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भगवई
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श.१: उ.१: सू.७
गतिनामधेयं ठाणं संपाविउकामे जाव। मक्षयमव्याबाधं सिद्धिगतिनामधेयं स्थानं पुव्वाणुपुब्बिं चरमाणे गामाणुगामं दूइजमाणे संप्राप्तुकामः यावत् पूर्वानुपूर्वी चरन् ग्रामा- सुहंसुहेणं विहरमाणे जेणेव रायगिहे नगरे नुग्रामं दवन् सुखंसुखेन विहरन् यत्रैव राजगृहं जेणेव गुणसिलए चेइए तेणेव उवागच्छइ, नगरं यत्रैव गुणशिलकं चैत्यं तत्रैव उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगि- उपागच्छति, उपागम्य यथाप्रतिरूपम् अवण्हइ, ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं ग्रहम् अवगृह्णाति, अवगृह्य संयमेन तपसा भावेमाणे विहरइ॥
आत्मानं भावयन् विहरति ।
अनन्त, अक्षय, अव्याबाध, सिद्धिगति नामक स्थान की संप्राप्ति के इच्छुक यावत् श्रमण भगवान् महावीर क्रमानुसार विचरण, ग्रामानुग्राम में परिव्रजन और सुखपूर्वक विहार करते हुए जहां राजगृह नगर और गुणशिलक चैत्य हैं, वहां आते हैं, वहां आकर वे प्रवास-योग्य स्थान की अनुमति लेते हैं, अनुमति लेकर संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए रह रहे हैं।
भाष्य
१. ज्ञाता, ज्ञान देने वाले
का प्रयोग मिलता है। जिण शब्द का पारम्परिक अर्थ राग-द्वेष को जीतने वाला है। यह अर्थ 'जि' धातु से घटित होता है, किन्तु जिण शब्द का संस्कृत रूप 'चिण' करने पर उसका संबंध चि धातु से हो जाता है। इस आधार पर इसका अर्थ केवली या प्रत्यक्षज्ञानी होता
'राग-द्वेष को जीतने वाला जिन होता है तथा मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यव-इस ज्ञान-चतुष्टयी के द्वारा जो जानता है, वह ज्ञायक है' यह अभयदेवसूरि की व्याख्या है। यहां 'जिन' शब्द विमर्शनीय है। 'जिण' शब्द 'चिण' शब्द का प्राकृत रूप है। जिण के 'च' को 'ज' हुआ है। प्राकृतसर्वस्व में चिण का अर्थ है—प्रत्यक्षज्ञानी। प्रत्यक्ष के अर्थ में चि धातु का प्रयोग वेदकालीन है। प्राकृत में चकार को जकार होता है। आर्ष प्राकृत में ऐसे अनेक प्रयोग मिलते हैं। धर्म ध्यान के चार प्रकार हैं-आणाविजते, अपायविजते, विवागविजते, संटाणविजते। यहां 'विजत' शब्द विचय का प्राकृत रूप है। अभयदेवसूरि ने इसका संस्कृत रूप विचय किया है।' अणुओगदाराई में अधीतग्रन्थ के विषय में 'सिक्खितं ठितं जितं मितं परिजितं' शब्द प्रयुक्त हुए हैं। इनमें चित और परिचित का प्राकृत रूप जित और परिजित है। शिक्षित के बाद वह विषय 'स्थित' अर्थात् अविस्मृत होता है। चित का अर्थ है-तत्काल स्मृति में आने योग्य हो जाना।
हरिभद्रसूरि ने दशवकालिक की वृत्ति में 'जित' शब्द का अर्थ 'परिचित' किया है। अन्य स्थानों पर चकार के स्थान पर जकार
टाणं में तीन प्रकार के जिन बतलाए गये हैं-तओ जिणा पण्णता, तं जहा-ओहिणाणजिणे, मणपज्जवणाणजिणे, केवलणाणजिणे।"
अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी और केवलज्ञानी ये तीनों प्रत्यक्षज्ञानी हैं।
व्याख्याकारों ने 'जिन' शब्द की व्युत्पत्ति 'राग-द्वेष-विजेता' की है, किन्तु इसका अर्थ सर्वज्ञ किया है।” स्थानांग के वृत्तिकार यदि जिन शब्द का अर्थ प्रत्यक्षज्ञानी करते, तो उन्हें अवधिज्ञानी
और मनःपर्यवज्ञानी को उपचरित जिन और केवलज्ञानी को निरुपचरित जिन मानना आवश्यक नहीं होता, जैसा कि उन्होंने माना है।" ठाणं के अनुसार चतुर्दशपूर्वी मुनि जिन न होते हुए भी जिन
६. (क) आ.चू.पृ.७६ ।
(ख) वि.भा.गा.८५१ (ग) वि.भा.कोट्याचार्य, वृ.प.२७३–परिचितमेव । (घ) नमस्कार स्वाध्याय, प्राकृत विभाग, पृ.५३; महानिशीथ-थिरं परि
चियं ।
१. भ.वृ.१७जयति-निराकरोति रागद्वेषादिरूपानरातीनिति जिनः। जाना-
ति छानस्थिकज्ञानचतुष्टयेनेति ज्ञायकः । २. आप्टे.-चि-(Vedic) to perceive. ३. हेमचन्द्र, प्राकृत व्याकरण,१1१७७–क्वचिच्चस्य जः-पिशाची–पिसाजी । ४. ठाणं,४/६५) ५. स्था.वृ.प.१७६-आ-अभिविधिना ज्ञायन्तेऽर्था यया सा आज्ञा-प्रवचनं
सा विचीयते निर्णीयते पर्यालोच्यते वा यस्मिंस्तदाज्ञाविचयं धर्मध्यानमिति प्राकृतत्वेन विजयमिति। ६. अनु.सू.१३;अनु.मल.वृ.प.१३ । ७. (क) अनु.चू.पृ.७-जं परवत्तयतो परेण वा पुच्छितस्स आदिमझते सव्वं वा सिग्घमागच्छति तं जितं । (ख) अनु.हा.वृ.प.६–जितमिति परिपाटी कुर्वतो द्रुतमागच्छति। (ग) अनु.मल.वृ.प.१४–परावर्तनं कुर्वतः परेण वा क्वचित् पृष्टस्य यच्छीघ्रमागच्छति तजितं । ८. हा.वृ.प.२३५-जितां परिचिताम् ।
(छ) सूय.२।२।३०–अदुत्तरं च णं पुरिसविजयं विभंगमाइक्खिस्सामि । १०. ठाणं,३।५१२ । ११. (क) नि.भा.चू.भाग ४,पृ.३५७–जिणा केवलिणो।
(ख) स्था.वृ.प.१६४-जिनाः सर्वज्ञाः।
(ग) वि.भा.कोट्याचार्य वृ.प.८६० -जिनाः केवलिनः । १२. स्था.वृ.प.१६४ तओ जिणेत्यादि सुगमा, नवरं रागद्वेषमोहान् जयन्तीति जिनाः-सर्वज्ञाः तथा जिना इव ये वर्तन्ते निश्चयप्रत्यक्षज्ञानतया तेऽपिजिनास्तत्रावधिज्ञानप्रधानो जिनोऽवधिजिनः एवमितरावपि, नवरमाद्यावुपचरितावितरो निरुपचारः उपचारकरणं तु प्रत्यक्षज्ञानित्वमिति ।
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