत्र में इस अन्तःक्रिया के सिद्धान्त के आधार पर अनेक समस्याएं सुलझाई गई हैं। शरीर का मन पर और मन का शरीर पर प्रभाव होता है, यह स्पष्ट है। शरीर और मन दोनों भिन्न सत्ताएं हैं; फिर एक दूसरे का प्रभाव एक दूसरे पर कैसे होता है ? देकार्ते ने शरीर और मन की पारस्परिक क्रियाओं का संबंध-सूत्र पाइनियल ग्लैंड को बतलाया है। इससे प्रश्न का सही समाधान नहीं होता। शरीर और जीव दोनों में कोई ऐसा संबंध-सूत्र होना चाहिए जिससे वे एक-दूसरे को परस्पर प्रभावित कर सकें । स्नेह का संबंध जीव और पुद्गल दोनों से है। उसके आधार पर पारस्परिक संबंध की व्याख्या सरल हो जाती है। जीव और पुद्गल का संबंध शरीर-धारण, आहार-ग्रहण, कर्म-बंध, कर्म-विपाक आदि अनेक रूपों में होता है। इस प्रसंग में जीवविद्या और कर्मविद्या के अनेक नए पक्षों पर विमर्श हुआ है।' परामनोविज्ञान (Parapsychology) विज्ञान की नई और दर्शन की बहुत पुरानी शाखा है। उसका एक महत्त्वपूर्ण अंग है-पुनर्जन्म । एक जीव वर्तमान जीवन को समाप्त कर नए जीवन का प्रारंभ करता है | गीता की भाषा में "वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोपराणि । तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥" १. सूत्र १६१-१६६ २. सूत्र २६१। ३. सूत्र ४४०॥ ४. द्रष्टव्य सूत्र ३१२, ३१३ का भाष्य। ५. जीवविद्या के लिए द्रष्टव्य सूत्र--- जीवन का स्थिति-काल-१३-१५,३२ सम-आहार, समशरीर आदि–६०-१०० संसार-संस्थान काल-१०३-१११ स्थिति-स्थान–२१६-२५४ स्नेहकाय--३१४-३१६ आयुष्य-३५६३६३,४२०,४२१ वीर्य-३७५-३८२, ३६७-३६६ जीव और लेश्या-१०१,१०२,४०८-४१६ गुरुत्व-लघुत्व ३८४-३६१ जीव और पुद्गल–१६,२७। कर्मविद्या के लिए द्रष्टव्य सूत्र चलित-अचलित–२०३१ कर्म-वेदन-५३-५६ उपस्थापन, अवक्रमण-१७५-१८८ कांक्षामोहनीय-११-१३०,१४०-१७२ कर्म-प्रकृति-१७४ कर्म-मोक्ष-१८६,१६० जय-पराजय-३७३,३७४,४०७) ६. भगवद्गीता, २।२२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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