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भगवई
श.१: उ.१: सू.६
प्रव्राजना-अन्तेवासी-जो केवल प्रव्रज्या (मुनि-दीक्षा या आगम-साहित्य में आकृति के आधार पर मनुष्य को छह वर्गों में सामायिक चारित्र) की दृष्टि से आचार्य के पास रहे।
वर्गीकृत किया गया है-१.समचतुरस्त्र २.न्यग्रोध परिमंडल ३.सादि उपस्थापना-जन्तेवासी जो केवल उपस्थापना (महाव्रत आरो- ४.कुब्ज ५.वामन ६.हुड। पण या छेदोपस्थापनीय चारित्र) की दृष्टि से आचार्य के पास रहे। वृत्तिकार के अनुसार समचतुरस्त्र संस्थान की व्याख्या इस प्रकार धर्मान्तेवासी-जो केवल धर्म-श्रवण के लिए आचार्य के पास
है: सम-नाभि के ऊपर और नीचे के अवयव सकल पुरुष-लक्षणों रहे।
से युक्त होने के कारण तुल्य; चतुरस्त्र का अर्थ है-प्रधान । जिसके यह जरूरी नहीं कि प्रत्येक प्रकार का अन्तेवासी भिन्न-भिन्न
__ अवयव सम और प्रधान हों, उसे समचतुरस्त्र संस्थान कहते हैं। आचार्य के पास रहे।
वृत्तिकार ने इसके तीन वैकल्पिक अर्थ किये हैंएक ही व्यक्ति धर्मान्तेवासी, प्रव्राजना-अन्तेवासी और उपस्था- १. शरीर-लक्षण के जो प्रमाण कहे गये हैं, चारों कोण उसीके पना-अन्तेवासी हो सकता है।
अविसंवादी हों, उसे समचतुरस्र संस्थान कहा जाता है। कोण का इसी प्रकार उद्देशना-अन्तेवासी, वाचना-अन्तेवासी और धर्मान्ते- अर्थ है--चारों दिशाओं (ऊपर, नीचे, दाएं और बाएं) से उपलक्षित वासी के विकल्प भी ज्ञातव्य हैं।'
शरीर के अवयव। ३. गौतमसगोत्र
२. शरीर के चारों ही कोण न न्यून और न अधिक हों, उसे समचतुरस्त्र व्यक्तित्व निर्माण का आधारभूत तत्त्व है वंश-परम्परा। आनु
कहा जाता है—पर्यंक-आसन में बैठे हुए व्यक्ति के वंशिकी के अनुसार व्यक्ति वैसा ही बनता है, जैसा वह संस्कार-सूत्र
(१) दोनों जानुओं का अन्तर
(२) आसन और ललाट के उपरी भाग का अन्तर (gene) और गुणसूत्र (chromosome) लेकर आता है। इन्द्रभूति, उस समय के प्रतिष्ठित गौतम नाम के गोत्र में उत्पन्न हुए थे। स्वस्थ
(३) दक्षिण स्कन्ध से वाम जानु का अन्तर वंश-परंपरा से उन्हें आभिजात्य संस्कार सहज उपलब्ध थे।
(४) वाम स्कन्ध से दक्षिण जानु का अन्तर। ये चार कोण हैं।
३. पर्यंकासन में बैठने पर जिसकी ऊंचाई और विस्तार समान हों उस ४. सात हाथ ऊंचाई वाले, समचतुरस्र संस्थान से संस्थित,
संस्थान को समचतुरस्र कहा जाता है। वज्रऋषभनाराच संहनन-युक्त इन तीनों विशेषणों के द्वारा आर्य गौतम की लंबाई, विशिष्ट
स्थानांग वृत्ति में समचतुरस्त्र का अर्थ इस प्रकार किया गया
है'-शरीर के सभी अवयव जहां अपने-अपने प्रमाण के अनुसार शरीर-रचना (आकृति) और संहनन (अस्थिबन्ध) की सूचना मिलती है। उनके शरीर की ऊंचाई सात हाथ की थी। चौबीस अंगुल का
होते हैं, वह समचतुरस्त्र संस्थान है। अत्र का अर्थ है-कोण। जहां
शरीर के चारों कोण समान हों, वह समचतुरस्र संस्थान है। एक हाथ होता है।
तत्त्वार्थराजवार्तिक में इसकी व्याख्या भिन्न प्रकार से की गई आज मनोविज्ञान के क्षेत्र में उक्त तथ्यों के आधार पर व्यक्ति
है--समचतुरस्त्र-जिस शरीर रचना में ऊर्ध्व, अधः और मध्य भाग की मनोवृत्तियों और उसके सम्पूर्ण आंतरिक व्यक्तित्व का विश्लेषण
सम होता है, उसे समचतुरस्त्र संस्थान कहा जाता है। एक कुशल किया जाता है। मनोविज्ञान के अनुसार व्यक्तित्व-विकास में तीन
शिल्पी के द्वारा निर्मित चक्र की सभी रेखाएं समान होती हैं, इसी शारीरिक तत्त्वों का विशेष प्रभाव पड़ता है। वे ये हैं-१. जैव-रसायन २. शारीरिक गठन और स्वास्थ्य ३. तन्त्रिका तंत्र। आकार,
प्रकार इस संस्थान में सब भाग समान होते हैं।' रूप, रंग, वजन, शरीर-परिमाण–ये व्यक्तित्व के प्रत्यक्ष पहलु हैं।
धवला के अनुसार समान मान और उन्मान वाला शरीर-संस्थान आगम-साहित्य में उपलब्ध व्यक्तित्व-वर्णन के ये दो पहल-संस्थान समचतुरस्र है। समचतुरस्त्र की अनेक व्याख्याएं उपलब्ध हैं। इनमें और संघात आधुनिक दृष्टि से भी विशेष मूल्यवान हैं। आज वृत्तिकार द्वारा व्याख्यायित दूसरा और तीसरा विकल्प अधिक संगत शरीर-संस्थान के आधार पर व्यक्तित्व-विश्लेषण की पद्धति बहुत विकसित हो चुकी है। किस प्रकार की आंखों वाला, किस प्रकार वज्रऋषमनाराच संहनन की नाक वाला, किस प्रकार के चेहरे वाला व्यक्ति कैसा होता है,
संहनन का अर्थ है-अस्थि-संचय। उसका स्वभाव कैसा होता है, वह कौन-से कार्यक्षेत्र में सफल होता है, ठिगने व्यक्ति की मनोवृत्तियां कैसी होती हैं और लम्बे की कैसी
अस्थि-कील के लिए 'वज्र', परिवेष्टन अस्थि के लिए 'ऋषभ' होती हैं--इन सबका विशद वर्णन उपलब्ध होता है।
और परस्पर गूंथी हुई आकृति के लिए 'नाराच' शब्द का प्रयोग
किया गया है। समचतुरस्र संस्थान
जिस शरीर में परस्पर गूंथी हुई अस्थियों और परिवेष्टित संस्थान का अर्थ है आकृति, शरीर के अवयवों की रचना।
१. ठाणं, ४१४२५/ २. भ.६।१३४---चउवीसं अंगुलाई रयणी। ३. भ.बृ.91६1
४. स्था.वृ.प.३३८। ५. त.रा.वा.पृ.५७६,५७७। ६. ष.खं.धवला,पु.१३,खं.५,भा.५,सू.१०७,पृ.३६५ ।
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