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भगवई
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श.१ उ. सू.३५६-३६४
से तेणं देसोवरम-देसपचक्खाणेणं णो नेरइ- याउयं पकरेति जाव देवाउयं किच्चा देवेसु उववजति । से तेणडेणं जाव देवाउयं किच्चा देवेसु उववजति ॥
रूप से प्रत्याख्यान नहीं करता। स तेन देशोपरम-देशप्रत्याख्यानेन नो नैरयि- वह उस आंशिक उपरम और आंशिक प्रत्याख्यान कायुः प्रकरोति यावद् देवायुः कृत्वा देवेषु । से नरक का आयुष्य नहीं बांधता यावत् देव का उपपद्यते। तत् तेनार्थेन यावद् देवायुः कृत्वा आयुष्य बांधकर देवों में उपपन्न होता है। इस देवेषु उपपद्यते।
अपेक्षा से यह कहा जा रहा है बालपण्डित मनुष्य यावत् देव का आयुष्य बांधकर देवों में उपपन्न होता है।
भाष्य
किया गया है। यह निश्चय के अर्थ में अथवा मिश्रण का व्यवच्छेद करने के लिए है। तीसरे विकल्प में बाल और पण्डित दोनों का मिश्रण है, किन्तु प्रथम और द्वितीय विकल्प में ये दोनों अमिश्रित
१. सूत्र ३५६-३६३
प्रस्तुत प्रकरण में 'बाल' और 'पण्डित' पारिभाषिक शब्द हैं। सूयगडो में अविरत को बाल, विरत को पण्डित और विरताविरत को बालपण्डित गहा गया है।'
वृत्तिकार ने एकांत बाल के दो अर्थ किए हैं-मिथ्यादृष्टि और अविरत । अविरत सम्यग्दृष्टि और मिध्यादृष्टि का बालत्व समान होता है, फिर भी अविरत सम्यग्दृष्टि केवल देव के आयुष्य का ही बंध करता है। क्रियावादी मनुष्य के आयुष्य-बंध-सूत्र से भी इसका समर्थन होता है।' एकान्त बाल के लिए चतुर्विध आयुष्य-बंध के निर्देश का हेतु कारण की विविधता है। वृत्तिकार ने चार कारणों का उल्लेख किया है
१. महाआरंभ नरकगति के आयुष्य-बंध का कारण । २. उन्मार्ग देशना तिर्यञ्च गति के आयुष्य-बंध का कारण । ३. कषाय की अल्पता मनुष्य गति के आयुष्य-बंध का कारण। ४. अकाम निर्जरा-देवगति के आयुष्य-बंध का कारण।
वृत्तिकार ने 'आदि' शब्द के द्वारा शेष कारणों की ओर इंगित किया है।' प्रस्तुत आगम और ठाणं में प्रत्येक गति के चार-चार कारण निर्दिष्ट हैं।' शब्द-विमर्श
एकान्त बाल और पण्डित के साथ 'एकान्त' पद का प्रयोग
एकान्तबाल असंयती। एकान्तपण्डित-मुनि।
अन्तक्रिया - मुक्त होने के पूर्व होने वाली क्रिया। वृत्तिकार ने इसका अर्थ निर्वाण किया है। देखें, १११२ का भाष्य ।
कल्पोपपत्तिका वैमानिक देवों में होने वाली उपपत्ति। यहां 'कल्प' शब्द वैमानिक देवों का सूचक है।"
बालपण्डित श्रावक, व्रतधारी गृहस्थ ।
देसं उवरमइ, देसं पचक्खाइ-देश का अर्थ अंश है। उवरमइ का अर्थ है-विरत होना और पच्चक्खाइ का अर्थ है-परित्याग करना। कोई व्यक्ति पहले विरत होता है और उसके पश्चात् प्रत्याख्यान करता है। देसं उवरमइ की विशेष जानकारी के लिए सयगडो, २१२/७१ द्रष्टव्य है।
किरिया-पदं
क्रिया-पदम्
क्रिया-पद
३६४. परिसे णं भंते ! कच्छंसि वा दहंसि वा उदगंसि वा दवियंसि वा वलयंसि वा नूमंसि
पुरुषः भदन्त ! कच्छे वा द्रहे वा उदके वा 'दवियंसि' वा वलये वा 'नूमंसि' वा गहने वा
३६४.'भन्ते ! कोई मगाजीवी, मृग-वध के संकल्प वाला, मृग-वध में एकाग्रचित्त पुरुष मृग-वध के
१. सूय.२।२१७५-अविरई पडुच्च बाले आहिज्जइ, विरई पडुच्च पंडिए आहिजइ,
विरयाविरइं पडुच्च बालपंडिए आहिज्जइ । २. भ.बृ.११३५६-एकान्तबालः मिथ्यादृष्टिरविरतो वा, एकान्तग्रहणेन मिश्रतां व्यवच्छिनत्ति ।......बालत्वे समानेऽप्यविरतसम्यग्दृष्टिर्मनुष्यो देवायुरेव प्रक
रोति, न शेषाणि। ३. भ.३०।२६। ४. भ.वृ.१।३५६-यच्चैकान्तबालत्वे समानेऽपि नानाविधायुर्वन्धनं तन्महारम्भा-
द्युन्मार्गदेशनादि तनुकषायत्वादि अकामनिर्जरादि तद्धेतु विशेषवशादिति।
५. भ.८।४२५-४२८; ठाणं,४।६२८६३१। ६. भ.वृ.११३६१-'अंतकिरिय'त्ति निर्वाणम् । ७. वही, १६३६१–'कप्पोववत्तिय'त्ति कल्पेषु-अनुत्तरविमानान्तदेवलोकेषुपपत्तिः सैव कल्पोपपत्तिका । इह च कल्पशब्दः सामान्येनैव वैमानिकदेवाऽऽ
वासाभिधायक इति। ८. वही, ११३६३--'देसं उवरमइत्ति विभक्तिपरिणामाद्देशात् 'उपरमते' विरतो
भवति; ततो देसं स्थूलं प्राणातिपातादिकं प्रत्याख्याति वर्जनीयतया प्रतिजानीते।
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