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भगवई
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श.१: उ.८. सू.३७३-३७६ जस्स णं वीरियवज्झाई कम्माई बद्धाइं पुट्ठाइं यस्य वीर्यबाह्यानि कर्माणि बद्धानि स्पृष्टानि जिसके वीर्यबाह्य कर्म बद्ध, स्पृष्ट, निधत्त, कृत, निहत्ताई कडाई पटुवियाई अभिनिविद्याइं निधत्तानि कृतानि प्रस्थापितानि अभिनि- प्रस्थापित, अभिनिविष्ट, अभिसमन्वागत और अभिसमण्णागयाइं उदिण्णाई–णो उवसं- विष्टानि अभिसमन्वागतानि उदीर्णानि–नो। उदीर्ण होते हैं-उपशान्त नहीं होते, वह पुरुष ताई भवंति से णं पुरिसे परायिजति, से उपशान्तानि भवन्ति स पुरुषः पराजीयते, तत् पराजित होता है। गौतम ! इस अपेक्षा से यह तेणद्वेणं गोयमा ! एवं बुचति-सवीरिए तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते-सवीर्यः परा- कहा जा रहा है—सवीर्य जीतता है और अवीर्य परायिणति, अवीरिए परायिञ्जति ॥ जयते, अवीर्यः पराजीयते।
पराजित होता है।
भाष्य
१. सूत्र ३७३,३७४
भण्डमत्तोवगरण-इसमें तीन पद हैं-भाण्ड, अमत्र और उपकरण । 'भाण्ड' के अनेक अर्थ होते हैं—पात्र, उपकरण, सामग्री आदि-आदि।' इसी प्रकार 'अमत्र' के भी अनेक अर्थ हैं-पात्र, शक्ति, शत्रुओं को परास्त करने वाला आदि ।' उपकरण–साधन, सहायक सामग्री, राजचिह्न, राजा के अनुचर आदि-आदि।'
प्रस्तुत प्रकरण में 'भाण्ड' शब्द युद्ध-सामग्री, 'अमत्र' शब्द शक्ति और 'उपकरण' शब्द 'शस्त्र' के अर्थ में विवक्षित है। 'भाण्डामत्रोपकरण' यह एक शब्द-समूह (phrase) के रूप में भी प्रयुक्त
होता है। इसका अर्थ है—प्रासंगिक साधन-सामग्री। इसका समर्थन प्रस्तुत आगम के सूत्र ८२२६ से होता है। वह यहां अग्नि जलाने-बुझाने की साधन-सामग्री के अर्थ में प्रयुक्त है। इस प्रसंग में प्रस्तुत आगम के ३६१,१२ ॥१२५ तथा १२११३६ सूत्र द्रष्टव्य हैं। वृत्तिकार ने भण्डमत्त का अर्थ युद्ध-सामग्री-निरपेक्ष सामान्य किया है। वह यहा प्रासगिक नहीं है।
वीरियवज्झाई-इस पूरे प्रकरण के लिए वण्णवज्झाई पर ११३५७ का भाष्य द्रष्टव्य है।
वीरिय-पदं वीर्य-पदम्
वीर्य-पद ३७५. जीवा णं भंते ! किं सीरिया ? जीवाः भदन्त ! किं सवीर्याः ? अवीर्याः ? ३७५. 'भन्ते ! क्या जीव सवीर्य हैं ? अवीर्य हैं?
अवीरिया ? गोयमा ! सवीरिया वि, अवीरिया वि॥ गौतम ! सवीर्याः अपि, अवीर्याः अपि। गौतम ! जीव सवीर्य भी हैं और अवीर्य भी हैं।
३७६.से केणद्वेणं भंते ! एवं बुचइ-जीवा तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-जीवाः ३७६. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा सवीरियावि? अवीरिया वि?
सवीर्याः अपि ? अवीर्याः अपि? है—जीव सवीर्य भी हैं और अवीर्य भी हैं ? गोयमा! जीवा दुविहा पण्णता, तं जहा- गौतम ! जीवाः द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा गौतम ! जीव दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसेसंसारसमावण्णगा य, असंसारसमावण्णगा -संसारसमापनकाः च, असंसारसमापनकाः संसारसमापन्न और असंसारसमापन्न । या तत्य णं जेते असंसारसमावण्णगा ते णं तत्र ये एते असंसारसमापनकाः ते सिद्धाः। इनमें जो असंसारसमापन्न हैं, वे सिद्ध हैं। सिद्ध सिद्धा। सिद्धा णं अवीरिया। तत्थ णं जेते सिद्धाः अवीर्याः। तत्र ये एते संसारसमापन्न- अवीर्य होते हैं। इनमें जो संसारसमापन्न हैं, वे संसारसमावण्णगा ते दुविहा पण्णत्ता, तं काः ते द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा शैले- दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे-शैलेशीप्रतिपन और जहा सेलेसिपडिवण्णगा य, असेलेसि- शीप्रतिपन्नकाः च अशैलेशीप्रतिपन्नकाः च।। अशैलेशीप्रतिपन्न । इनमें जो शैलेशीप्रतिपन्न हैं, पडिवण्णगा य। तत्थ णं जेते सेलेसि- तत्र ये एते शैलेशीप्रतिपन्नकाः ते लब्धिवीर्येण वे लब्धिवीर्य से सवीर्य और करणवीर्य से अवीर्य पडिवण्णगा ते णं लद्धिवीरिएणं सवीरिया, सवीर्याः, करणवीर्येण अवीर्याः । तत्र ये एते होते हैं। इनमें जो अशैलेशीप्रतिपन्न हैं, वे लब्धिकरणवीरिएणं अवीरिया। तत्थ णं जेते अशैलेशीप्रतिपन्नकाः ते लब्धिवीर्येण सवीर्याः, वीर्य से सवीर्य और करणवीर्य से सवीर्य भी हैं असेलेसिपडिवण्णगा ते णं लद्धिवीरिएणं करणवीर्येण सवीर्याः अपि, अवीर्याः अपि। और अवीर्य भी हैं। गौतम ! इस अपेक्षा से यह सपीरिया, करणवीरिएणं सवीरिया वि, तत् तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते-जीवाः कहा जा रहा है-जीव दो प्रकारके प्रज्ञप्त हैं, अवीरिया वि। से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा-सवीर्याः अपि, जैसे-सवीर्य भी और अवीर्य भी। बुचइ-जीवा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा- अवीर्याः अपि। सवीरियावि, अवीरिया वि॥
१,२,३.आप्टे. देखें, वह-वह शब्द | ४. भ.वृ.१ । ३७३–भाडं-भाजनं मृन्मयादि मात्रो-मात्रया युक्त उपधिः स
च कांस्यभाजनादिभोजनभण्डिका, भाण्डमात्रा वा-गणिमादिद्रव्यरूपः परि
च्छदः, उपकरणानि–अनेकधाऽऽवरणप्रहरणादीनि ततः सदृशानि भाण्डमात्रोपकरणानि ययोस्तौ तथा। अनेन च समानविभूतिकत्वं तयोरभिहितम् ।
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