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श.२: उ.१: सू.४६
२२८
भगवई
भग. २/४६
ठाणं, २/४११-१४
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सम. १७/६
नि. ११/६३
मरण
आवीचि अवधि आत्यन्तिक वलाय (वलन्) वशात अन्तःशल्य तद्भव
बालमरणवलय वशात तद्भव अन्तःशल्य गिरिपतन तरुपतन जलप्रवेश ज्वलनप्रवेश विषभक्षण शस्त्रावपाटन वहायस
गृध्रस्पृष्ट पण्डितमरण प्रायोपगमन
भक्तप्रत्याख्यान म. १३/१३०-१४५ मरण
आवीचि अवधि आत्यन्तिक बाल पण्डित
अप्रशस्तमरणवलय निदान वशात तद्भव निदान गिरिपतन तरुपतन जलप्रवेश ज्वलनप्रवेश विषभक्षण शस्त्रावपाटन वैहायस
गृध्रस्पृष्ट प्रशस्तमरण प्रायोपगमन भक्तप्रत्याख्यान
बाल पण्डित
मूलाराधना, १/२५ विजयोदया वृत्ति प.९६ मरण
अवीचि तद्भव अवधि आद्यन्त बाल पण्डित अवसन्न बालपण्डित सशल्य वलाय वशार्त विप्राणस गृध्रपृष्ठ भक्तप्रत्याख्यान प्रायोपगमन इंगिनी
बालमरणगिरिपतन मरुपतन भृगुपतन तरुपतन गिरिप्रस्कन्दन मरुप्रस्कन्दन भृगुप्रस्कन्दन तरुप्रस्कन्दन जलप्रवेश ज्वलनप्रवेश जलप्रस्कन्दन ज्वलनप्रस्कन्दन विषभक्षण शस्त्रावपाटन वलय वशात तभव अन्तःशल्य वैहायस गृध्रस्पृष्ट
बालपण्डित छद्मस्थ केवली वैहायस गृद्धस्पृष्ट (गृद्धपृष्ठ) भक्तप्रत्याख्यान
इंगिनी
प्रायोपगमन
केवली
उत्तराध्ययन नियुक्ति में 'वैहायस' और 'गृध्रस्पृष्ट' इन दोनों को अनुज्ञात बतलाया गया है।
उक्त तालिका में मरण की संख्या और क्रम में भेद मिलता है। संख्या भेद विवक्षा-सापेक्ष है। निशीथ में बालमरण के २० प्रकार बतलाए गये हैं और अन्त में इस प्रकार के अन्यतर बाल मरणों का भी संकेत किया गया है। इससे स्पष्ट है कि बालमरण की संख्या १२ भी हो सकती है, २० भी हो सकती है और ५० भी हो सकती है। ग्रंथकर्ता की विवक्षा के आधार पर संख्या न्यून और अधिक हो सकती है। क्रमभेद भी ग्रन्थकर्ता की विवक्षा है।
मृत्यु के मूल प्रकार दो ही हो सकते हैं-आवीचिमरण और प्रायोगिकमरण। शेष सब प्रायोगिकमरण के प्रकार हैं। अकलंक ने मरण के दो प्रकारों का निर्देश किया है-नित्यमरण और तद्भव- मरण। उनके अनुसार तद्भवमरण का अर्थ है नए भव की प्राप्ति
से पूर्ववर्ती अनन्तर क्षण में होने वाला पूर्वभव का विगमन ।' बालमरण और पण्डितमरण के दो-दो अर्थ होते हैं
१. अविरत व्यक्ति का मरण बालमरण कहलाता है। विरत व्यक्ति का मरण पण्डितमरण कहलाता है। देशविरत व्यक्ति का मरण बालपण्डितमरण कहलाता है। बालमरण और पण्डितमरण का उक्त अर्थ अविरति और विरति की अपेक्षा से किया गया है।'
२. प्रस्तुत प्रकरण में बाल मनुष्य या अविरत मनुष्य के आत्मघाती प्रयल, निदान और आर्त्त-रौद्र ध्यान की दशा में होने वाला मरण बालमरण है।
इसी प्रकार यहां पण्डितमरण का प्रयोग भी अनशनपूर्वक होने वाले मरण के अर्थ में किया गया है। पण्डितमरण का एक प्रकार इंगितमरण भी है। यह भक्तप्रत्याख्यान का ही एक प्रकार है। इसलिए इसका पृथक् निर्देश नहीं है। जयाचार्य ने इस प्रसंग में एक सहज
१. उत्तरा.नि.गा.२२४
गिद्धाइभक्खणं गिद्धपिट्ट उब्बंधणाइ वेहासं ।
एए दुनि वि मरणा, कारणजाए अणुण्णाया।। २. निसीह.११।६३–अण्णयराणि वा तहप्पगाराणि बालमरणाणि । ३. त.रा.वा.७।२२-परणं द्विविधं नित्यभरणं तद्भवमरणं चेति।.....
तद्भवभरणं भवान्तरप्राप्त्यनंतरोपश्लिष्टं पूर्वभवविगमनम् । ४. उत्तरा.नि.गा.२२२ -
अविरयमरणं बालं मरणं विरयाण पंडियं विति । जाणाहि बालपंडियमरणं पुण देसविरयाणं ।।
५. (क) भ.जो.१।३५।२७,२८--
अन्य सूत्र रै माय, पंडित मरणज त्रिविधे । पाओवगमन सुहाय, इंगित भतपचखाण फुन ।। इंगित-मरणज तेह, विशेष भतपचखाण नों।
तिण कारण थी जेह, तृतिय भेद न कहयो इहां ।। (ख) भ.वृ.२ । ४६-यच्चान्यत्रेह स्थाने इंगितमरणमभिधीयते तद्भक्तप्रत्याख्यानस्यैव विशेष इति नेह भेदेन दर्शितमिति ।
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