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________________ श.१: उ.८ः सू.३६४-३६७ १६२ भगवई वा गहणंसि वा गहणविदुग्गंसि वा पव्वयंसि गहनविदुर्गे वा पर्वते वा पर्वतविदुर्गे वा वने लिए कच्छ (नदी-तटीय प्रदेश), द्रह, उदग (जलावा पब्बयविदुग्गंसि वा वर्णसि वा वण- वा बनविदुर्गे वा मृगवृत्तिकः मृगसंकल्पः मृग- शय), 'दविय' (घास के जंगल अथवा गोचर विदग्गंसि वा मियवित्तीए मियसंकप्पे मिय- प्रणिधानः मृगवधाय गत्वा एते मृगाः इति भूमि), वलय (वृत्ताकार नदी-प्रदेश), 'नूम' (प्रच्छपणिहाणे मियवहाए गंता एते मिय त्ति काउं कृत्वा अन्यतरस्य मृगस्य वधाय कूटपाशम् । त्र प्रदेश), अरण्य, दुर्गम अरण्य, पर्वत, दुर्गम अण्णयरस्स मियस्स वहाए कूडपासं उद्दा- उद्घति, ततो भदन्त ! स पुरुषः कति- पर्वत, वन, दुर्गम वन में जाकर 'ये मृग हैं' यह ति, ततो णं भंते ! से पुरिसे कतिकिरिए? क्रियः? सोच किसी एक मृग के वधके लिए कूटपाश बांधता है। भन्ते ! उससे वह पुरुष कितनी क्रियाओं से युक्त होता है ? गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, गौतम ! स्यात् त्रिक्रियः, स्याच् चतुःक्रियः, गौतम ! वह स्यात् (कदाचित्) तीन, स्यात् चार सिय पंचकिरिए। स्यात् पञ्चक्रियः। और स्यात् पांच क्रियाओं से युक्त होता है। ३६५. से केणटेणं भंते ! एवं बुचइ-सिय तिकिरिए ? सिय चउकिरिए ? सिय पंचकिरिए? तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते—स्यात् ३६५. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा त्रिक्रियः ? स्याच् चतुःक्रियः ? स्यात् पञ्च- है-वह पुरुष स्यात् तीन, स्यात् चार और स्यात् क्रियः ? पांच क्रियाओं से युक्त होता है ? गोयमा ! जे भविए उद्दवणयाए–णो बंध- गौतम ! यः भव्यः उद्दानाय-नो बन्धनाय, णयाए, णो मारणयाए-तावं च णं से नो मारणाय-तावच् च स पुरुषः कायिक्या, पुरिसे काइयाए, अहिंगरणियाए, पाओसि- आधिकरणिक्या, प्रादोषिक्या-तिसृभिः याए—तिहिं किरियाहिं पढे। क्रियाभिः स्पृष्टः। जे भविए उद्दवणताए वि, बंधणताए यः भव्यः उद्दानाय अपि, बन्धनाय अपि- वि-णो मारणताए-तावं च णं से पुरिसे नो मारणाय-तावच् च स पुरुषः कायिक्या, काइयाए, अहिगरणियाए, पाओसियाए, आधिकरणिक्या, प्रादोषिक्या, पारितापपारितावणियाए चउहि किरियाहिं पुढे । निक्या-चतसृभिः क्रियाभिः स्पृष्टः । गौतम ! जो भव्य (व्यक्ति) कूट-पाश की रचना करता है, पर न मृगको बांधता है और न उसे मारता है, उस समय वह पुरुष कायिकी, आधिकरणिकी और प्रादोषिकी इन तीन क्रियाओं से स्पृष्ट होता है। जो भव्य कूटपाश की व्यवस्था कर जो (बंधन आदि करेगा) कूटपाश को बांधता है और मृग को भी बांधता है, पर उसे मारता नहीं, उस समय वह पुरुष कायिकी, आधिकरणिकी, प्रादोषिकी और पारितापनिकी--इन चार क्रियाओं से स्पृष्ट होता है। जो भव्य कूटपाश को बांधता भी है, मृग को बांधता है और उसे मारता भी है, उस समय वह पुरुष कायिकी, आधिकरणिकी, प्रादोषिकी, पारितापनिकी और प्राणातिपातक्रिया-इन पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होता है। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-वह स्यात् तीन, स्यात् चार और स्यात् पांच क्रियाओं से युक्त होता है। जे भविए उद्दवणताए वि, बंधणताए वि, यः भव्यः उद्दानाय अपि, बन्धनाय अपि, मारणताए वि, तावं च णं से पुरिसे मारणाय अपि, तावच् च स पुरुषः कायिक्या, काइयाए, अहिगरणियाए, पाओसियाए, आधिकरणिक्या, प्रादोषिक्या, पारितापनि- पारितावणियाए, पाणातिवायकिरियाए- ___ क्या, प्राणातिपातक्रियया–पञ्चभिः क्रि पंचहि किरियाहिं पुढे । से तेणद्वेणं गोयमा! याभिः स्पृष्टः । तत् तेनार्थेन गौतम ! एव- एवं बुच्चइ-सिय तिकिरिए, सिय चउ- मुच्यते-स्यात् त्रिक्रियः, स्याच् चतुःक्रियः, किरिए, सिय पंचकिरिए। स्यात् पञ्चक्रियः। ३६६. पुरिसे णं भंते ! कच्छंसि वा जाव पुरुषः भदन्त ! कच्छे वा यावद् वनविदुर्गे ३६६. भन्ते ! कोई व्यक्ति कच्छ यावत् दुर्गम वन वणविदुग्गंसि वा तणाई ऊसविय-ऊसविय वा तृणानि उड्रित्य-उफ्रित्य अग्निकार्य में घास का ढेर लगा उसमें अग्नि का प्रक्षेप करता अगणिकायं निसिरइ-तावं च णं भंते ! निसृजति–तावच् च भदन्त ! स पुरुषः है। उस समय वह पुरुष कितनी क्रियाओं से से पुरिसे कतिकिरिए ? कतिक्रियः? युक्त होता है ? गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, गौतम ! स्यात् त्रिक्रियः, स्याच् चतुःक्रियः, गौतम ! स्यात् तीन, स्यात् चार और स्यात् पांच सिय पंचकिरिए॥ स्यात् पञ्चक्रियः। क्रियाओं से युक्त होता है। ३६७. से केणद्वेणं भंते ! एवं बुचइ-सिय तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-स्यात् त्रि- ३६७. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा तिकिरिए ? सिय चउकिरिए ? सिय पंच- क्रियः ? स्याच् चतुःक्रियः ? स्यात् पञ्च- है-वह पुरुष स्यात् तीन, स्यात् चार और स्यात् किरिए ? क्रियः ? पांच क्रियाओं से युक्त होता है ? गोयमा ! जे भविए उस्सवणयाए–णो गौतम ! यः भव्यः उच्छ्य णाय नो निस- गौतम ! जो भव्य घास का ढेर लगाता है, पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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