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श.१: उ.१: सू.६
भगवई
ग्रन्थियों को अस्थि-कील द्वारा आर-पार कसा हुआ हो, उसको वज्र-ऋषभ-नाराच संहनन कहते हैं
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कुछ आचार्य अस्थियों को ही कीलिका मानते हैं।' ५. कसौटी पर खचित स्वर्ण-रेखा तथा पद्म-केसर की भांति पीताम गौरवर्ण वाले
इस विशेषण से वर्ण के आधार पर गणधर गौतम के व्यक्तित्व का वर्णन किया गया है। इससे एक बात और ध्वनित होती है कि अच्छे व्यक्तित्व के लिए मात्र गौरवर्ण ही पर्याप्त नहीं हैं, वह दीप्तिमान भी होना चाहिए। महत्त्व मात्र रंग का नहीं, आभा का भी होता है। आर्य गौतम का देह स्वर्णाभ था। वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'कसौटी पर खींची हुई स्वर्ण-रेखा' तथा 'पदम के पक्ष्म की भांति गौर' किया है। यहां पक्ष्म को रेखा से पृथक कर दो अर्थ किए गए हैं। यह संगत नहीं है। वृत्तिकार द्वारा उद्धृत वृद्धव्याख्या का अर्थ संगत है। वृद्धव्याख्या के अनुसार इसका अर्थ है-स्वर्ण-रेखा के पक्ष्म की भांति गौर ।' 'पम्ह' शब्द का संस्कृत रूप 'पद्म' नहीं बनता, किन्तु 'पक्ष्म' बनता है। उसका अर्थ है पद्म-केसर । ६. उग्र तपस्वी...........घोरब्रह्मचर्यवासी
उग्गतवे से लेकर सव्वक्खरसत्रिवाती तक चौदह विशेषणों के द्वारा गौतम की योगज विभूतियों-लब्धियों का महत्त्वपूर्ण वर्णन किया गया है। वृत्तिकार ने उग्गतवे आदि पदों का केवल शाब्दिक अर्थ किया है
उग्रतपस्वी असाधारण तप करने वाला। दीप्ततपस्वी प्रज्वलित धर्मध्यान रूप तप करने वाला। तप्ततपस्वी-जिसका तप मूर्तिमान् बन जाए।
महातपस्वी आशंसा से मुक्त तप करने वाला।
ओराल—अल्पसत्त्व के लिए भयंकर अथवा प्रधान तप करने वाला। ओराल देशी शब्द है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ भीम किया है, किन्तु अन्य आचार्यों का मत उद्धत करते हुए उन्होंने इसका अर्थ उदार-प्रधान किया है। पंचसंग्रह में 'ओराल' के अनेक पर्यायवाची शब्द बतलाए गए हैं। उनमें एक है—महान् ।'
घोर—परीषहजयी और इन्द्रियजयी तप करने वाला । घोरगुण असाधारण मौलिक गुणों का विकास करने वाला। घोरतपस्वी-घोर तप करने वाला ।
घोरब्रह्मचर्यवासी-अल्पसत्त्व मनुष्यों के द्वारा दुरनुचर ब्रह्मचर्य की आराधना करने वाला।
दिगम्बर परम्परा के साहित्य को देखने से पता चलता है कि उग्गतवे आदि का अर्थाम्नाय श्वेताम्बर परम्परा में विस्मृत हो गया। इसीलिए वृत्तिकार ने उसकी शब्दाश्रयी व्याख्या की। चूर्णि में इसकी व्याख्या उपलब्ध नहीं है।
तत्त्वार्थराजवार्तिक में इन में से कुछ पदों की मूलस्पर्शी व्याख्या उपलब्ध होती है। वहां तप के अतिशय की ऋद्धि के सात प्रकार बतलाए गए हैं-उग्रतप, दीप्ततप तप्ततप महातप घोरतप वीरपराक्रम और घोरब्रह्मचर्य।
उग्रतपस्वी-जो मुनि एक, दो यावत् मासिक आदि उपवास योग में से किसी एक उपवास-योग की आराधना प्रारंभ कर जीवन पर्यन्त उसका निर्वाह करता है, वह उग्रतपस्वी कहलाता है। आजीवक सम्प्रदाय में भी उग्रतप की परम्परा प्रचलित थी। ठाणं में आजीवकों के चार प्रकार के तप बतलाए गये हैं-उग्रतप, घोरतप, रसनि!हण, जिह्वेन्द्रिय-प्रतिसंलीनता।'
दीप्ततपस्वी-दीर्घकालीन उपवास करने पर भी जिसका कायिक, वाचिक और मानसिक बल प्रवर्धमान रहता है, मुंह में
१. भ.वृ.१६ २. वही,१६-कनकस्य–सुवर्णस्य 'पुलगं'ति यः पुलको-लवस्तस्य यो निकषः--कषपट्टके रेखालक्षणः तथा 'पम्ह'ति पद्मपक्ष्माणि-काराणितद्वद्गौरो यः स तथा । वृद्धव्याख्या तु-कनकस्य न लोहादेर्यः पुलकः-- सारो वर्णातिशयस्तप्रधानो यो निकषो रेखा तस्य यत्पक्ष्म-बहलत्वं तद्वद्गौरो यः स तथा । अथवा कनकस्य यः पुलको द्रुतत्वे सति विन्दुस्तस्य निकषो
-वर्णतः सदृशो यः स तथा 'पम्ह'त्ति पनं तस्य चेह प्रस्तावात्केशराणि गृह्यन्ते ततः पद्मवद्गौरो यः स तथा। ३. हेमचन्द्र, प्राकृतव्याकरण,२।७४---पक्ष्म-श्म-अ-स्म-ह्यां-म्हः । ४. पं.सं.(दि.)१/६३–पुरु महमुदारुरालं एगहूँ। ५. भ.वृ.१।६–'उग्गतवे'ति उग्रम्-अप्रधृष्यं तपः अनशनादि यस्य स उग्रतपाः, यदन्येन प्राकृतपुंसा न शक्यते चिन्तयितुमपि तद्विधेन तपसा युक्त इत्यर्थः। 'दित्ततवे'त्ति दीप्तं-जाज्वल्यमानदहन इव कर्मवनगहनदहन- समर्थतया ज्वलितं तपो-धर्मध्यानादि यस्य स तथा । 'तत्ततवे'त्ति तप्तं तपो येनासौ तप्ततपाः एवं हि तेन तत्तपस्तप्तं येन कर्माणि संताप्य तेन तपसा स्वा
माऽपि तपो रूपः संतापितो यतोऽन्यस्यास्यास्पृश्यमिव व जातमिति । महातवे'त्ति आशंसादोषरहितत्वात्प्रशस्ततपाः। 'ओराले'त्ति भीम उग्रादिविशेषणविशिष्टतपःकरणात्पार्श्वस्थानामल्पसत्त्वानां भयानक इत्यर्थः। अन्ये त्वाहुः---'ओराले'त्ति उदारः प्रधानः। 'घोरे'त्ति घोरः अतिनिघृणः परीष हेन्द्रियादिरिपुगणविनाशमाश्रित्य निर्दय इत्यर्थः। अन्ये त्वात्मनिरपेक्ष घोर माहुः। 'घोरगुणे'त्ति घोरा–अन्यैर्दुरनुचरा गुणा—मूलगुणादयो यस्य स तथा । 'घोरतवस्सिति घोरैस्तपोभिस्तपस्वीत्यर्थः । 'घोरबंभचेरवासित्ति घोरं
-दारुणमल्पसत्त्चैर्दुरनुचरत्वाद्यद् ब्रह्मचर्यं तत्र वस्तुं शीलं यस्य स तथा । ६.त.रा.वा.३.३६--तपोऽतिशयर्द्धि: सप्तविधा-उग्र-दीप्त-तप्त-महा-घोर-तपो
वीरपराक्रम-घोरब्रह्मचर्यभेदात्। ७.वही,३।३६-चतुर्थषष्ठाष्टमदशमद्वादशपक्षमासाद्यनशनयोगेष्वन्यतमयोगमारभ्य
आमरणादनिवर्तका उग्रतपसः। ८.ठाणं,४।३५०-आजीवियाणं चउबिहे तवे पण्णत्ते, तं जहा—उग्गतवे, घोर
तवे, रसणिजूहणता, जिमिंदियपडिसंलीणता ।
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