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________________ भगवई अर्हत् अर्हत्-प्रवचन को नमस्कार करे, इसमें अन्तर्विरोध है । अर्हत्-प्रवचन द्रव्यश्रुत है, ज्ञान का निमित्त है। जयाचार्य ने निमित्त उक्खेव-पदं उत्क्षेप-पदम् ४. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नाम नयरे होत्या वण्णओ ॥ नगरम् आसीत्-वर्णकः । १. उस काल और उस समय यहां काल और समय दो शब्दों का प्रयोग हुआ है। काल प्रलय कालखण्ड का और समय निश्चित कालावधि का सूचक है । वृत्तिकार के अनुसार 'काल' पद के द्वारा वर्तमान अवसर्पिणी के चतुर्थ विभाग का बोध होता है और 'समय' पद के द्वारा उस कालखण्ड का बोध होता है जिसमें भगवान महावीर ने प्रवचन किया था। उक्त दोनों पदों पर नय-दृष्टि से विचार करना उपयुक्त होगा। समभिरूढ नय की दृष्टि से कोई भी दो शब्द एकार्थक नहीं होते । प्रत्येक शब्द का अपना स्वतंत्र अर्थ होता है। एक अर्थ को बताने के लिए अनेक पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग आगम-संरचना की एक शैली है। अनेक देशों के शिष्यों को समझाने के लिए तत्तद्देश- प्रचलित अनेक समानार्थक शब्दों का प्रयोग किया जाता था। शब्दकोश के विकास की दृष्टि से अनेक शब्द प्रयुक्त किये जाते थे। अतः शब्द-नय की दृष्टि से इसका प्रयोग वांछनीय है। २. राजगृह नाम का नगर था 'तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे होत्या' में देश और काल का निर्देश है। आइंस्टीन के सापेक्षवाद के अनुसार देश और काल से निरपेक्ष किसी भी वस्तु को समझा नहीं जा सकता । जर्मन दार्शनिक इम्मेन्युअल काण्ट ने भी देश और काल को बहुत महत्त्व दिया है। आचार्य सिद्धसेन ने अर्थबोध के लिए कम से कम द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, पर्याय, देश, संयोग और भेद--इन आठ नयों को अनिवार्य माना है । 'राजगृह का परिवर्तित रूप आज राजगिर है। पांच पर्वतों से घिरा हुआ यह नगर भगवान् महावीर का मुख्य विहार क्षेत्र था। यहां भगवान् ने चौदह चातुर्मास प्रवास किए थे। प्रस्तुत आगम में राजगृह का अनेक बार उल्लेख हुआ है। यहां के ५. तस्स णं रायगिहस्स नगरस्स बहिया १. (क) भ.जो. १1१1१६० नमोत ते भावश्रुत, चरणयुक्त श्रुतवंत । लिपि शब्दे तो देशश्रुत, इहां सर्व श्रुतमंत ॥ ११ (ख) वही, पृ. २०-२२ । २. सम्मति ३। ६० । भाष्य Jain Education International को नमस्कार करने की समीक्षा की है। ' श. १: उ.१: सू.१-५ संवाद और पूछे गये प्रश्नों के उत्तर सर्वाधिक संख्या में संकलित हैं। अतः प्रस्तुत आगम को राजगृह का प्रवचन कहा जा सकता है । वृत्तिकार ने प्रश्न उपस्थित किया है— 'राजगृह' वर्तमान में विद्य मान है, फिर उसके लिए 'होत्या' इस अतीतकालीन क्रिया का प्रयोग क्यों किया गया ? इसके समाधान में उन्होंने लिखा है कि भगवान् महावीर के समय में वह जिस वैभव से सम्पन्न था, वैसा सुधर्मा के काल में नहीं रहा । इसका यह समाधान अधिक स्वाभाविक होगा कि पर्यायार्थिक दृष्टि से महावीर के साथ किए गए संवाद के समय जो राजगृह था, वह रचना-काल के समय परिवर्तित हो चुका था । ३. वर्णनवाची आलापक उत्क्षेप-पद ४. उस काल और उस समय ' राजगृह नाम का नगर थारे नगर का वर्णन । ३ अढाई हजार वर्ष पहले लेखन की प्रणाली बहुत कम प्रचलित थी। मध्यकाल में लेखन की पद्धति चली। किन्तु हस्त-लेखन का कार्य बहुत जटिल था । ग्रन्थ-गौरव से बचने तथा लेखन की सुविधा की दृष्टि से सूत्र- शैली का विकास हुआ। 'वर्णक' उसी का प्रतीक है । इस पद के द्वारा अनपेक्षित वर्णन से बचा जा सकता है। ओवाइयं की रचना इसी उद्देश्य से हुई थी। उसमें नगर, उद्यान, राजा आदि के वर्णन प्राप्त हैं। प्रस्तुत आगम में अनेक स्थानों पर 'वण्णओ' का प्रयोग किया गया है। वर्णन को भी शैलीगत माना जा सकता है। सभी नगर और सभी चैत्य एक जैसे नहीं होते, जैसे- काव्यानुशासन में कवि समय ( काव्य - सिद्धान्त) सत्य होता है। उसके अनुसार जलाशयमात्र में कमल का वर्णन किया जा सकता है । इसी प्रकार नगर आदि का वर्णन रचनाशैलीगत सत्य है। इसलिए प्रत्येक नगर के साथ इस वर्णन की आयोजना की जा सकती है। तस्य राजगृहस्य नगरस्य बहिस्ताद् ५. उस राजगृह नगर के बाहर उत्तरपूर्व दिशाभाग ३. भ. वृ.१1४- नन्विदानीमपि तन्त्र गरमस्त्यतः कथमुक्तमभवदिति ? उच्यते. वर्णक ग्रन्थोक्तविभूतियुक्तं तदैवाभवत् न तु सुधर्म्मस्वामिनो वाचनादानकाले, अवसर्पिणीत्वात्कालस्य तदीयशुभभावानां हानिभावात् । ४. भ .वृ. ५१४ 'वन्नओ' ति इह स्थानक नगरवर्णको वाच्यः ग्रन्थगारवमयादिह तस्यालिखितत्वात् । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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