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श.१: उ.१: सू.५-७
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भगवई
में गुणशिलक नाम का चैत्य' था।
उत्तरपुरथिमे दिसीभागे गुणसिलए नाम चेइए होत्था॥
उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे गुणशिलकं नाम चैत्यम् आसीत्।
भाष्य
१. चैत्य
_ 'चैत्य' शब्द के अनेक अर्थ होते हैं चिता संबंधी, प्रत्येक आत्मा, वल्मीक (चींटी आदि की चाली हुई मिट्टी का ढेर) सीमाचिह्न बनाने वाले पत्थरों का निर्मित ढेर, स्मारक, समाधि-मंदिर, यज्ञशाला, धर्मस्थान, वेदिका, मृगवन, मंदिर, प्रतिबिम्ब, “उदुम्बर, पीपल, वट आदि धार्मिक वृक्ष', सड़क के किनारे उगने वाले कोई भी वृक्ष ।'
आगम-साहित्य में यह अनेक स्थानों में प्रयुक्त हुआ है, जिसके विभिन्न अर्थ आगम के व्याख्या-ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं। जैसे- १. व्यन्तर का आयतन—(क) चितेर्लेप्यादिचयनस्य भावः कर्म ।
वेति चैत्यं-सज्ञाशब्दत्वाद्देवबिम्बं तदाश्रयत्वाद् तद्गृहमपि
चैत्यं तचेह व्यन्तरायतनम् । (ख) चैत्यं व्यन्तरायतनम्।' २. इष्ट देवता की प्रतिमा चैत्यं इष्टदेवता प्रतिमा।
३. उद्यान—चैत्यम्-उद्यानम्। ४. चित्त को आह्लादित करने वाला—चैत्याः चित्ताल्हादकाः। ५. इष्ट देवता का आयतन-चैत्यं च इष्टदेवतायतनम् । ६. पण्हावागरणाई में 'चेइयडे' पाठ प्राप्त होता है।
श्रीमजयाचार्य ने यहां प्रयुक्त 'चेइय' शब्द के दो अर्थ किये हैं—पहला ज्ञान और दूसरा केवली। उन्होंने चैत्य के 'केवली' अर्थ की पुष्टि के लिए रायपसेणइयं का पाठ उद्धृत किया है, जिसमें भगवान महावीर को चेइय कहा गया है।" इसकी वृत्ति में मलयगिरि ने लिखा है-चैत्यं सुप्रशस्तमनोहेतुत्वात्"-सुप्रशस्तमन का हेतुभूत ।
भगवती के वृत्तिकार के अनुसार चैत्य शब्द यहां व्यन्तरायतन के अर्थ में प्रयुक्त है।
६. सेणिए राया, चिल्लणा देवी।।
श्रेणिको राजा, चिल्लणा देवी।
६. वहां श्रेणिक राजा था और उसकी पटरानी थी चिल्लणा।
७. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणो भगवान् महावीरे आइगरे तित्थगरे सहसंबुद्धे महावीरः आदिकरः तीर्थकरः स्वसंबुद्धः पुरिसुसमे पुरिससीहे पुरिसवरपोंडरीए पुरुषोत्तमः पुरुषसिंहः पुरुषवरपुण्डरीका परिसवरगंधहत्थी लोगुत्तमे लोगनाहे लोग- पुरुषवरगन्धहस्ती लोकोत्तमः लोकनाथः पदीवे लोगपजोयगरे अभयदए चक्खुदए लोकप्रदीपः लोकप्रद्योतकरः अभयदयः चक्षु- मग्गदए सरणदए धम्मदेसए धम्मसारही दयः मार्गदयः शरणदयः धर्मदेशकः धर्मधम्मवरचाउरंतचक्कवट्टी अप्पडिहयवरनाण- सारथिः धर्मवरचतुरन्तचक्रवर्ती अप्रतिहत- दसणधरे वियदृछउमे जिणे जाणए बुद्धे वरज्ञानदर्शनधरः व्यावृतछद्मा चिनः (जिनः) बोहए मुत्ते मोयए सवण्णू सबदरिसी सिव- चायकः (ज्ञायकः) बुद्धः बोधकः मुक्तः मोच- मयलमरुयमणंतमक्खयमव्वाबाहं सिद्धि- कः सर्वज्ञः सर्वदर्शी शिवमचलमरुजमनंत-
७. उस काल और उस समय प्रवचन के आदिकर्ता, तीर्थकर, स्वयंसंबुद्ध, पुरुषोत्तम, पुरुषसिंह, पुरुषों में प्रवर पुण्डरीक, पुरुषों में प्रवर गन्धहस्ती, लोक में उत्तम, लोक के नाथ, लोक में प्रदीप, लोक में प्रद्योतकर, अभयदाता, चक्षुदाता, मार्गदाता, शरणदाता, धर्मदेशक, धर्म के सारथि, धर्म के प्रवर चतुर्दिगजयी चक्रवर्ती, अप्रतिहत प्रवर ज्ञानदर्शन के धारक, निरावरण, ज्ञाता, ज्ञान देने वाले', बुद्ध, बोध देने वाले, मुक्त, मुक्त करने वाले, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, शिव, अचल, अरुज,
१. आप्रे.-चैत्य Relating to a pile, the individual soul, the
ant-bill, a pile of stones forming a landmark, a monument, tombstone, a sacrilicial shed, a place of religious worship, altar, sanctuary, a temple, a reflection, a religious
lig-tree, any tree growing by the side of streets. २. भ.वृ.१५। ३. औप.वृ.पृ.८॥ ४. वही,पृ.१०। ५. उत्तरा.बृ.वृ.प.३०६ । देखें, उत्तर. ६६ का टिप्पण । इसके साथ यह भी
मननीय है कि समवाओ में चौबीस तीर्थंकरो के चौबीस चैत्यवृक्षों का उल्लेख है—'एतेसिं णं चउवीसाए तित्थगराणं चउवीसं चेइयरुक्खा होत्था ।'
(पइण्णग समवाओ सू. २३१)। इसकी वृत्ति में चैत्यवृक्ष का अर्थ किया है 'बद्धपीठ वृक्ष जिनके नीचे तीर्थंकरों को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ' (चेइयरुस्खे
त्ति बद्धपीठवृक्षाः येषामधः केवलान्युत्पन्नानीति वृ.प.१४५) । ६. जम्बू.वृ.प.१६३ । ७. वही,प.१२३ । ८. पण्हा.८।६। ६. प्रश्नोत्तर तत्त्वबोध, ६।३१८ - ३२५ । १०. राय. सू. ६-तं गच्छामि णं समणं भगवं महावीरं वंदामि....कल्लाणं मंगलं
देवयं चेइयं पज्जवासामि । ११. राज.वृ.पृ. ५२ ।
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