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श.२: उ.१ः सू.४६ २३०
भगवई गप्रस्पृष्ट-कोई व्यक्ति हाथी आदि बृहत्काय जानवरों के शव मरण-मीमांसा में प्रवेश कर शरीर का व्युत्सर्ग करता है। हाथी आदि के कलेवर
भगवान् ने जीवन और मुत्यु दोनों की अनेकान्त-दृष्टि से समीक्षा में प्रविष्ट होने पर उस कलेवर के साथ-साथ उस जीवित शरीर को भी गीध आदि नोचकर मार डालते हैं, उस स्थिति में जो मरण होता
की थी। उनकी दृष्टि में व्यक्ति जैसे जीने के लिए स्वतन्त्र है, वैसे है, वह गृध्रस्पृष्ट मरण कहलाता है। दिगम्बर परम्परा में इसका अर्थ
___ ही मरने के लिए भी स्वतन्त्र है। इस स्वतन्त्रता का उपयोग और शस्त्र के द्वारा प्राण-त्याग करना मिलता है।
दुरुपयोग दोनों ही हो सकते हैं। बालमरण मुत्यु की स्वतत्रंता का श्वेताम्बर-साहित्य में गृध्रस्पृष्ट की जो अर्थ-परम्परा है. वह
दुरुपयोग है। भावावेश में जो आत्महत्या की जाती है, वह बालमरण आलोच्य है। इसकी प्राचीनता भी संदिग्ध है। जैन साधना-पद्धति
है। वह स्वतंत्रता का दुरुपयोग है। पंडितमरण या समाधिमरण मुत्यु की तपस्या के अनकल भी नहीं है। कारण उपस्थित होने पर की स्वतंत्रता का सदुपयोग है। इस मरण के पीछे कोई भावावेश तात्कालिक मरण के लिए यह प्रयोग उपयोगी नहीं है।
नहीं होता। पूर्ण शान्त और समाहित चित्त की अवस्था में इस मरण दीर्घकालीन प्रयोग की दृष्टि से भक्तप्रत्याख्यान और प्रायोपगमन
का वरण किया जाता है। आयारो, सूयगडो, उत्तरज्झयणाणि और ये दोनों श्रेष्ठ उपाय हैं। इसलिए गृध्रस्पृष्ट का अर्थ अभी अनुसन्धान
दसाओ में इस समाधि-मरण की पृष्ठभूमि और प्रक्रिया का निरूपण का विषय है।
हुआ है।' मुनि को जब यह लगे कि इस शरीर के द्वारा नए-नए
गुणों की उपलब्धि हो रही है, तब तक वह जीवन का बृहण करे। प्रायोपगमन प्राय का अर्थ है मृत्यु | समाधिमरण के लिए
जब कोई विशेष गुण की उपलब्धि न हो, तब वह परिज्ञापूर्वक इस उपगमन करना अथवा उपवेशन करना प्रायोपगमन कहलाता है। यह
शरीर को त्याग दे। शरीर-व्युच्छेद के लिए आहार का त्याग किया अनशन का एक प्रकार है। व्याख्या-साहित्य में इसके संस्कृत रूप
जा सकता है। इसका उत्तरायणाणि में स्पष्ट निर्देश है। इसका पादोपगमन और पादपोपगमन भी मिलते हैं।'
निर्देश ठाणं में भी उपलब्ध हैं। अनशन रुग्ण अवस्था में ही नहीं, निहारिम अथवा निहारि-उपाश्रय से बाहर गिरिकन्दरा आदि ।
किसी बाधा के न होने पर भी किया जा सकता है। यह विधान एकान्त स्थानों में किया जाने वाला अनशन |
केवल मुनि के लिए ही नहीं, श्रमणोपासक या श्रावक के लिए भी अनिरिम अथवा अनिहारि—उपाश्रय में किया जाने वाला है। इस समाधि-मरण को उत्तरवर्ती आचार्यों ने मुत्यु-महोत्सव कहा अनशन।
अप्रतिकर्म अथवा अपरिकर्म-शुश्रूषा- या उपचार-रहित। जीवन के बारे में भी भगवान् महावीर का दृष्टिकोण प्रायोपगमन अनशन करने वाला वृक्ष के समान निश्चेष्ट लेटा रहता अनेकान्तवादी रहा है। उनकी दृष्टि में संयमपूर्ण जीवन वांछनीय है। है, कोई स्पन्दन नहीं करता, हलन-चलन नहीं करता। इसलिए यह और असंयमपूर्ण जीवन वांछनीय नहीं है। उनकी भाषा है-जीवन नियमतः अप्रतिकर्म होता है।
की आंकाक्षा और मरण की आंकाक्षा दोनों ही नहीं करनी चाहिए। भक्तप्रत्याख्यान-समाधिमरण के लिए किया जाने वाला
व्यक्ति को जीवन की आंकाक्षा और मरण के भय से मुक्त रहना अनशन। यह नियमतः सप्रतिकर्म होता है।
चाहिए, किन्तु संयमपूर्ण जीवन और समाधि-मरण की आंकाक्षा
करणीय है। अनशन के इन दोनों प्रकारों की विशेष जानकारी के लिए उत्तरायणाणि,३०।१२,१३ के टिप्पण द्रष्टव्य हैं।
१. भ.वृ.२ । ४६-'गिद्धपढे'त्ति गृधैः पक्षिविशेषैर्गुद्वैर्वा मांसलुब्धैः शृगाला- दिभिः स्पृष्टस्य विदारितस्य करि-करभ-रासभादिशरीरान्तर्गतत्वेन यन्मरणं
तद्गृध्रस्पृष्टं गृद्धस्पृष्टं वा गृधैर्वा भक्षितस्य स्पृष्टस्य यत्तद्गृध्रस्पृष्टम् । २. विजयोदया, वृ.प.८८-शस्त्रग्रहणेन यद् भवति तद् गृद्धपुट्ठमिति । ३. उत्तर. अ.५ का आमुख द्रष्टव्य है। ४. (क) आयारो, ८७५-१३०तथा गा. १-२५/
(ख) सूय. २।२।६७। (ग) उत्तर.३६।२५०-२५५।
(घ) दसाओ,१०।३१। ५. उत्तर.४७
लाभतरे जीविय बूहइत्ता। पच्छा परिण्णाय मलावधंसी ॥
६. वही,२६।३३-३४---
निगंथो धिइमंतो, निग्गंथी वि न करेज छहिं चेव । ठाणेहि उ इमेहि, अणइक्कमणा य से होइ । आयंके उवसग्गे, तितिक्खया बंभचेरगुत्तीसु ।
पाणिदया तबहेडं, सरीरवोच्छेयणट्ठाए। ७. ठाणं,६।४२। ८. सूय.२।२।६७ तेणं एतेणं विहारेणं विहरमाणा बहूई वासाई सामण्णपरियागं पाउणंति, पाउणित्ता आबाहसि उप्पण्णंसि वा अणुप्पण्णंसि वा बहूई भत्ताई
पञ्चक्खंति। ६. दसाओ, १०॥३१ से णं समणोवासए भवति-अभिगतजीवाजीवे जाव
पडिलाभेमाणे विहरइ । से णं एतारूवेणं विहारेणं विहरमाणे बहूणि वासाणि समणोवासगपरियागं पाउणति, पाउणित्ता आबाहसि उप्पण्णंसि वा अणुप्पण्णंसि वा बहूई भत्ताई पच्चखाइ ।
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