SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 196
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवई १५३ श.१: उ.७: सू.३४०-३४६ एक देश और ओज वह ग्रहण कर लेता है। सू.३४४ में 'ओज' से आप्लावित किए रहता है।' शब्द का अर्थ रक्त है। सू.३४५ में 'ओज' का अर्थ ओज धातु 'अपरा' नाम होने का कारण भी उपलब्ध होता है। गर्भ की होना चाहिए। तदेकदेश का अर्थ चरकसंहिता से स्पष्ट होता है सभी स्थिति से रजोवाही श्रोतों के मार्गों के अवरुद्ध हो जाने पर अपर रसों से युक्त वह आहार-रस गर्भिणी स्त्री के शरीर में तीन भागों में अपर आर्तव उपचित हो जाता है, उसे अपरा कहते हैं। कुछ आचार्य विभक्त होता है: उसे जरायु भी कहते हैं।' १. गर्भिणी के अपने शरीर की पुष्टि के लिए। सू.३४६ में प्रयुक्त 'अपरा' शब्द पारिभाषिक है-चरकसंहिता २. दूध बनाने के लिए के उक्त उद्धरण से यह स्पष्ट हो जाता है। प. बेचरदासजी ने 'अपरा' ३. गर्भ-शरीर की पुष्टि और वृद्धि के लिए। का अर्थ 'दूसरी' किया है, किन्तु यह समीचीन नहीं लगता। वह गर्भ इस आहार-रस से उपष्टब्ध होकर (संपोषण प्राप्त कर) पांचवीं जिज्ञासा है कि गर्भगत शिशु के उच्चार-प्रस्रवण आदि गर्भाशय के अन्दर अपना जीवन व्यतीत करता है। यहां तदेकदेशं' होते हैं या नहीं ? इसका उत्तर 'नहीं' में दिया गया है। सुश्रुतसंहिता पद के द्वारा गर्भ के लिए जो भाग होता है, वह विवक्षित है। में उच्चार आदि के निषेध की सहेतुक व्याख्या मिलती है। मल के इसकी प्रक्रिया भी निर्दिष्ट है-दो नाड़ियां होती हैं—मातृजीव अत्यन्त अल्प होने से वायु और पक्वाशय का परस्पर संयोग न होने रसहरणी और पुत्रजीव-रसहरणी। उनके द्वारा गर्भस्थ शिशु आहार के कारण गर्भ वायु, मूत्र और मल का त्याग नहीं करता। लेता है। अष्टांगहृदय और सुश्रुतसंहिता में इनके सम्बन्ध में जानकारी मिलती है-गर्भ की नाभि में तथा माता के हृदय में रसवाहिनी नाड़ी छठी जिज्ञासा है कि क्या गर्भगत जीव कवल-आहार करता (नलिका या सिरा) का सम्बध रहता है, जिसके द्वारा गर्भ का पोषण है? इसके उत्तर में कहा गया है कि कवल-आहार नहीं करता, समग्न होता रहता है, जैसे खेत की फसल का पोषण कुल्या (जल-प्रणाली) शरीर से आहार करता है। शरीर-पर्याप्ति से पर्याप्त अथवा सभी द्वारा होता है। पर्याप्तियों से पर्याप्त होने के पश्चात् वह लोम आहार करता है। इसलिए समग्र शरीर से आहार करने की विधि निर्दिष्ट है। ठाणं में चरकसंहिता के अनुसार गर्भस्थ शिशु को रसवाहिनियों से पोषण आहार के दो प्रकार बतलाए गए हैं-देशतः आहार और सर्वतः प्राप्त होता है। गर्भ की नाभि में नाड़ी लगी रहती है, नाड़ी में 'अप आहार। मुख से लिया जाने वाला आहार देशतः आहार है। ओज रा' (placenta) लगी रहती है और अपरा का सम्बन्ध माता के और लोम आहार समग्र शरीर से होता है; इसलिए वह सर्वतः आहार हृदय के साथ लगा रहता है। माता का हृदय उस अपरा को स्यन्दमान है। इसी प्रकार उच्छवास और निःश्वास की क्रिया का निर्देश है। (जिसमें रस, रक्त आदि का वहन होता है) शिराओं द्वारा रस-रक्त सुश्रुतसंहिता में गर्भ के उच्छ्वास-निःश्वास माता के उच्छ्वास-निःश्वास सारः प्रसादभूतम् । संवर्तमानं यच्च पुरा धातोर्देहे प्रवर्तमानं प्रथमहृदयमाश्रयति। पश्चात् क्रमादेहव्याप्तिं च करोति । यच्च शरीररसस्तस्य स बेहो यत्र प्राणो व्यापकोऽपि प्रतिष्ठितः बद्धः यस्य त्वष्टबिन्द्वाख्यस्यानाशाद्देहस्य नाशो नास्ति। येन च हृदयस्थेन देहिनो विविधाः प्राणिनः प्रीणितास्तर्पिताः । यच्च हृदयस्थमपि व्यापि तदोजोऽन्येभ्यो जीवितास्पदेभ्यःशिरःप्रभृतिभ्यः परं प्रधानं जीवितास्पदम्। १. चरकसंहिता, शारीरस्थान,४।२४-अष्टमे मासि गर्भश्च मातृतो गर्भतश्च माता रसहारिणीभिः संवाहिनीभिर्मुहर्मुहुरोजः परस्परत आददाते गर्भस्यासंपूर्णत्वात्। तस्मातदा गर्भिणी मुहुर्मुहर्मुदा युक्ता भवति मुहुर्मुहुश्च म्लाना । २. चरकसंहिता,शारीरस्थान,६ । २३ स्त्रिया ह्यापन्नगर्भायास्त्रिधा रसः प्रतिपद्यते स्वशरीरपुष्टये, स्तन्याय, गर्भवृद्धये च । स तेनाहारेणोपष्टब्धः (परतंत्र वृत्तितिरमाश्रित्य) वर्तयत्यन्तर्गतः। ३. (क) अष्टांगहृदय, शारीरस्थान,११५६ - गर्भस्य नाभौ मातुश्च हृदि नाडी निबध्यते। यया स पुष्टिमाप्नोति, केदार इव कुल्यया ॥ (ख) सुश्रुतसंहिता, शारीरस्थान,३।३१-मातुस्तु खलु रसवहायां नाड्यां गर्भनाभिनाडीप्रतिवद्धा, साऽस्य मातुराहाररसवीर्यमभिवहति। तेनोपस्नेहेनास्याभिवृद्विर्भवति । असंजाताङ्गप्रत्यङ्गप्रविभागमानिषेकात् प्रभृति सर्वशरीरा- वयवानुसारिणीनां रसवहानां तिर्यग्गतानां धमनीनामुपस्नेहो जीवयति। ४. चरकसंहिता, शारीरस्थान,६।२३–नाभ्यां हास्य नाडीप्रसक्ता नाइयां चापरा, अपरा चास्य मातुः प्रसक्ता हृदये, मातृहृदयं ह्यस्य तामपरामभिसंप्लवते सिराभिः स्यन्दमानाभिः । ५. (क) अष्टांगसंग्रह, शारीरस्थान,२। तस्याश्च रजोवाहिनां स्रोतसां वर्मन्युपरुध्यन्ते गर्भेण । तस्मात्ततः परमार्तवं न दृश्यते । ततस्तदधः प्रतिहतमपरमपरं चोपचीयमानमपरेत्याहुः । जरायुरित्यन्ये। (टीका) तस्याश्च व्यक्तगर्भाया रजोवहानि स्रोतांसि यैः स्त्रोतोभिर्मलभूतं रक्तमृतुकाले बहिर्भवति, तेषां वर्लनि मार्गाणि मुखानि गर्भेण नैकाहादाच्छाद्यन्ते; तस्मात् कारणात् ततः गर्भस्य व्यक्तीभावात् परमार्तवं न प्रवर्तते । यत्तु कदाचिद् दृश्यते तद्वैकृतम्। तदेव चार्तवमधोगमने गर्भेण प्रतिहतमाहारपरिणामाच्च प्रतिदिनमुपचीयमानं गर्भस्याशय एवापरागर्भशय्याख्या सम्पद्यत इति केचिदाहुः । अन्ये पुनराचार्यास्तदातवं जरायुभावेन परिणमतीत्याहुः । (ख) सुश्रुतसंहिता, शारीरस्थान,४।२४-गृहीतगर्भाणामार्तववहानां स्रोतसां वर्मन्यवरुध्यन्ते गर्भेण, तस्माद् गृहीतगर्भाणामार्तवं न दृश्यते ततस्तदधः प्रतिहतमूर्ध्वमागतमपरं चोपचीयमानमपरेत्यभिधीयते । ६. भगवती सूत्र, खण्ड१, पृ.१८२। ७. सुश्रुतसंहिता, शारीरस्थान,२१५३ मलाल्पत्वादयोगाच्च, वायोः पक्वाशयस्य च । वातमूत्रपुरीषाणि न गर्भस्थः करोति हि ।। ८. ठाण, २०६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy