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________________ भगवई २२७ श.२: उ.१: सू.४६ से किं तं पंडियमरणे ? अथ किं तत् पण्डितमरणम् ? वह पण्डितमरण क्या है ? पंडियमरणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा- पण्डितमरणं द्विविधं, प्रज्ञप्तं, तद् यथा- पण्डितमरण दो प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसेपाओवगमणे य, भत्तपञ्चक्खाणे य। प्रायोपगमनं च भक्तप्रत्याख्यानं च । प्रायोपगमन और भक्तप्रत्याख्यान | से किं तं पाओवगमणे? अथ किं तत् प्रायोपगमनम् ? वह प्रायोपगमन क्या है ? पाओवगमणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा- प्रायोपगमनं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद् यथा- प्रायोपगमन दो प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसेनीहारिमे य, अनीहारिमे य । नियमा निर्झरिमञ्च, अनि रिमञ्च। नियमाद् । निर्वारि और अनिहारि। यह नियमतः अपरिकर्म अप्पडिकम्मे। अप्रतिकर्म। होता है। सेत्तं पाओवगमणे । तदेतत् प्रायोपगमनम् । यह प्रायोपगमन है। से किं तं भत्तपचक्खाणे? अथ किं तद् भक्तप्रत्याख्यानम् ? वह भक्तप्रत्याख्यान क्या है ? भत्तपचक्खाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा- भक्तप्रत्याख्यानं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद् यथा- भक्तप्रत्याख्यान दो प्रकार का प्रज्ञाप्त है, जैसेनीहारिमे य, अनीहारिमे य । नियमा निर्धारि और अनिर्हारि। यह नियमतः सपरिकर्म सपडिकम्मे । सप्रतिकर्म। होता है। सेत्तं भत्तपचक्खाणे । तदेतद् भक्तप्रत्याख्यानम्। यह भक्तप्रत्याख्यान है। इच्चेतेणं खंदया ! दुविहेणं पंडियमरणेणं इत्येतेन स्कन्दक ! द्विविधेन पण्डितमरणेन स्कन्दक ! इस द्विविध पण्डितमरण से मरता हुआ मरमाणे जीवे अणंतेहिं नेरइयभवग्गहणेहिं म्रियमाणः जीवः अनन्तैः नैरयिकभवग्रहणैः जीव नैरयिक के अनन्त भव-ग्रहण से अपने अप्पाणं विसंजोएइ, अणंतेहिं तिरिय- आत्मानं विसंयोजयति, अनन्तैः तिर्यग्- आपको विसंयोजित करता है, तिर्यंच के अनन्त भवम्गहणेहिं अप्पाणं विसंजोएइ, अणंतेहिं भवग्रहणैः आत्मानं विसंयोजयति, अनन्तैः । भव-ग्रहण से अपने आपको विसंयोजित करता मणुयभवम्गहणेहिं अप्पाणं विसंजोएइ, मनुष्यभवग्रहणः आत्मानं विसंयोजयति, है, मनुष्य के अनन्त भव-ग्रहण से अपने आप अणंतेहिं देवभवग्गहणेहिं अप्पाणं अनन्तैः देवभवग्रहणैः आत्मानं विसंयोजयति, को विसंयोजित करता है, देव के अनन्त भवविसंजोएइ, अणाइयं च णं अणवदगं अनादिकं च 'अणवदग्गं' चतुरन्तं संसार- ग्रहण से अपने आपको विसंयोजित करता है और चाउरंतं संसारकतारं वीईवयइ। सेत्तं कान्तारं व्यतिव्रजति। वह आदि-अन्तहीन चतुर्गत्यात्मक संसारकान्तार मरमाणे हायइ-हायइ। तदेतन् म्रियमाणः हीयते-हीयते । का व्यतिक्रमण करता है। इस पण्डितमरण से मरता हुआ जीव घटता है, घटता है। सेत्तं पंडियमरणे। तदेतत् पण्डितमरणम् । यह पण्डितमरण है । इच्चेएणं खंदया ! दुविहेणं मरणेणं मरमाणे इत्येतेन स्कन्दक ! द्विविधेन मरणेन म्रियमाणः स्कन्दक ! इस द्विविध बाल और पण्डितमरण से जीवे वड्ढइ वा, हायइ बा॥ जीवः वर्धते वा, हीयते वा। मरता हुआ जीव बढ़ता है और घटता है। भाष्य १. सूत्र ४६ आयु का क्षय, इन्द्रिय और बल का विनाश होना मरण है। इनमें वैहायस और गध्रस्पृष्ट विशेष स्थिति में अप्रतिऋष्टअनिषिद्ध उसके दो प्रकार बतलाए गये हैं-बालमरण और पंडितमरण | ठाणं बतलाए गए हैं। आयारो में केवल वैहायस का विधान है।' उसमें में मरण के तीन प्रकार मिलते है-बालमरण, पण्डितमरण और गृध्रस्पृष्ट का विधान नहीं है। इससे प्रतीत होता है कि गृध्रस्पृष्ट बालपण्डितमरण ।' यहां 'बालपण्डितमरण' स्वतंत्र रूप में विवक्षित अनिषिद्ध है-यह मान्यता आयारो के उत्तरकाल में हुई है। ठाणं नहीं है। ठाणं में मरण के चौदह प्रकार तथा समवाओ में मरण के में वैहायस और गृध्रस्पृष्ट दोनों अनिषिद्ध हैं। विजयोदया में भी सतरह प्रकार बतलाए गए हैं। भगवती आराधना में भी मरण के सतरह प्रकार उपलब्ध हैं। देखें तालिका । वैहायस और गृध्रपृष्ठ को अप्रतिषिद्ध और अननुज्ञात बतलाया गया प्रस्तुत प्रकरण में बालमरण के बारह प्रकार बतलाए गए हैं। १. ठाणं, ३५१६-तिविहे मरणे पण्णत्ते, तं जहा—वालमरणे, पंडियमरणे, बालपंडियमरणे। २. आयारो, ८/५ तवस्सिणो हु तं सेयं, जमेगे विहमाइए। ३. ठाणं, २।४१३-दो मरणाई समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं निग्गंथाणं णो निचं कित्तियाई णो णिचं बुइयाई णो णिचं पसत्थाई णो णिचं अब्मणुण्णायाई भवंति। कारणे पुण अप्पडिकुट्ठाई, तं जहा–बेहाणसे चेव गिद्धपढे चेव। ४. विजयोदया, वृ.प.८५-अप्रतिषिद्धे अननुज्ञाते च द्वे मरणे विप्पणासं गिद्धपुढे इति संक्षिते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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