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श.१: उ.७: सू.३४०-३४६ १५२
भगवई ३. आहारक इसका निर्माण योगज शक्ति से किया जाता है। यह ने समाधान की भाषा में कहा-जीव पूर्व शरीर को छोड़कर गर्भ योग-सम्पन्न मुनि के ही होता है।
में प्रवेश करता है। वह सर्वप्रथम माता के ओज और पिता के शुक्र तैजस शरीर सूक्ष्म है और कार्मण शरीर सूक्ष्मतर ।
के मिश्रण का आहार लेता है। वही उसके वर्तमान जीवन की गर्भ में प्रवेश करते समय जीव के साथ केवल दो शरीर होते
आधार-शिला बनता है। हैं-तैजस और कार्मण। इस आधार पर कहा गया है कि गर्भ में आहार तीन प्रकार के बतलाए गए हैं—ओज आहार, लोम प्रवेश करते समय जीव स्थूल शरीर की अपेक्षा से अशरीर और आहार और प्रक्षेप अथवा कवल आहार। उत्पत्ति के प्रथम समय तैजस तथा कार्मण शरीर की अपेक्षा से सशरीर होता है। में शरीर आदि पर्याप्तियों के योग्य पुद्गलों का ग्रहण किया जाता सुश्रुत के 'गर्भावक्रान्ति प्रकरण' में सूक्ष्म इन्द्रियों या लिंग
है, वह ओज आहार है। यह प्रवचनसारोद्धार के वृत्तिकार सिद्धसेन
सूरि का मत है। उन्होंने इसका वैकल्पिक अर्थ किया है-स्वजन्म शरीर के साथ जीव का गर्भ में प्रवेश माना गया है।'
स्थानोचित शुक्र, शोणित आदि पुदगलसंघात का आहार। ओजस् चरकसंहिता में भी यही मत उपलब्ध होता है।
का अर्थ है तैजस । यह आहार कार्मण शरीर युक्त तैजस शरीर से तीसरी जिज्ञासा प्रथम आहार से सम्बन्धित है-जीव गर्भ लिया जाता है, इसलिए इसका नाम ओज आहार है। अष्टांगसंग्रह में प्रवेश करते समय सर्वप्रथम क्या आहार लेता है ?
के अनुसार गर्भ में प्रवेश करने वाला प्राणी पहले ओज ग्रहण करता इस जिज्ञासा की पृष्ठभूमि में दो मत अवस्थित हैं। आयुर्वेद
है। उसके पश्चात् शुक्र-शोणित में प्रवेश करता है। उक्त दोनों के आचार्य भरद्वाज का मत था कि गर्भ में ही चेतना अभिव्यक्त अभिमतों के संदर्भ में प्रस्तुत आगम का मत समीक्षणीय है। यहां होती है। वह कहीं बाहर से आकर उसका निर्माण नहीं करती। प्रथम आहार माता का ओज और पिता का शुक्र बतलाया गया है। महर्षि आत्रे इस मत को अस्वीकार करते हैं। उनके अनुसार जीव गर्भ में विद्यमान जीव क्या आहार लेता है ?—यह चौथी दूसरे जीवन से आकर नए गर्भ में प्रवेश करता है।'
जिज्ञासा है। इसके उत्तर में बताया गया है कि गर्भगत जीव माता गौतम की जिज्ञासा इन दोनों मतों से जुड़ी हुई है। भगवान के आहार पर निर्भर रहता है। माता जो आहार लेती है, उसका
६. भ.वृ.१।३४४----'माउओय'ति मातुरोजः जनन्या आर्तवं शोणितमित्यर्थः, "पिउसुक्क ति 'पितुः शुक्र' इह यदिति शेषः 'तंति आहारमिति योगः, तदुभयसंसिर्ल्ड'ति तयोरुभयं तदुभयं द्वयं, तच्च तत् संश्लिष्टं च संसृष्टं वा संसर्गवत् तदु
१. सुश्रुतसंहिता, शारीरस्थान, ३/४ तत्र स्त्रीपुंसयोः संयोगे तेजः शरीराद्वायु- रुदीरयति । ततस्तेजोऽनिलसन्निपाताच्छुक्र च्युतं योनिमभिप्रतिपद्यते संसृज्यते चातवेन । ततोऽग्रीषोमसंयोगात् संसृज्यमानो गर्भाशयमनुप्रतिपद्यते क्षेत्रज्ञो वेद- यिता स्रष्टा घ्राता द्रष्टा श्रोता रसयिता पुरुषः स्रष्टा गन्ता साक्षी धाता वक्ता यः कोऽसावित्येवमादिभिः पर्यायवाचकै मभिरभिधीयते दैवसंगादक्षयोऽ- व्ययोऽचिन्यो भूतात्मना सहान्वक्षं सत्त्वरजस्तमोभिर्दैवासुरैरपरैश्च भावैर्वायुना
ऽभिप्रेर्यमाणो गर्भाशयमनुप्रविश्यावतिष्ठते। २. चरकसंहिता, शारीरस्थान,२।३५
भूतानि चत्वारि तु कर्मजानि, यान्यात्सलीनानि विशन्ति गर्भम् ।
स बीजधर्मा ह्यपरापराणि, देहान्तराण्यात्मनि याति याति ॥ ३. वही, शारीरस्थान,३।३(६),४-न खल्वपि परलोकादेत्य सत्त्वं गर्भमवक्रामति, यदि ह्येनमवक्रामेत, नास्य किञ्चित् पौर्वदेहिकं स्यादविदितमश्रुतमदृष्टं वा, स च तच्च न किञ्चिदपि स्मरति ।
तस्मादेतत् ब्रूमहे—अमातृजश्चायं गर्भोऽपितृजश्चानात्मजश्चासाम्यजश्चारसजश्च, न चास्ति सत्त्वमौपपादुकमिति (होवाच भरद्वाजः)। ४. वही, शारीरस्थान,३। नेति भगवानात्रेयः सर्वेभ्य एभ्यो भावेभ्यः समुदि
तेभ्यो गर्भोऽभिनिर्वर्तते। ५. वही, शारीरस्थान,३।३–पुरुषस्यानुपहतरेतसः स्त्रियाश्चाप्रदुष्टयोनिशोणितगर्भाशयाया यदा भवति संसर्गः ऋतुकाले, यदा चानयोस्तथायुक्ते संसर्गे शुक्रशोणितसंसर्गमन्तर्गर्भाशयगतं जीवोऽवक्रामति सत्त्वसंप्रयोगात्तदा गर्भोऽभिनिर्वर्तते, स सास्यरसोपयोगादरोगोऽभिवर्धते सम्यगुपचारैश्चोपचर्यमाणः, ततः प्राप्तकालः सर्वेन्द्रियोपपन्नः परिपूर्णशरीरो बलवर्णसत्त्वसंहननसंपदुपेतः सुखेन जायते समुदयादेषां भावानां मातृजश्चायं, पितृजश्चात्मजश्च सास्यजश्च रसजश्च अस्ति च खलु सत्त्वमौपपादुकमिति होवाच भगवानात्रेयः।
७. सूत्र.नि.गा.१७०
भावाहारो तिविहो ओए लोमे य पक्खेवे । ८. प्र.सारो.वृ.प.३४२-तैजसेन तत्सहचारिणा कार्मणेन च शरीरेण पूर्वशरीर
त्यागे विग्रहेणाविग्रहेण चोत्पत्तिदेशं प्राप्तः सन् जन्तुर्यत् प्रथममौदारिकादिशरीरयोग्यान् पुद्गलानाहारयति यच्च द्वितीयादि समयेष्वप्यौदारिकादिमिश्रेणाहारयति यावच्छरीरनिष्पत्तिः एष सर्वोऽप्योज आहारः ओजसा तैजस
शरीरेणाहार ओज आहारः । ६. अष्टांगसंग्रह, इन्दुव्याख्या सहित, सूत्रस्थान,१६।२६-३२
तेजो यत्सर्वधातूनामोजस्तत् परमुच्यते । मृदु सोमात्मकं शुद्धं, रक्तमीषत् सपीतकम् ॥ यत् सारमादौ गर्भस्य यच्च गर्भरसाद्रसः । संवर्तमानं हृदयं, समाश्रयति यत्पुरा || यच्छरीररसः स्नेहः प्राणा यत्र प्रतिष्ठिताः । यस्यानाशान्ननाशोऽस्ति प्रीणिता येन देहिनः ॥ हृदयस्थमपि व्यापि तत् परं जीवितास्पदम् ।
ओजः क्षीयते कोपाद्ध्यानशोकश्रमादिभिः ।। सर्वधातूनां यत्तेजस्तत् प्रधानं परमोजः शब्देनोच्यते अष्टबिन्दुकमित्यर्थः। तच्च मृद्वतीक्ष्णगुणम्। सोभात्मकं सौम्यस्वरूपम् । शुद्धमनुपहतमीषद्रक्तं स्तोकलोहितं सपीतकं च। यद् गर्भस्यादौ सारं सारमिव सारं न हि तेन विना शुक्रशोणिते जीवानुप्रवेशः । यच्च गर्भरसाद्रसः गर्भस्य योऽसौ रसः प्रथमो धातुः तस्मादपि
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