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भगवई
छिंदेजा, ततो णं भंते! से पुरिसे कतिकिरिए ?
गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे तं पुरिसं सत्तीए समभिधंसेति सयपाणिणा वा से असिणा सीसं छिंदति तावं च णं से पुरिसेकाइयाए, अहिगरणियाए, पाओसियाए, पारितावणियाए, पाणातिवातकिरियाए - पंचहि किरियाहिं पुट्ठे । आसण्णवधएण य अणवकंखणवत्तीए णं सवेरे पुढे ॥
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ततः भदन्त ! स पुरुषः कतिक्रियः ?
गौतम ! यावच् च स पुरुषः तं पुरुषं शक्त्या समभिध्वंसति स्वकपाणिना वा तस्य असिना शीर्षं छिनत्ति — तावच् च स पुरुषः कायिक्या, आधिकरणिक्या, प्रादोषिक्या, पारितापनिक्या, प्राणातिपातक्रियया -- पञ्चभिः क्रियाभिः स्पृष्टः । आसन्नवधकेन च अनवकाङ्क्षणवृत्त्या पुरुषवैरेण स्पृष्टः ।
भाष्य
१. सूत्र ३६४ ३७२
प्रस्तुत आलापक में हिंसात्मक प्रवृत्ति पर विभज्यवाद की दृष्टि से विचार किया गया है। केवल प्राणवध करना ही हिंसा नहीं है । किसी का प्राणवध करने के लिए कायिक चेष्टा करना भी हिंसा है। आगम की भाषा में वह 'कायिकी क्रिया' है। शस्त्र का प्रयोग करना भी हिंसा है। आगम की भाषा में वह 'आधिकरणिकी क्रिया' है। मन का द्वेषपूर्ण होना भी हिंसा है, आगम की भाषा में वह 'प्रादोषिकी क्रिया' है। परिताप देना भी हिंसा है। आगम की भाषा में वह 'पारितापनिकी क्रिया' है। प्राणवियोजनात्मक हिंसा प्राणातिपात है ।
यहां हिंसा की कुछ समस्याएं प्रस्तुत कर उनका समाधान दिया गया है। एक व्याध मृग को मारने के लिए कूटपाश की रचना करता है। वह हिंसक है या नहीं ? इस समस्या का समाधान विभज्यवाद के आधार पर किया जा सकता है। वह मारने के लिए चेष्टा कर रहा है; इसलिए उसे अहिंसक नहीं कहा जा सकता और वह न मृग को परिताप दे रहा है, न उसका प्राणवध कर रहा है। इस दृष्टि से उसे मारने वाला भी नहीं कहा जा सकता । हिंसा एक परम्पराबद्ध प्रवृत्ति है। मानसिक द्वेष, कायिक चेष्टा और शस्त्र का प्रयोग — ये सब हिंसा की शृंखला की कड़िया हैं। परिताप और प्राणवध हो या न हो, हिंसा के लिए शारीरिक प्रयत्न करने वाला हिंसक होगा। इस आधार पर सूत्रकार ने इस मर्म का उद्घाटन किया है कि किसी को परितप्त करना या किसी का प्राण- वियोजन करना ही हिंसा नहीं है। किसी को मारने के लिए संकल्प करना, प्रणिधान करना, कायिक परिष्पन्द करना और वध की सामग्री जुटाना भी हिंसा है।
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१. पा.यो. द. २।१२ क्लेशमूलः कर्माशयो दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः । भाष्य-तत्र पुण्यापुण्यकर्माशयः कामलोभमोहक्रोधप्रसवः । स दृष्टजन्मवेदनीयश्चादृष्टजन्मवेदनीयश्च तत्र तीव्रसंवेगेन मन्त्रतपः समाधिभिर्निर्वर्तित ईश्वरदेवतामहर्षिमहानुभावानामाराधनाद्वा यः परिनिष्पन्नः स सद्यः परिपच्यते पुण्यकर्माशय इति । तथा तीव्रक्लेशेन भीत-व्याधित— कृपणेषु विश्वासो -
श. १: उ.८ः सू. ३६४-३७२
द्वारा उसका सिर काटे, तो उससे वह पुरुष कितनी क्रियाओं से युक्त होता है ?
गौतम ! जब वह पुरुष उस पुरुष को शक्तिबरछा से मारता है या अपने हाथ से तलवार द्वारा उसका सिर काट देता है, उस समय वह पुरुष कायिकी, आधिकरणिकी, प्रादोषिकी, पारितापनिकी और प्राणातिपातक्रिया - इन पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होता है।
वह पुरुष आसन्नवधक होने तथा पर-प्राणों के प्रति निरपेक्ष वृत्तिके कारण पुरुष-वैर से स्पृष्ट होता है।
हिंसा की एक दूसरी समस्या प्रस्तुत की गई है— एक पुरुष मृग को मारने के लिए बाण चलाने की मुद्रा में है। इस स्थिति में कोई दूसरा मनुष्य आकर उसे मार डालता है। उस म्रियमाण पुरुष के हाथ से बाण छूटता है और मृग मर जाता है। इस अवस्था में मृग का वधक किसे माना जाए ? क्या उस धनुर्धर को माना जाए अथवा उसे मारने वाले को माना जाए ? सूत्रकार ने इस समस्या का समाधन यह दिया है कि धनुर्धर को मारने वाले का मृग को मारने का संकल्प नहीं है; इसलिए वह मृग का वधक नहीं होता । वह धनुर्धर का ही वधक है और धनुर्धर का संकल्प उस बाण के साथ जुड़ा हुआ है; इसलिए मृग का वधक वही होगा । 'क्रियमाण कृत' इस सिद्धान्त के अनुसार उसने प्रत्यञ्चा पर बाण को चढ़ा दिया और प्रत्यञ्चा खींचकर धनुष्य को वर्तुलाकार बना दिया। वह बाण को फेंकने की तैयारी में था। इस प्रकार 'निसृज्यमाण निसृष्ट' होता है । इस दृष्टि से वह धनुर्धर पुरुष ही मृग का वधक होगा।
इस समस्या में मुख्यतः वैर के विषय पर विचार किया गया है। गौण रूप में क्रिया पर विचार किया गया है। वैर-बंध के दो कारण हैं- आसन्नवध और अनवकांक्षण-वृत्ति । वधक वध्य को मारता है, तब वैर का बंध होता है। उस बंध के फलस्वरूप वध्य निकट भविष्य में वधक को मार डालता है। आसन्नकाल में कर्मविपाक का सिद्धान्त योग सूत्र में भी मिलता है। महर्षि पतञ्जलि ने कर्माशय को दृष्टजन्मवेदनीय और अदृष्टजन्मवेदनीय बतलाया है। भाष्यकार के अनुसार तीव्र संवेग से किया हुआ पुण्य और तीव्र क्लेश से किया हुआ पाप सद्योविपाकी होता है।' वृत्तिकार अभयदेवसूरि ने आसन्नवध
पगतेषु वा महानुभावेषु वा तपस्विषु कृतः पुनः पुनरपकारः स चापि पापकर्माशयः सद्यः एव परिपच्यते । यथा नन्दीश्वरः कुमारो मनुष्यपरिणामं हित्वा देवत्वेन परिणतः, तथा नहुषोऽपि देवानामिन्द्रः स्वकं परिणामं हित्वा तिर्यकत्वेन परिणत इति ।
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