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श. १: उ. ८ः सू. ३६४-३७४
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की व्याख्या में एक गाथा उद्धृत कर वध से होने वाले बंध को जघन्योदयी — शीघ्र उदय में आने वाला बतलाया है। '
प्रस्तुत आगम के नौवें शतक में वैर-स्पर्श की विस्तृत चर्चा उपलब्ध है।' जो व्यक्ति पर-प्राण से निरपेक्ष होकर वैर-बंध में प्रवृत्त होता है, वह अनवकांक्षणवृत्तिक है। यह अनवकांक्षण-वृत्ति भी वैरानुबंधी वैर का हेतु बन जाती है। प्रस्तुत आलापक में हिंसा की समस्या पर व्यवहार नय से विचार किया गया है। किसी व्यक्ति ने किसी व्यक्ति पर शस्त्र का प्रहार किया। उस प्रहार से यदि वह छह मास की अवधि के भीतर मर जाता है, तो प्रहार करने वाला पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होता है। यदि वह छह महीने के पश्चात् मरता है तो प्रहार करने वाला चार क्रियाओं से स्पृष्ट होता है, प्राणातिपातक्रिया या प्राणवध की क्रिया से स्पृष्ट नहीं होता। तात्पर्य की भाषा में छह मास की अवधि में होने वाला मरण प्रहारहेतुक और उसके पश्चात् होने वाला मरण अन्य परिणामकृत माना जाता है।' वृत्तिकार के अनुसार यह नियम व्यवहार नय की अपेक्षा से प्रतिपादित है, निश्चयनय की अपेक्षा से प्रहारहेतुक मरण किसी अवधि में हो, उससे
जय-पराजय-पदं
३७३. दो भंते ! पुरिसा सरिसया सरितया सरिव्वया सरिसभंडमत्तोवगरणा अण्णम
३७४. से केणणं भंते! एवं बुधइसवी रिए परायिणति ? अवीरिए परायिजति ?
गोयमा ! जस्स णं वीरियवज्झाई कम्माई नो बद्धानो पुट्ठाई नो निहत्ताई नो कडाई नो पट्ठवियाइं नो अभिनिविट्ठाई नो अभिसमण्णागयाइं नोउदिण्णाई उवसंताई भवंति से णं परायिणति ।
जय-पराजय-पदम्
सद्धिं संगामं संगार्मेति तत्थ णं एगे पुरिसे पराइणति, एगे पुरिसे परायिज्जति । से कहमेयं भंते! एवं ?
द्वौ भदन्त ! पुरुषौ सदृशकी सदृकत्वची सदृशवयसौ सदृशभाण्डामत्रोपकरणी अन्योन्यं सार्द्धं संग्रामं सङ्ग्रामयन्ति तत्र एकः पुरुषः पराजयते, एकः पुरुषः पराजीयते । तत् कथमेतत् भदन्त ! एवम् ?
गोयमा ! सवीरिए परायिणति, अवीरिए गौतम ! सवीर्यः पराजयते, अवीर्यः परापरायिज्जति ॥
जीयते ।
भगवई
प्राणातिपातक्रिया संभव हो जाएगी। डॉ. सिकदर ने भारतीय दण्ड-विधान की धारा २६६, ३०० और ३०२ के साथ इस छ: माह की अवधि वाले नियम का सामञ्जस्य बतलाया है । ' शब्द-विमर्श
१. भ. वृ. १ । ३७२ आसन्नो वधो यस्माद्वैरात्तत्तथा तेनासन्नवधकेन, भवति च वैराद्वधो वधकस्य तमेव वध्यमाश्रित्यान्यतो वा तत्रैव जन्मनि जन्मान्तरे वा,
यदाह-
वहमारणअब्भक्खाणदाणपरधणविलोवणाईणं ।
सव्वजहन्नो उदओ, दसगुणिओ एक्कसिकयाणं ॥
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उद्दाति- इसका अर्थ है— बांधना । '
मृगवृत्तिकार ने मृग का अर्थ हिरण किया है। इसका दूसरा अर्थ जंगली पशु भी होता है।' यहां ये दोनों अर्थ घटित हो सकते हैं।
२. भ. ६।२५१,२५२ ।
३. भ. बृ. १ । ३७१ – षण्मासान् यावत् प्रहारहेतुकं मरणं परतस्तु परिणामान्तरापादितमिति कृत्वा षण्मासादूर्ध्वं प्राणातिपातक्रिया न स्यादिति हृदयम् । ४. वही, १ । ३७१ - - एतच्च व्यवहारनयापेक्षया प्राणातिपातक्रिया व्यपदेशमात्रोपदेशनार्थमुक्तम्, अन्यथा यदा कदाप्यधिकृतं प्रहारहेतुकं मरणं भवति तदैव
भव्य --- यह पारिभाषिक शब्द है। जो पुरुष कूटयन्त्र आदि का प्रयोग करने वाला है, वह भव्य कहलाता है। विषकूट-यंत्र, पिंजरा, कन्दक और पशु को बांधने का जाल तथा इनके करने वाले और इन्हें इच्छित स्थानों में रखने वाले भव्य कहलाते हैं। जो स्पर्शन के योग्य है, किन्तु अभी उनका स्पर्श नहीं किया जाता है, वे सब भव्यस्पर्श हैं। यह धवला का अभिमत है।
तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते सवीर्यः पराजयते ? अवीर्यः पराजीयते ?
गौतम ! यस्य वीर्यबाह्यानि कर्माणि नो बद्धानि नो स्पृष्टानि नो निधत्तानि नो कृतानि नो प्रस्थापितानि नो अभिनिविष्टानि नो अभिसमन्चा - गतानि नो उदीर्णानि—उपशान्तानि भवन्ति स पराजयते ।
जय-पराजय-पद
३७३. 'भन्ते ! समान त्वचा वाले, समान बय वाले, समान युद्धोपयोगी साधन-सामग्री वाले दो समान व्यक्ति परस्पर एक दूसरे के साथ युद्ध करते हैं। वहां एक व्यक्ति जीतता है और एक पराजित होता है । भन्ते ! यह ऐसा क्यों होता है ? गौतम ! सवीर्य जीतता है, अवीर्य पराजित होता है ।
३७४. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा हैं -सवीर्य जीतता है और अवीर्य पराजित होता है ?
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गौतम ! जिसके वीर्यवाह्य कर्म बद्ध स्पृष्ट, निधत्त, कृत, प्रस्थापित, अभिनिविष्ट, अभिसमन्वागत और उदीर्ण नहीं होते-उपशान्त होते हैं, वह जीतता है।
प्राणातिपातक्रिया इति ।
2. Studies in Bhagavati Sutra, p. 595--These ethical principles of fine actions tally with the sections of the India Penal Code No. 299, 300 and 302, dealing with culpable homicide and its charge and punishment.
६. अभिधानचिंतामणि, स्वोपज्ञवृत्ति ३ । १०३ – स्यादुद्दानं तु बन्धनम् । दोंच् छेदने देङ् पालने वा, उद्दीयते —— उद्दानम् ।
७. भ. वृ. १ । ३६४ - मृगै हरिणैः ।
८.
सूत्र. वृ. प. ३३ - मृगा आरण्याः पशवः ।
६. ष. खं. धवला, पु. १३, खं. ५, भा. ३. सू. ३०, पृ.३४ ।
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