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________________ श.१: उ.१: सू.१-३ भगवई अरहा, अरहन्त-अर्द्धमागधी अरिहा-शौरसेनी अरुहा-जैन महाराष्ट्री अलिहंताणं-मागधी आयरियाणं, आइरियाणं-आगम साहित्य में यकार के स्थान में इकार के प्रयोग मिलते हैं—वयगुक्त -बइगुत्त। वयर-बइर। इस प्रकार आयरिय और आइरिय में रूपभेद हैं। णमो लोए सब्बसाहणं, णमो सबसाहूर्ण-अभयदेवसूरि के अनुसार भगवती सूत्र के मंगलवाक्य के रूप में उपलब्ध नमस्कार मंत्र का पांचवां पद ‘णमो सव्वसाहूणं' है। 'णमो लोए सब्बसाहूणं' का उन्होंने पाठान्तर के रूप में उल्लेख किया है—णमो लोए सवसाहणं ति कचित्पाठः।' इस पाठान्तर की व्याख्या में उन्होंने बताया है कि 'सर्व' शब्द आंशिक सर्व के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है। अतः परिपूर्ण सर्व का बोध कराने के लिए इस पाठान्तर में 'लोक' शब्द का प्रयोग किया गया है।' 'लोक' और 'सर्व'-इन दोनों शब्दों के होने पर यह प्रश्न होना स्वाभाविक ही है और अभयदेवसूरि ने इसी का समाधान किया है। दशाश्रुतस्कंध के वृत्तिकार ब्रह्मऋषि ने भी णमो लोए सब्बसाहूणं को पाठान्तर के रूप में व्याख्यात किया है। इसकी व्याख्या में वे अभयदेवसूरि का अक्षरशः अनुसरण करते हैं। हमने अभयदेवसूरि की वृत्ति के आधार पर भगवती सूत्र में णमो सबसाहूणं को मूल पाठ और णमो लोए सबसाहूणं को पाठान्तर स्वीकृत किया है। इसका यह अर्थ नहीं है कि णमो लोए सव्वसाहूणं सर्वत्र पाठान्तर है। आवस्सयं में हमने णमो लोए सब्बसाहूणं को ही मूल पाठ माना है। हमने आगम-अनुसंधान की जो पद्धति निर्धारित की है, उसके अनुसार हम प्राचीनतम प्रति या चूर्णि, वृत्ति आदि व्याख्या में उपलब्ध पाठ को प्राथमिकता देते हैं। सबसे अधिक प्राथमिकता आगम में उपलब्ध पाठ को देते हैं। आगम के द्वारा आगम के पाठ-संशोधन में सर्वाधिक प्रामाणिकता प्रतीत होती है। इस पद्धति के अनुसार हमें सर्वत्र 'णमो लोए सबसाहूणं' इसे मूलपाठ के रूप में स्वीकृत करना चाहिए था, किन्तु नमस्कार मन्त्र किस आगम का मूलपाठ है, इसका निर्णय अभी नहीं हो पाया है। यह जहां कहीं उपलब्ध है, वहां ग्रन्थ के अवयव के रूप में उपलब्ध नहीं है, मंगलवाक्य के रूप में उपलब्ध है। आवस्सयं के प्रारंभ में नमस्कार मन्त्र मिलता है। किन्तु वह आवस्सयं का अंग नहीं है। आवस्सयं के मूल अंग सामायिक, चतुर्विंशस्तव आदि हैं। इस दृष्टि से भगवती सूत्र में नमस्कार मंत्र का जो प्राचीन रूप हमें मिला, वही हमने मूलरूप में स्वीकृत किया। अभयदेवसूरि की व्याख्या से प्राचीन या उसके समकालीन कोई भी प्रति प्राप्त नहीं है। यह वृत्ति ही सबसे प्राचीन है। इसलिए वृतिकार द्वारा निर्दिष्ट पाठ और पाठान्तर को स्वीकार करना ही उचित प्रतीत हुआ। नमो अरहंतानं, नमो सव-सिधानं-यह पाठान्तर खारवेल के अंतिम का भी IMEI नहीं है, सिद्ध के साथ सर्व शब्द का योग है और 'सिघानं' में द्वित्व 'ध' प्रयुक्त नहीं है। यह पाठ भी बहुत पुराना है, इसलिए इसे भी उपेक्षित नहीं किया जा सकता । नमस्कार महामन्त्र का मूल स्रोत और कर्ता नमस्कार महामन्त्र आदि-मंगल के रूप में अनेक आगमों और ग्रन्थों में उपलब्ध होता है, किन्तु इससे उसके मूल स्रोत का पता नहीं चलता। महानिशीथ में लिखा है कि पंचमंगल-महाश्रुतस्कंध का व्याख्यान सूत्र की नियुक्ति, भाष्य और चूर्णियों में किया गया था और वह व्याख्यान तीर्थंकरों के द्वारा प्राप्त हुआ था। कालदोष से वे नियुक्ति, भाष्य और चूर्णियां विच्छिन्न हो गयीं। फिर कुछ समय बाद बज्रस्वामी ने नमस्कार महामन्त्र का उद्धार कर उसे मूल सूत्र में स्थापित किया। यह बात वृद्ध सम्प्रदाय के आधार पर लिखी गयी है।' इससे भी नमस्कार मंत्र के मूल स्रोत पर कोई प्रकाश नहीं पड़ता। ___ आवश्यक नियुक्ति में वज्रसूरि के प्रकरण में उक्त घटना का उल्लेख भी नहीं है। वज्रसूरि दस पूर्वधर हुए हैं। उनका अस्तित्वकाल ई.पू.पहली शताब्दी है। शय्यंभवसूरि चतुर्दशपूर्वधर हुए हैं और उनका अस्तित्वकाल ई.पू.५-६ शताब्दी है। उन्होंने कायोत्सर्ग को नमस्कार के द्वारा पूर्ण करने का निर्देश किया है। दशवैकालिक सूत्र की दोनों चूणिया आर हारभद्रीय वृत्ति म नमस्कार की व्याख्या 'णमो अरहताण' मंत्र के रूप में की है। आचार्य वीरसेन ने षडण्डागम के प्रारम्भ में दिये गए नमस्कार मंत्र को निवद्धमंगल बतलाया है। इसका फलित यह होता है कि नमस्कार महामंत्र के कर्ता षटूखण्डागम के रचयिता आचार्य पुष्पदन्त हैं। आचार्य वीरसेन ने यह किस आधार पर लिखा, इसका कोई १. भ.वृ.१191 २. वही,११-तत्र सर्वशब्दस्य देशसर्वतायामपि दर्शनादपरिशेषसर्वतोपदर्शना र्थमुच्यते 'लोके'—मनुष्यलोके न तु गच्छादौ ये सर्वसाधवस्तेभ्यो नमः। ३. हस्तलिखित वृत्ति,पत्र ४ । ४. प्राचीन भारतीय अभिलेख, द्वितीय खण्ड, पृ.२६ । ५. महानिशीथ,अ.५;अभिधानराजेन्द्र,पृ.१८३५–एयं तु जं पंचमंगलमहासुय खंधस्स बक्खाणं, तं महया पबंधेणं अर्णतगयपज्जवेहिं सुत्तस्स य पियभूयाहिं णिजुत्तिभासचुत्रीहिं जहेव अणंतनाणदंसणधरेहिं तित्थयरेहिं वक्खाणियं, तहेव समासओ वक्खाणिज्जतं आसि, अहऽनयाकालपरिहाणिदोसेणं ताओ णिजुत्ति- भासचुन्नीओ वुच्छित्राओ। इओ य बच्चतेणं कालेणं समएणं महड्डिपते पयाणु सारी बइरसामी नाम दुवालसंगसुअहरे समुप्पन्ने। तेण य पंचमंगलमहासुयखंधस्स उद्धारो मूलसुत्तस्स मज्झे लिहिओ....एस वुड्ढसंपयाओ। ६. दसवे.५११६३–णमोक्कारेण पारिता। ७. (क) अ.चू.पृ. १२३---'नमो आहताण' ति एतेण वयणेण काउस्सगं पारेत्ता। (ख) जि.चू.पृ.१८६ । (ग) हा.वृ.प.१८०-नमस्कारेण पारयित्वा 'नमो अरहंताणं' इत्यनेन । . ष.खं.धवला,पु.१,खं.१,भा.१,सू.१,पृ.४२-इदं पुण जीवद्वाणं णिबद्धमंगलं । एत्तो इभेसिं चोद्दसण्हं जीवसमासाणं इदि एदस्स सुत्तस्सादीए णिबद्ध णमो अरहंताण' इच्चादि देवदाणमोक्कारदसणादो । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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