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भगवई
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श.२ः उ.१: सू.४६ उभरने वाले प्रश्न का समाधान किया है। यहां पण्डितमरण के दो यह मरण पांच स्थावर और अमनस्क त्रस जीवों के होता है। उक्त प्रकार निर्दिष्ट हैं। कोई मुनि अनशन के बिना मरता है, क्या उसका
तीन शल्यों के हेतुभूत कमों के उदय से जीव में जो माया, निदान मरण पण्डितमरण नहीं कहलाएगा? इस प्रश्न के समाधान में उन्होंने
और मिथ्यात्व के परिणाम होते हैं, उन्हें भावशल्य कहा जाता है।
इस दशा में होने वाला मरण 'शल्य-मरण' कहा जाता है। लिखा है कि मुनि विरत अवस्था में मरता है इसलिए उसका मरण पण्डितमरण कहलाएगा । किन्तु वह यहां विवक्षित नहीं है। यहां जहां भावशल्य है, वहां द्रव्यशल्य अवश्य होता है, किन्तु प्रायोपगमन और भक्तप्रत्याख्यान के अर्थ वाला पण्डितमरण विवक्षित भावशल्य केवल समनस्क जीवों के ही होता है। अमनस्क जीवों में है।' मरण के सतरह प्रकारों में बालमरण, पण्डितमरण और बाल- संकल्प या चिन्तन नहीं होता, इसलिए उनके केवल द्रव्यशल्य ही पण्डितमरण का स्वतन्त्र निर्देश है तथा वलायमरण आदि का उनसे होता है। इसलिए अमनस्क जीवों के मरण को 'द्रव्यशल्य-मरण' और पृथक् निर्देश है। इससे भी इनके दो संदर्भो में प्रयुक्त होने की पुष्टि
समनस्क जीवों के मरण को 'भावशल्य-मरण' कहा गया है। होती है।
__तद्भवमरण-तिर्यञ्च या मनुष्य भव में विद्यमान प्राणी पुनः शब्द-विमर्श
तद्भव योग्य तिर्यञ्च या मनुष्य भव-योग्य आयुष्य का बंध कर वलयमरण-संयमजीवन से च्युत व्यक्ति के मरण को वलयमरण
वर्तमान आयु के क्षय होने पर मरता है, उसका मरण 'तद्भवमरण' कहा जाता है। मूलाराधना में इसका नाम वलायमरण है। विजयोदया
है। वृत्ति के अनुसार यह केवल मनुष्य और तिर्यञ्च के होता है।
उत्तराध्ययननियुक्ति के अनुसार तद्भवमरण अकर्मभूमिज मनुष्य और में इसके संस्कृत रूप दो दिए हैं—पलाय और बलाका। उत्तराध्ययन
तिर्यञ्च तथा देव, नारक को छोड़कर शेष जीवों (मनुष्य और तिर्यञ्च) नियुक्ति में भी वलायमरण नाम उपलब्ध है। भगवतीवृत्ति में भी
के होता है। तद्भवमरण बालमरण का एक प्रकार माना गया है। इसका संस्कृत रूप वलन्मरण किया है।'
इसका हेतु क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर जयाचार्य ने दिया है। वशर्तमरण इन्द्रिय और विषय की परतन्त्रता से पीड़ित मनु- उनके अनुसार निदानपूर्वक होने वाला तद्भवमरण बालमरण होता ष्य का मरण विजयोदया के अनुसार आर्त-रौद्र-ध्यान में प्रवर्तमान प्राणी है।' का मरण वशार्तमरण है। इसके चार भेद किए गए हैं: १. इन्द्रि
बहानश इसका मूल वेहाणस है। मूलारापना में विपाणस शब्द यवशात २. वेदनावशात ३. कषायवशात ४. नोकषायवशात।
मिलता है। इन दोनों में समानता खोजी जा सकती है। वैहानश __ अन्तःशल्यमरण-अतिचारों की आलोचना किए बिना दोषपूर्ण और विपाणस दोनों विशेष स्थिति में अप्रतिषिद्ध बतलाए गये हैं। स्थिति में होने वाला मरण । वृत्तिकार ने इसके दो भेद किए हैं-द्रव्य विह का अर्थ है-आकाश और आनश का अर्थ है—विनाश या
और भाव। शरीर में शस्त्र की नोक आदि रहने से जो मृत्यु होती जीवन की समाप्ति । इस प्रकार वैहानश का अर्थ होगा-वृक्ष-शाखा है, वह 'द्रव्य अन्तःशल्य-मरण' कहलाता है। लञ्जा और अभिमान आदि से लटक कर गले में फन्दा डालकर जीवन को समाप्त कर आदि के कारण अतिचारों की आलोचना न कर दोषपूर्ण स्थिति में देना। वृत्तिकार ने निरुक्तिवशात वैहानस शब्द की सिद्धि की है।" मरने वाले की मृत्यु को 'भाव अन्तःशल्य-मरण' कहा जाता है। किन्तु समाप्ति के अर्थ में तालव्य शकार अधिक उपयुक्त है। विषाणस
विजयोदया में इसका नाम 'शल्य-मरण' है। उसके भी दो भेद का अर्थ प्राण-अपान का निरोध कर जीवन को समाप्त करना है। हैं-द्रव्यशल्य और भावशल्य। मिथ्यादर्शन, माया और निदान इन संभावना की जा सकती है कि दोनों शब्द मूल में एक तीनों शल्यों की उत्पत्ति के हेतुभूत कर्म को 'द्रव्यशल्य' कहा जाता बाद में पाठ-परिवर्तन हुआ हो। अर्थ की दृष्टि से वेहाणस पाठ है। द्रव्यशल्य की दशा में होने वाला 'द्रव्यशल्य-मरण' कहलाता है। अधिक उपयुक्त लगता है।
१.भ.जो.१।३५।२६३१
मुख्य थकी ए ख्यात, द्वि प्रकार पंडित-मरण ।
अणसण विण मुनि जात, मरै तिको न कहयुं इहां। सर्वानुभूति साध, सुनक्षत्र मुनिवर बलि | पाम्या पद आराध, अणसण विण पंडित-मरण || वली अन्य मुनिराय, संथारा विण जे मरे।
ते पंडित-मरण सुहाय, तेहनों कथन इहां नथी । २. विजयोदया, वृ.प.८८। ३. उत्तरा. नि.गा.२१७--
संजोगजोगविसन्ना मरंति जे तं वलायमरणं तु। ४. भ.वृ.२१४६-वलतो बुभुक्षापरिगतत्वेन वलवलायमानस्य संयमाद् वा प्रस्यतो
मरणं तद्वलन्मरणम् । ५. विजयोदया,वृ.प.८६)
६. (क) सम.वृ.प.३४-यस्मिन् भवे-तिर्यग्मनुष्यभवलक्षणे वर्तते जन्तुस्तद्
भवयोग्यमेवायुर्बद्ध्वा पुनः तत्क्षयेण म्रियमाणस्य यद्भवति तत्तद्भवमरणम् । (ख) भ.वृ.२१४६ तथा तस्मै भवाय मनुष्यादेः सतो मनुष्यादावेव बद्धायुषो
यन्मरणं तत्तद्भवमरणम्। ७. वही,२१४६-इदं च नरतिरश्चामेवेति । ८. उत्तरा.नि.गा.२२१
मोत्तुं अकम्मभूमग-नर-तिरिए सुरगणे अ नेरइए।
सेसाणं जीवाणं तब्भवमरणं तु केसिंचि ॥ ६. भ.जो.११३५१६
मनुष्य मरी नै मनुष्य हुवै, तिर्यंच मरी नै तिर्यच ।
तद्भव-मरण कह्यो तसुं, कर्म निदाने संच ॥ १०. भ.व.२।४६–'वेहाणसे'त्ति विहायसि—आकाशे भवं वृक्षशाखाधुबन्धनेन
यत्तन्निरुक्तिवशाद्वैहानसम्।
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