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________________ भगवई १६३ श.१: उ.८ः सू.३६७-३६६ निसिरणयाए, णो दहणयाए-तावं च णं जनाय नो दहनाय-तावच् च सः पुरुषः से परिसे काइयाए, अहिंगरणियाए, पाओ- कायिक्या, आधिकरणिक्या, प्रादोषिक्या सियाए–तिहिं किरियाहिं पुढे । -तिसृभिः क्रियाभिः स्पृष्टः । जे भविए उस्सवणयाए वि, निसिरणयाए यः भव्यः उच्छ्य णाय अपि, निसर्जनाय दि–णो दहणयाए-तावं च णं से पुरिसे अपि-नो दहनायतावच् च सः पुरुषः काइयाए, अहिगरणियाए, पाओसियाए, कायिक्या, आधिकरणिक्या, प्रादोषिक्या, पारितावणियाए चउहि किरियाहिं पुढे । पारितापनिक्या-चतृसृभिः क्रियाभिः स्पृष्टः। जे भविए उस्सवणयाए वि, निसिरणयाए यः भव्यः उच्छ्य णाय अपि, निसर्जनाय वि, दहणयाए वि, तावं च णं से पुरिसे अपि, दहनाय अपि, तावच् च स पुरुषः काइयाए, अहिगरणियाए, पाओसियाए, कायिक्या, आधिकरणिक्या, प्रादोषिक्या, पारितावणियाए,पाणातिवायकिरियाए- पारितापनिक्या, प्राणातिपातक्रियया- पंचहिं किरियाहिं पुढे । से तेणटेणं गोयमा! पञ्चभिः क्रियाभिः स्पृष्टः। तत् तेनार्थेन एवं बुचइ-सिय तिकिरिए, सिय चउ- गौतम ! एवमुच्यते-स्यात् त्रिक्रियः, स्याच् किरिए, सिय पंचकिरिए। चतुःक्रियः, स्यात् पञ्चक्रियः।। न तो उसमें अग्नि का प्रक्षेप करता है और न उसे जलाता है, उस समय वह पुरुष कायिकी, आधिकरणिकी और प्रादोषिकी इन तीन क्रियाओं से स्पष्ट होता है। जो भव्य घास का देर भी लगाता है, उसमें अग्नि का प्रक्षेप भी करता है, पर उसे जलाता नहीं है, उस समय वह पुरुष कायिकी, आधिकरणिकी प्रादोषिकी और पारितापनिकी इन चार क्रियाओं से स्पृष्ट होता है। जो भव्य घास का ढेर भी लगाता है, उसमें अग्नि का प्रक्षेप भी करता है और उसे जलाता भी है, उस समय वह पुरुष कायिकी, आधिकरणिकी, प्रादोषिकी, पारितापनिकी और प्राणातिपातक्रिया-इन पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होता है। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है वह स्यात् तीन, स्यात् चार और स्यात् पांच क्रियाओं से युक्त होता है। ३६८. पुरिसे णं भंते ! कच्छंसि वा जाव वण- विदुग्गंसि वा मियवित्तीए मियसंकप्पे मियपणिहाणे मियवहाए गंता एते मिय त्ति काउं अण्णतरस्स मियस्स बहाए उसु निसिरति, ततो णं भंते ! से पुरिसे कतिकिरिए ? पुरुषः भदन्त ! कच्छे वा यावद् वनविदुर्गे ३६५. भन्ते ! कोई मृगाजीवी, मृग-वध के संकल्प वा मृगवृत्तिकः मृगसंकल्पः मृगप्रणिधानः मृग- वाला, मृग-वध में एकाग्रचित्त पुरुष मृग-वध के बधाय गत्वा एते मृगाः इति कृत्वा अन्यतरस्य लिए कच्छ यावत् दुर्गम वन में जाकर 'ये मृग मृगस्य वधाय इधू निसृजति, ततो भदन्त ! हैं'-यह सोच किसी एक मृग के वध के लिए स पुरुषः कतिक्रियः? बाण फेंकता है । भन्ते ! उससे वह पुरुष कितनी क्रियाओं से युक्त होता है ? गौतम ! स्यात् त्रिक्रियः, स्याच् चतुःक्रियः, गौतम ! वह स्यात् तीन, स्यात् चार और स्यात् स्यात् पञ्चक्रियः। पांच क्रियाओं से युक्त होता है। गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए॥ ३६६. से केणगुणं भंते ! एवं बुचइ-सिय तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते स्यात् त्रि- ३६६. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंच- क्रियः, स्याच् चतुःक्रियः, स्यात् पञ्चक्रियः? । किरिए ? पांच क्रियाओं से युक्त होता है ? गोयमा ! जे भविए निसिरणयाए–णो गौतम ! यः भव्यः निसर्जनाय नो विध्वं- गौतम ! जो भव्य बाण फेंकता है, पर न तो मृग विद्धंसणयाए, णो मारणयाए-तावं च णं सनाय, नो मारणाय-तावच् च स पुरुषः । को आहत करता है और न उसका प्राण-हरण से पुरिसे काइयाए, अहिगरणियाए, पाओ- कायिक्या, आधिकरणिक्या, प्रादोषिक्या- करता ह, उस समय वह पुरुष कायिकी, आधिसियाए–तिहिं किरियाहिं पुढे । तिसृभिः क्रियाभिः स्पृष्टः। करणिकी और प्रादोषिकी इन तीन क्रियाओं से स्पृष्ट होता है। जे भविए निसिरणताए वि, विद्धंसणताए यः भव्यः निसर्जनाय अपि, विध्वंसनाय अपि जो भव्य बाण भी फेंकता है, मृग को आहत भी कि-णो मारणयाए तावं च णं से पुरिसे -नो मारणाय-तावच् च स पुरुषः कायि- करता है, पर उसका प्राण-हरण नहीं करता, उस काइयाए, अहिगरणियाए, पाओसियाए, क्या, आधिकरणिक्या, प्रादोषिक्या, पारि- समय वह पुरुष कायिकी, आधिकरणिकी, प्रादोपारितावणियाए चाहिं किरियाहिं पुढे। तापनिक्या-चतसृभिः क्रियाभिः स्पृष्टः। षिकी और पारितापनिकी—इन चार क्रियाओं से स्पृष्ट होता है। जे भविए निसिरणयाए वि, विद्धंसणयाए यः भव्यः निसर्जनाय अपि, विध्वंसनाय अपि, जो भव्य बाण भी फेंकता है, मृग को आहत भी वि, मारणताए वि-तावं च णं से पुरिसे मारणाय अपि-तावच् च स पुरुषः कायि- करता है और उसका प्राण-हरण भी करता है, काइयाए, अहिगरणियाए, पाओसियाए, क्या, आधिकरणिक्या प्रादोषिक्या, पारिता- उस समय वह पुरुष कायिकी, आधिकरणिकी, पारितावणियाए, पाणातिवायकिरियाए- पनिक्या, प्राणातिपातक्रियया-पञ्चभिः प्रादोषिकी, पारितापनिकी और प्राणातिपातक्रिया पंचहि किरियाहिं पढे । से तेणद्वेणं गोयमा! क्रियाभिः स्पृष्टः । तत् तेनार्थेन गौतम ! एव- -इन पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होता है। गौतम! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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