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________________ भगवई श.१: उ.१: सू.१-३ सब्बसाहूणं। गये हैं और चौथा अर्थ अर्ह धातु के अर्हता पद के आधार पर प्राचीन ग्रन्थों में इसके अनेक पदों एवं वाक्यों के पाठान्तर । किया गया है। मिलते हैं भाषा की दृष्टि से नमो और णमो तथा अरहंताणं और णमो-नमो। अरिहंताणं-इन दो में मात्र रूपभेद है, किन्तु मंत्रशास्त्रीय दृष्टि से 'न' और 'ण' के उच्चारण की भिन्न-भिन्न प्रतिक्रिया होती है।' 'ण' अरहंताणं-अरिहंताणं,अरुहंताणं। मूर्धन्य वर्ण है। उसके उच्चारण से जो घर्षण होता है, जो मस्तिष्कीय आयरियाणं-आइरियाणं। प्राण-विद्युत् का संचार होता है, वह 'न' के उच्चारण से नहीं होता। णमो लोए सब्बसाहूणं णमो सब्बसाहूणं। अरहंताणं के अकार और अरिहंताणं के इकार का भी नमो अरहंतानं, नमो सवसिघानं। मंत्रशास्त्रीय अर्थ एक नहीं है। मंत्रशास्त्र के अनुसार अकार का वर्ण पाटान्तर-विमर्श स्वर्णिम और स्वाद नमकीन होता है तथा इकार का वर्ण स्वर्णिम णमो, नमो-प्राकृत में आदि में 'न' का 'ण' विकल्प से होता। और स्वाद कषैला होता है। अकार पुल्लिंग और इकार नपुंसकलिंग है, इसलिए नमो, णमो-ये दोनों रूप मिलते हैं। होता है। अरहंताणं, अरिहंताणं-प्राकृत में 'अर्ह' धातु के दोनों रूप अरुहंताणं-यह पाठ-भेद भगवती सूत्र की वृत्ति में व्याख्यात बनते हैं—अरहइ, अरिहइ । अरहताणं और अरिहंताणं ये दोनों 'अर्ह' है। वृत्तिकार अभयदेवसूरि ने इसका अर्थ 'अपुनर्भव' किया है। जैसे धात के शत प्रत्ययांत रूप हैं। अरहंत और अरिहंत-इन दोनों में बीज के अत्यन्त दग्ध होने पर इससे अंकूर नहीं फूटता, वैसे ही कोई अर्थ-भेद नहीं है। व्याख्याकारों ने अरिहंत शब्द को संस्कृत की कर्म-बीज के अत्यन्त दग्ध हो जाने पर भवांकुर नहीं फूटता।' दृष्टि से देखकर उसमें अर्थ-भेद किया है। अरिहन्त= शत्रु का हनन आवश्यक नियुक्ति और धवला में अरुहंत पाठ व्याख्यात नहीं करने वाला। यह अर्थ शब्द-साम्य के कारण किया गया है। आवश्यक है। इससे प्रतीत होता है कि यह पाठान्तर उनके उत्तरकाल में बना निर्यक्ति में यह अर्थ उपलब्ध है।' अर्हता का अर्थ इसके बाद किया है। ऐसी अनुश्रुति भी है कि यह पाठान्तर तमिल और कन्नड़ भाषा गया है। इस अर्थभेद के होने पर अरहंत और अरिहंत ये एक ही के प्रभाव से हुआ है। किन्तु इसकी पुष्टि के लिए कोई स्पष्ट प्रमाण धातु के दो रूपों में निष्पन्न दो शब्द नहीं होते, किन्तु भिन्न-भिन्न प्राप्त नहीं है। अर्थ वाले दो शब्द बन जाते हैं। अरुह शब्द का प्रयोग आचार्य कुन्दकुन्द के साहित्य में मिलता आवश्यक सत्र के नियुक्तिकार ने अरहंत, अरिहंत के तीन अर्थ है। उन्होंने अरुहंत और अरहंत का एक ही अर्थ में प्रयोग किया किये हैं है। वे दक्षिण के थे, इसलिए अरहंत के अर्थ में अरुह का प्रयोग १. पूजा की अर्हता होने के कारण अरहंत ।' दक्षिण के उच्चारण से प्रभावित है, इस उपपत्ति की पुष्टि होती है। २. अरि का हनन करने के कारण अरिहंत । बोधपाहुड में उन्होंने 'अर्हत' का वर्णन किया है। उसमें २८,२६, ३. रज-कर्म का हनन करने के कारण अरिहंत।' ३०,३२-इन चार गाथाओं में अरहंत का प्रयोग है और ३१,३४, वीरसेनाचार्य ने अरिहंताणं पद के चार अर्थ किये हैं ३६,३६,४१-इन पांच गाथाओं में अरुह का प्रयोग है। १. अरि का हनन करने के कारण अरिहंत । आचार्य हेमचन्द्र ने उपलब्ध प्रयोगों के आधार पर अर्हत् शब्द २. रज का हनन करने के कारण अरिहंत । के तीन रूप सिद्ध किये हैं—अहो, अरहो, अरिहो, अरुहन्तो, ३. रहस्य के अभाव से अरिहंत । अरहन्तो, अरिहंतो।' ४. अतिशय पूजा की अर्हता होने के कारण अरिहंत ।' डॉ.पिशेल ने अरहा, अरिहा, अरुहा और अरिहन्त का विभिन्न प्रथम तीन अर्थ अरि+हंता-इन दो पदों के आधार पर किये भाषाओं की दृष्टि से अध्ययन प्रस्तुत किया है - १. आव.नि.गा.६१६,६२० इंदियविसयकसाये परीसहे वेयणाओ उवसग्गे । एए अरिणो हंता, अरिहंता तेण वुचंति ॥ अट्ठविहं वि य कम्मं, अरिभूअं होइ सब्बजीवाणं । तं कम्ममरिं हता, अरिहंता तेण वुच्चति ।। २. वही,गा.६२१,६२२-- अरिहंति वंदणनमंसणाई अरिहंति पूअसक्कारे । सिद्धिगमणं च अरिहा अरहंता तेण वुति ॥ देवासुरमणुएसु अरिहा पूआ सुरुत्तमा जम्हा । ३. वही, गा.६२२---- अरिणो रयं च हंता अरिहंता तेण वुचंति || ४.प.खं.धवला,पु.१,खं.१,भा.१,सू.१,पृ.४२-४४-अरिहननादरिहन्ता ।....... रजोहननाद् वा अरिहंता |.....रहस्याभावाद् वा अरिहंता।....अतिशयपूजाहत्वाद् वार्हन्तः । ५. विद्यानुशासन, योगशास्त्र,पृ.६०,६१। ६. भ.वृ.१।१-अरुहताणमित्यपि पाठान्तरं, तत्र अरोहद्भ्यः अनुपजायमानेभ्यः क्षीणकर्मवीजत्वात्, आह च--- दग्धे वीजे यथाऽत्यन्तं, प्रादुर्भवति नांकुरः । कर्मबीजे तथा दग्धे, न रोहति भवांकुरः ।। ७. हेमशब्दानुशासन, ८।२।१११-उच्चाहति । ८. पिशेल, प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पारा १४० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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