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भगवई
श.१: उ.१: सू.१-३
अन्य प्रमाण उपलब्ध नहीं होता। जैसे भगवती सूत्र की प्रतियों के सर्वश्रुतान्तर्गत बतलाया। उनके अनुसार पंचनमस्कार करने पर ही प्रारम्भ में नमस्कार महामंत्र लिखा हुआ था और अभयदेवसूरि ने उसे आचार्य सामायिक आदि आवश्यक और क्रमशः शेष श्रुत शिष्यों को सूत्र का अंग मानकर उसकी व्याख्या की, वैसे ही आचार्य पुष्पदन्त । पढ़ाते थे। प्रारम्भ में नमस्कार मंत्र का पाठ देने और उसके बाद को उसका कर्ता बतला दिया। आचार्य पुष्पदन्त का अस्तित्व-काल आवस्सयं का पाठ देने की पद्धति थी।' इस प्रकार अन्य सूत्रों के वीर-निर्वाण की सातवीं शताब्दी (ई.पहली शताब्दी) है। खारवेल का प्रारम्भ में भी नमस्कार मंत्र का पाठ किया जाता था। इस दृष्टि से शिलालेख ई.पू.१५२ का है। उसमें नमो अरहंताणं नमो सवसिपानं-ये उसे सर्वश्रुताभ्यन्तरवर्ती कहा गया। फिर भी नमस्कार मंत्र को जैसे पद मिलते हैं। इससे नमस्कार महामंत्र का अस्तित्व काल आचार्य सामायिक का अंग बतलाया है, वैसे किसी अन्य आगम का अंग पुष्पदन्त से बहुत पहले चला जाता है। शय्यंभवसूरि का दसवेआलियं नहीं बताया गया है। इस दृष्टि से नमस्कार महामंत्र का मूल स्रोत में प्राप्त निर्देश भी इसी ओर संकेत करता है। भगवान् महावीर सामायिक अध्ययन ही सिद्ध होता है। आवस्सयं या सामायिक दीक्षित हुए तब उन्होंने सिद्धों को नमस्कार किया था। उत्तरज्झयणाणि अध्ययन के कर्ता यदि गौतम गणधर को माना जाए, तो पंचमंगल के बीसवें अध्ययन के प्रारम्भ में सिद्धाणं नमो किचा, संजयाण च रूप नमस्कार महामंत्र के कर्ता भी गौतम गणधर ही ठहरते हैं। भावओ-सिद्धों और साधुओं को नमस्कार किया गया है। इन सबसे
३. ब्राह्मी लिपि को नमस्कार यह निष्कर्ष निकलता है कि नमस्कार की परिपाटी बहुत पुरानी है, किन्तु भगवान महावीर के काल में पंच मंगलात्मक नमस्कार मंत्र
लिपि का अर्थ है-अक्षर-विन्यास । नंदी में अक्षर के प्रचलित था या नहीं इस प्रश्न का निश्चयात्मक उत्तर देना सरल
तीन प्रकार बतलाए गए हैं--१. संज्ञाक्षर २. व्यञ्जनाक्षर और नहीं है। महानिशीय के उक्त प्रसंग के आधार पर कहा जा सकता
३. लब्ध्यक्षर। है कि वर्तमान स्वरूप वाला नमस्कार महामंत्र भगवान् महावीर के पट्टिका या पत्र आदि पर होनेवाली अक्षर की संस्थानाकृति समय में प्रचलित था। किन्तु उसकी पुष्टि के लिए कोई दूसरा प्रमाण (अक्षरों की लिखावट) का नाम संज्ञाक्षर है। संज्ञाक्षर, लिपि और अपेक्षित है। आवश्यक नियुक्ति में एक महत्त्वपूर्ण सूचना मिलती है। वर्णविन्यास-ये सब पर्यायवाची हैं। नियुक्तिकार ने लिखा है---पंच परमेष्ठियों को नमस्कार कर सामायिक
मनुष्य के चिंतन, स्मृति और कल्पना का माध्यम है भाषा । करना चाहिए। यह पंचनमस्कार सामायिक का ही एक अंग है।
वह अक्षरात्मक होती है। शब्द और अर्थ की पर्यालोचना कर मनुष्य इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि नमस्कार महामंत्र उतना जानता है, वह लब्ध्यक्षर है। अपनी जानी हुई बात का उच्चारण ही पुराना है जितना सामायिक सूत्र। सामायिक आवस्सयं का प्रथम करता है, वह व्यञ्जनाक्षर है। उसे आकार देता है, वह संज्ञाक्षर अध्ययन है। नंदी में आयी हुई आगम की सूची में उसका उल्लेख है। इससे फलित होता है कि मनुष्य ने सबसे पहले जानना सीखा, है। नमस्कार महामंत्र का वहां एक श्रुतस्कन्ध या महाश्रुतस्कन्ध के फिर बोलना और उसके पश्चात् लिखना। मनुष्य के पास अपने भावों रूप में कोई उल्लेख नहीं है। इससे भी अनुमान किया जा सकता को अभिव्यक्ति देने के दो बड़े माध्यम हैं—उच्चारण और है कि यह सामायिक अध्ययन का एक अंगभूत रहा है। सामायिक अक्षर-विन्यास । के प्रारम्भ में और उसके अन्त में पंच परमेष्ठी को नमस्कार किया जैन साहित्य के पाग-ऐतिहासिक मन्दों
जैन साहित्य के प्राग-ऐतिहासिक सन्दर्भो के अनुसार ब्राह्मी
के 3 जाता था। कायोत्सर्ग के प्रारम्भ और अन्त में भी पंचनमस्कार की
लिपि का संबन्ध भगवान ऋषभ के साथ जुड़ता है। भगवान ऋषभ पद्धति प्रचलित थी। आचार्य भद्रबाहु के अनुसार नंदी और ।
ने दाएं हाथ से ब्राह्मी को अठारह लिपियों का ज्ञान कराया और अणओगदाराई को जानकर तथा पंचमंगल को नमस्कार कर सूत्र का बाएं हाथ से सन्दरी को गणित-विद्या सिखाई। दिगम्बर आचार्य प्रारम्भ किया जाता है। संभव है इसीलिए अनेक आगमसूत्रों के जिनसेन ने भी इसका उल्लेख किया है। माना जाता है कि ब्राह्मी प्रारम्भ में नमस्कार महामंत्र लिखने की पद्धति प्रचलित हुई।
को लिपि का ज्ञान कराया, इसलिए उस लिपि का नाम 'ब्राह्मी' हो जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने उसी आधार पर नमस्कार महामंत्र को गया। किन्तु यह मत भी मीमांसनीय है। ब्राह्मी को अठारह लिपि
१. आ.चूला,१५ । ३२- तओ णं समणे भगवं महावीरे दाहिणेणं दाहिणं वामेणं
वामं पंचमुट्ठियं लोयं करेत्ता सिद्धाणं णमोक्कार करेइ । २. आव.नि.गा.१०२७
कयपंचनमोक्कारो करेइ सामाइयंति सोऽभिहितो ।
सामाइयंगमेव य जं सो सेसं अतो वोच्छं ॥ ३. वही,गा.१०२६
नंदिमणुओगदारं विहिवदुबग्घाइयं च नाऊणं ।
काऊण पंचमंगलमारंभो होइ सुत्तस्स || ४. वि.भा.गा.६
सो सव्वसुतक्खंधभन्तरभूतो जओ ततो तस्स । आवासयाणुयोगादिगहणगहितोऽणुयोगोऽवि ॥
५. वही.गा..
आईय णमोक्कारो जइ पच्छाऽऽवासयं ततो पुव्वं ।
तस्स भणितेऽणुयोगे जुत्तो आवासयस्स ततो ।। ६. नंदी,सू.५६-से किं तं अक्खरसुयं ? अक्खरसुयं तिविहं पण्णत्तं, तं
जहा–१. सण्णक्खरं २. वंजणक्खरं ३. लद्धिअक्खरं । ७. नन्दी वृ.प.१८८ । ८. आव.नि.पा.२०७ का भाष्य
लेहं लिवीविहाणं जिणेण बंभीइ दाहिणकरेणं ।
गणिअं संखाण सुंदरीइ वामेण उवइटें ।। ६. आदिपुराण, १६ ॥१०४-१०
विभुः करद्वयेनाभ्यां लिखन्नक्षरमालिकाम् ।
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