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________________ श.१: उ.१: सू.७-६ १४ भगवई सदृश होते हैं और वे जिन की भांति ही अपना व्याकरण करते हैं।' वृत्तिकार ने लिखा है कि वे सर्वज्ञ नहीं हैं, इसलिए जिन नहीं हैं, किन्तु सकल संशयों का उच्छेद करने में वे जिन के समान हैं। उक्त विवेचन से यह फलित होता है कि 'जिन' का अर्थ प्रत्यक्षज्ञानी अथवा अतीन्द्रिय ज्ञानी है। प्रस्तुत प्रकरण में 'जिणे जाणए' यह एक युगल है। वह ज्ञान से संबंधित है। इसके आगे 'बुद्धे बोहए' 'मुत्ते मोयए'-ये दो युगल उल्लिखित हैं। 'बुद्ध' का अर्थ है ज्ञाता और 'बोधक' का अर्थ है बोध देने वाला। मुक्त का अर्थ है ग्रन्थि से मुक्त और मोचक का अर्थ है दूसरों को ग्रन्थि से मुक्त कराने वाला। इसी प्रकार 'जिन' का अर्थ है ज्ञाता और जाणय का अर्थ है...दूसरों को ज्ञान देने वाला । जैसे उत्तरवर्ती दोनों युगल एकविषयक हैं, वैसे ही जिणे और जाणए एकविषयक हैं। जावय का अर्थ ज्ञापक होता है। जाणय और जावय ८. परिसा निग्गया। धम्मो कहिओ। पडिगया परिसा॥ परिषद्, निर्गता। धर्मः कथितः। प्रतिगता ८. परिषद् ने नगर से निर्गमन किया। भगवान् ने परिषद् । धर्म कहा। परिषद् वापस नगर में चली गई। ६. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतः ६.'उस काल और उस समय श्रमण भगवान् महावीर भगवओ महावीरस्स जेठे अंतेवासी महावीरस्य ज्येष्ठः अन्तेवासी इन्द्रभूतिः नाम के ज्येष्ठ अन्तेवासी गौतमसगोत्र' सात हाथ की इंदभूती नाम अणगारे गोयमसगोत्ते णं अनगारः गौतमसगोत्रः सप्तोत्सेधः समचतुरस्र- ऊंचाई वाले, समचतुख संस्थान से संस्थित, सत्तस्सेहे समचउरंससंठाणसंठिए बजरिसभ- संस्थानसंस्थितः वज्रर्षभनाराचसंहननः कनक- वज्रऋषभनाराच संहनन-युक्त , कसौटी पर नारायसंघयणे कणगपुलगनिघसपम्हगोरे पुलकनिकषपक्ष्मगौरः उग्रतपाः दीप्ततपाः खचित स्वर्ण-रेखा तथा पद्मकेसर की भांति उग्गतवे दित्ततवे तत्ततवे महातवे ओराले तप्ततपाः महातपाः 'ओराले घोरः घोरगुणः पीताभ गौर वर्ण वाले', उग्रतपस्वी, दीप्ततपस्वी, घोरे घोरगुणे घोरतवस्सी पोरबंभचेरवासी घोरतपस्वी घोरब्रह्मचर्यवासी उत्क्षिप्तशरीरः तप्ततपस्वी, महातपस्वी, महान्, घोर, घोर गुणों उच्छूढसरीरे संखित्तविउलतेयलेस्से चोद्दस- संक्षिप्तविपुलतेजोलेश्यः चतुर्दशपूर्वी चतु- से युक्त, घोरतपस्वी, घोरब्रह्मचर्यवासी', लधिपुची चउनाणोवगए सव्वक्खरसत्रिवाती ानोपगतः सर्वाक्षरसंनिपाती श्रमणस्य भग- माऋद्धि-सम्पन्न , विपुल तेजोलेश्या को अन्तर्लीन समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते वतो महावीरस्य अदूरसामन्ते ऊर्ध्वजानुः रखने वाले , चतुर्दशपूर्वी , चार ज्ञान से समन्वित उहुंजाणू अहोसिरे झाणकोट्ठोवगए संजमेणं अधःशिराः ध्यानकोष्ठोपगतः संयमेन तपसा और सर्वाक्षरसन्निपाती लब्धि से युक्त इन्द्रभूति तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ ।। आत्मानं भावयन् विहरति । नामक अनगार श्रमण भगवान महावीर के न अति दूर और न अति निकट, ऊर्ध्वजानु अधःसिर (उकडू आसन की मुद्रा में)" और ध्यानकोष्ठ में लीन होकर संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए रह रहे हैं। भाष्य १. सूत्र ६ प्रस्तुत सूत्र में प्रथम गणधर इन्द्रभूति के अंतरंग और बाह्य व्यक्तित्व का समग्रता से निरूपण हुआ है। इसमें आनुवंशिकी (जेनेटिक साइंस), आकृति-विज्ञान, मनोविज्ञान आदि की दृष्टियों से कई नये तथ्य उपलब्ध होते हैं। व्यक्तित्व-निर्माण में अनेक घटक तत्त्वों का योग होता है। यह प्रस्तुत सूत्र के आधार पर स्पष्टता से जाना जा सकता है। २. अन्तेवासी अन्तेवासी का शाब्दिक अर्थ है-निकट रहने वाला। इन्द्रभूति गौतम सदा भगवान् महावीर के सन्निकट रहते थे, इसलिए उन्हें अन्तेवासी कहा गया। बौद्ध साहित्य में अन्तेवासी को 'सद्धिं विहारी'-आचार्य के साथ विहार करने वाला, रहने वाला कहा गया है।' ठाणं में अन्तेवासी के चार प्रकार बतलाए गये हैं"कुछ प्रव्राजना-अन्तेवासी होते हैं, उपस्थापना-अन्तेवासी नहीं होते। कुछ उपस्थापना-अन्तेवासी होते हैं, प्रव्राजना-अन्तेवासी नहीं होते। कुछ प्रव्राजना-अन्तेवासी भी होते हैं, उपस्थापना-अन्तेवासी भी होते हैं। कुछ न प्रव्राजना-अन्तेवासी होते हैं और न उपस्थापना-अन्तेवासी होते हैं, वे धन्तेिवासी होते हैं।" १. ठाणं,३।५३४--समणस्स णं भगवतो महावीरस्स तिण्णि सया चउद्दसपुवीणं अजिणाणं जिणसंकासाणं सव्वक्खरसन्निवातीणं जिणा इव अवितहं वागर- माणाणं उक्कोसिया चउद्दसपुब्बिसंपया हुत्था। २. स्था.वृ.प.२७४–अजिनानामसर्वज्ञत्वात् जिनसंकाशानामविसंवादिवचनत्वात् यथापृष्टनिर्व्वक्तृत्वाच । ३. सम.१।२। ४. सुत्तनिपात, ३।११। ५. ठाणं, ४१४२४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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