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श. १: उ.१: सू.१-५
का ज्ञान कराया गया। उनमें से केवल एक लिपि का नाम ब्राह्मी है, शेष सब के नाम स्वतन्त्र हैं । समवाओ में ब्राह्मी लिपि के अठारह प्रकार बतलाए गए हैं : १. ब्राह्मी २. यवनानी ३. दोसउरिया ४ . खरोष्ट्रका ५. खरशाहिका ६. प्रभाराजिका ७. उच्चतरिका ८. अक्षरिपृष्टिका ६. भोगवतिका १०. वैनतिकी ११. निह्नविका १२. अंकलिप १३. गणितलिपि १४. गंधर्वलिपि १५. आदर्शलिपि १६. माहेश्वरी १७. द्राविडी १८. पोलिंदी।' इसके आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि ब्राह्मी प्रथम या प्राचीनतम लिपि है। अन्य लिपियों का उसके आधार पर विकास हुआ है। इसलिए शेष सतरह लिपियों को ब्राह्मी लिपि का परिवार कहा जा सकता है। भगवान ऋषभ ने ब्राह्मी को लिपि सिखाई; इसलिए उसका नाम ब्राह्मी हो गया, यह बात संगत हो सकती है, किन्तु भगवान ने ब्राह्मी को अठारह लिपियां सिखाई; इसलिए लिपि का नाम ब्राह्मी प्रचलित हो गया, यह बात तर्कसंगत नहीं लगती ।
ब्राह्मी लिपि के नामकरण के विषय में अनेक कल्पनाएं मिलती हैं । किन्तु ऐतिहासिक आधार पर कुछ भी कहा जा सके, यह कठिन है। फिर भी इतना कहा जा सकता है कि प्राकृत भाषा और ब्राह्मी लिपि परस्पर सम्बन्धित रही हैं। भाषा आर्य वे होते हैं जो अर्धमागधी (प्राकृत) बोलते हैं और जिनकी लिपि ब्राह्मी होती है । " जैन आचार्यों ने जैसे प्राकृत भाषा को माध्यम बनाया, वैसे ही ब्राह्मी लिपि को भी माध्यम बनाया; इसीलिए प्रस्तुत आगम के प्रारम्भ में ब्राह्मी लिपि के नमस्कार का उल्लेख जुड़ा हुआ है।
जयाचार्य ने वृत्तिकार के मत की मीमांसा की है। उन्होंने लिखा है - "वृत्तिकार ने लिपि का अर्थ अक्षर विन्यास किया है। अक्षर - विन्यास को नमस्कार कैसे किया जा सकता है ? निक्षेप की दृष्टि से लिपि के दो प्रकार हो जाते हैं- द्रव्यलिपि और भावलिपि । द्रव्यलिपि अक्षरात्मक और भावलिपि अक्षरज्ञानात्मक होती है । "
उपादिशल्लिपि संख्यास्थानं चाकैरनुक्रमात् ॥ ततो भगवतो वक्त्रान्निःसृतामक्षरावलीम् सिद्धं नम इति व्यक्तमङ्गलां सिद्धमातृकाम् ॥ अकारादिहकारान्तां शुद्धां मुक्तावलीमिव । स्वरव्यञ्जनभेदेन द्विधा भेदमुपेयुषीम् ॥ अयोगवाहपर्यन्तां सर्वविद्यासु संतताम् । संयोगाक्षरसंभूतिं नैकबीजाक्षरैश्चिताम् || समवादीधरद् ब्राह्मी मेधाविन्यतिसुन्दरी । सुन्दरी गणितं स्थानक्रमैः सम्यगधारयत् ॥
१. सम. १८।५ ।
२. भ. बृ. १/२ लिपि: पुस्तकादावक्षरविन्यासः सा चाष्टादशप्रकाराऽपि श्रीमनाभेयजिनेन स्वसुताया ब्राह्मीनामिकाया दर्शिता ततो ब्राह्मीत्यभिधीयते ।
३. देखें, डा. प्रेमसागर जैन, विश्व की मूल लिपि ब्राह्मी, पृ. ५७-७० |
४. पण १६८ -भासारिया जे णं अद्धमागहाए भासाए भासिंति, जत्थ वि य भी लिवी पवत्तइ ।
५. भ.जो. १।१।१६६१७३
नमो भए लिवीए, लिपिकर्ता नाभेय ।
चरण सहित धुर जिन लिपिक, अर्थ धर्मसी एह ॥
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भगवई
जयाचार्य ने नयदृष्टि से विचार करते हुए लिखा है कि जैसे एवंभूत नय की दृष्टि से प्रस्थक के कर्ता को प्रस्थक कहा जाता है, वैसे ही यहां लिपिकर्ता भगवान ऋषभ को लिपि मानकर उन्हें नमस्कार किया गया है।'
४. श्रुत को नमस्कार
जैन दर्शन की ज्ञानमीमांसा में ज्ञान के पांच प्रकार प्रज्ञप्त हैं। उनमें दूसरा ज्ञान है श्रुतज्ञान। उसके दो भेद हैं- द्रव्यश्रुत और भावश्रुत । लिपि और उच्चारण ये दोनों द्रव्यश्रुत हैं। उनसे होने वाला अर्थबोध भावश्रुत है ।
वृत्तिकार ने यहां श्रुत का अर्थ द्वादशांगी या अर्हत्प्रवचन किया है। एक प्रश्न उपस्थित हुआ-मंगल के लिए इष्ट देवता को नमस्कार किया जाता है। श्रुत इष्ट देवता नहीं है, फिर उसे नमस्कार क्यों ? इसके समाधान में वृत्तिकार ने लिखा है - श्रुत इष्ट देवता ही है, क्योंकि अर्हद भी उसे नमस्कार करते हैं । अर्हद जैसे सिद्ध को नमस्कार करते हैं, वैसे श्रुत को भी नमस्कार करते हैं। इसके समर्थन में उन्होंने 'नमस्तीर्थाय' इस वाक्य को उद्धृत किया है । तीर्थ का अर्थ श्रुत है। उसका आधार होने के कारण संघ भी तीर्थ कहलाता है ।
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श्रुत इष्ट देवता ही है । वृत्तिकार के इस अभिमत का समर्थन दिगम्बर-साहित्य में भी मिलता है— आप्त पुरुषों ने जिनवाणी और जिनदेव में किञ्चिद् भी अन्तर नहीं बतलाया है। इसलिए जिनवाणी की सभक्ति पूजा करने वाला परमार्थतः जिनदेव की ही पूजा करता है । '
अर्हत् सिद्धों को नमस्कार करते हैं, इसका समर्थन आयारचूला होता है। अर्ह तीर्थ को नमस्कार करते हैं, यह मत आगम के द्वारा समर्थित नहीं है, यह आगम-युग के बाद की अवधारणा है।
पाथा ना कर्ता भणी, पाथौ कहिये ताहि । एवंभूतनय नैं मते. अनुयोगद्वार ₹ मांहि ॥ अथवा लिपि ते भावलिपि, जे मुनि नैं आधार । नमस्कार छै तेहने, एहवूं दीरौ सार ॥ तीर्थ नाम जिम सूत्रों, ते संघ नै आधार । तिण सूं संघ नै तीर्थ कहयुं, तिम भावे लिपि सार ॥
वृत्तिकार द्रव्य लिपि कही, ते लिपि छै गुणशून्य । नमस्कार तेहनें करी, ते तो बात जबून्य ॥
६. भ.वृ. १/३ - 'नमो सुयस्स' त्ति नमस्कारोऽस्तु 'श्रुताय' द्वादशाङ्गीरूपायाहेठप्रवचनाय ।
७. भ. वृ. १1३ - नन्विष्टदेवतानमस्कारो मङ्गलार्थो भवति न च श्रुतमिष्टदेवतेति कथमयं मंगलार्थ इति ? अत्रोच्यते श्रुतमिष्टदेवतैव, अर्हतां नमस्करणीयत्वात् सिद्धवत्, नमस्कुर्वन्ति च श्रुतमर्हन्तो 'नमस्तीर्थाय ' ति भणनात् ।
८. पं. आशाधर, सागारधर्मामृत, २।४४---
ये यजन्ते श्रुतं भक्त्या, ते यजन्तेऽज्ञ्जसा जिनम् । न किञ्चिदन्तरं प्राहुराप्ता हि श्रुतदेवयोः ॥
८. देखें, पीछे पृ. ६ का पा. टि. १ ।
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