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भगवई
श.१: उ.. सू.३६६-३७२
१६४ एवं बुबइ–सिप तिकिरिए, सिय चउ- मुच्यते—स्यात् त्रिक्रियः, स्याच् चतुःक्रियः, किरिए, सिय पंचकिरिए॥
स्यात् पञ्चक्रियः।
इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-वह स्यात् तीन, स्यात् चार और स्यात् पांच क्रियाओं से युक्त होता है।
३७०. परिसे णं भंते ! कच्छंसि वा जाव वण- पुरुषः भदन्त ! कच्छे वा यावत् वनविदुर्गे ३७०. भन्ते ! कोई मृगाजीवी, मृग-वध के संकल्प
विदग्गसि वा मियवित्तीए मियसंकप्पे मिय- वा मृगवृत्तिकः मृगसंकल्पः मृगप्रणिधानः पणिहाणे मियवहाए गंता एते मिय त्ति काउं मृगवधाय गत्वा एते मृगाः इति कृत्वा लिए कच्छ यावत् दुर्गम वन में जाकर 'ये मृग अण्णतरस्स मियस्स वहाए आयतकण्णा- अन्यतरस्य मृगस्य वधाय आयत-कायतं हैं' यह सोच किसी एक मृग के वध के लिए यतं उसु आयामेत्ता चिडेजा, अण्णयरे इषु आयम्य तिष्ठेद्, अन्यतरः पुरुषः ‘मग्गतो' बाण को आयत कर्णायत–कान तक खींचकर पुरिसे मग्गतो आगम्म सयपाणिणा असिणा आगम्य स्वकपाणिना असिना शीर्षं छिन्द्यात्, खड़ा हो, उसी समय कोई अन्य व्यक्ति पीछे से सीसं छिंदेजा, से य उसू ताए चेव पुबा- सच इधुं तेन चैव पूर्वायामनेन तं मृगं व्यधेत्, आकर अपने हाथ से तलवार द्वारा उसका सिर यामणयाए तं मियं विधेजा, से णं भंते! स भदन्त ! पुरुषः किं मृगवरेण स्पृष्टः ? पुरु- काट ले और वह बाण पहले से ही खिंचा हुआ पुरिसे किं मियवेरेणं पुढे ? पुरिसवेरेणं पुढे? षवैरेण स्पृष्टः ?
होने के कारण उस मृग को वेध डाले, तो भन्ते! वह व्यक्ति क्या मृग-वैर से स्पृष्ट होता है अथवा
पुरुष-वैर से स्पृष्ट होता है ? गोयमा ! जे मियं मारेइ, से मियवेरेणं पुढे। गौतम ! यः मृगं मारयति, स मृगवरेण स्पृष्टः। गौतम ! जो मृग को मारता है, वह मृग-वैर से जे पुरिसं मारेइ, से पुरिसवेरेणं पुढे ॥ यः पुरुषं मारयति, स पुरुषवैरेण स्पृष्टः। स्पृष्ट होता है और जो पुरुष को मारता है, वह
पुरुष-वैर से स्पृष्ट होता है।
३७१.सेकेणडेणं भंते ! एवं बुचइ-जे मियं मारेइ, से मियवेरेणं पुढे ? जे पुरिसं मारेइ, से पुरिसरेणं पुढे ?
तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते—यः मृगं मारयति, स मृगवैरेण स्पृष्टः? यः पुरुषं मार- यति, स पुरुषवैरेण स्पृष्टः ?
से नूणं गोयमा ! कजमाणे कडे, संधिज- अथ नूनं गौतम ! क्रियमाणं कृतम्, सन्धीय- माणे संघिते, निव्वत्तिजमाणे निबत्तिते, मान सन्धितम्, निर्वृत्त्यमानं निर्वृत्तितम्, निसृ- निसिरिजमाणे निसिढे त्ति वत्तव्वं सिया ? ज्यमानं निसृष्टम् इति वक्तव्यं स्यात् ? हंता भगवं ! कजमाणे कडे, संघिजमाणे हन्त भगवन् ! क्रियमाणं कृतम्, सन्धीयमानं संघिते, निव्वत्तिजमाणे निव्वत्तिते, निसि- सन्धितम्, निवृत्त्यमानं निर्वृत्तितम्, निसृरिजमाणे निसिढे त्ति वत्तव्वं सिया। ज्यमानं निसृष्टम् इति वक्तव्यं स्यात् ।
३७१. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है—जो मृग को मारता है, वह मृग-वैर से स्पृष्ट होता है ? जो पुरुष को मारता है, वह पुरुष-वैर से स्पृष्ट होता है ? गौतम ! क्रियमाण को कृत, संधीयमान (धनुष की प्रत्यञ्चा पर बाण चढ़ाया जा रहा है) को संधित, निर्वृत्त्यमान (प्रत्यञ्चा खींचने से धनुष को वर्तुल किया जा रहा है) को निवृत्तित और निसृज्यमान को निसृष्ट कहा जा सकता है ? हां, भगवन् ! क्रियमाण को कृत, संधीयमान को संधित, निवृत्त्यमान को निर्वृत्तित और निसृज्यमान को निसृष्ट कहा जा सकता है। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है जो मृग को मारता है, वह मृग-वैर से स्पृष्ट होता है और जो पुरुष को मारता है, वह पुरुष वैर से स्पृष्ट होता है। वह मृग छह मास के भीतर मरता है, तो कायिकी, आधिकरणिकी, प्रादोषिकी, पारितापनिकी और प्राणातिपातक्रिया-इन पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होता है। यदि वह छह मास के बाद मरता है, तो कायिकी, आधिकरणिकी, प्रादोषिकी और पारितापनिकी इन चार क्रियाओं से स्पृष्ट होता
से तेणटेणं गोयमा! एवं बुचइ-जे मियं मारेइ, से मियवेरेणं पुढे । जे पुरिसं मारेइ, से पुरिसवेरेणं पुढे ।
तत् तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते-यः मृगं मारयति, स मृगवैरेण स्पृष्टः । यः पुरुषं मार- यति, स पुरुषवैरेण स्पृष्टः।
अंतो छहं मासाणं मरइ-काइयाए, अन्तः षण्णां मासानां म्रियते-कायिक्या, अहिगरणियाए, पाओसियाए, पारिताव- आधिकरणिक्या, प्रादोषिक्या, पारितापनिणियाए, पाणातिवायकिरियाए-पंचहिं क्या, प्राणातिपातक्रियया–पञ्चभिः क्रिया- किरियाहिं पुढे । बाहिं छण्हं मासाणं मरइ भिः स्पृष्टः । बहिः षण्णां मासानां म्रियते-
-काइयाए, अहिगरणियाए, पाओसि- कायिक्या, आधिकरणिक्या, प्रादोषिक्या, याए, पारितावणियाए चाहिं किरियाहिं पारितापनिक्या-चतसृभिः क्रियाभिः
स्पृष्टः।
३७२. पुरिसे णं भंते पुरिसं सत्तीए समभि- पुरुषः भदन्त ! पुरुषं शक्त्या समभिध्वंसेत्, ३७२. भन्ते ! कोई पुरुष किसी पुरुष को शक्ति धंसेजा, सयपाणिणा वा से असिणा सीसं स्वकपाणिना वा तस्य असिना शीर्षं छिन्द्यात्, नामक प्रहरण से मारे या अपने हाथ से तलवार
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